Cash For Vote Case: रिश्वत लेकर सदन में वोट देने वाले माननीयों को आपराधिक मुकदमे से छूट नहीं, सुप्रीम कोर्ट के फैसले की बड़ी बातें
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि विधायिका का कोई भी सदस्य अनुच्छेद 105 और अनुच्छेद 194 के तहत सदन में वोट या भाषण से संबंधित रिश्वतखोरी के आरोप में आपराधिक मुकदमे से छूट पाने के लिए विशेषाधिकार का दावा नहीं कर सकता। कोर्ट ने कहा कि अनुच्छेद 105 और अनुच्छेद 194 एक ऐसा माहौल बनाए रखने की बात करते हैं जिसमें सदन के भीतर बहस और चर्चा हो सके।

माला दीक्षित, नई दिल्ली। रिश्वत लेकर सदन में वोट देने वाले अब संसदीय विशेषाधिकार की आड़ लेकर नहीं बच पाएंगे। ऐसे सांसदों-विधायकों को अब विशेषाधिकार का कवच नहीं मिलेगा। सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को ऐतिहासिक फैसला दिया है जिसमें सात न्यायाधीशों की पीठ ने सर्वसम्मति से कहा है कि रिश्वत लेकर सदन में मतदान करने या भाषण देने पर आपराधिक मुकदमे से छूट नहीं है।
रिश्वतखोरी से कमजोर होती है लोकतंत्र की नींव
कोर्ट ने कहा कि रिश्वत लेकर सदन में मतदान करना या भाषण देना सांसदों विधायकों को मिले संसदीय विशेषाधिकार के तहत नहीं आएगा। कोर्ट ने यह भी कहा कि रिश्वत लेने का अपराध उसी पल हो जाता है जब सांसद - विधायक रिश्वत लेता है या लेने के लिए तैयार हो जाता है, उसके बाद वह वोट देता है या नहीं देता इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। कोर्ट ने कहा कि सांसदों-विधायकों का भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी भारतीय संसदीय लोकतंत्र की नींव कमजोर करती है। यानी रिश्वत लेकर कोई राज्यसभा उम्मीदवार के लिए वोट डालता है या किसी पार्टी या सरकार का समर्थन करता है तो उस पर कानूनी कार्रवाई होगी।
सुप्रीम कोर्ट में केंद्र सरकार की दलीलें
केंद्र सरकार की ओर से भी सुप्रीम कोर्ट में दलील दी गई थी कि भ्रष्टाचार के मामले में किसी को विशेषाधिकार नहीं दिया जा सकता है। राजनीति के लिहाज से महत्वपूर्ण और देश की संसदीय राजनीति पर असर डालने वाला यह फैसला प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, एएस बोपन्ना, एमएम सुद्रेश, पीएस नरसिम्हा, जेबी पार्डीवाला, संजय कुमार और मनोज मिश्रा की सात सदस्यीय पीठ ने सर्वसम्मति से सुनाया है।
रिश्वत लेकर मतदान करने वालों पर चलेगा मुकदमा
सात न्यायाधीशों की पीठ ने 1998 का पीवी नरसिम्हा राव मामले में दिया पांच न्यायाधीशों का बहुमत का जो फैसला पलटा है उसमें कहा गया था कि जो सांसद विधायक रिश्वत लेते हैं और उसके मुताबिक वोट देते हैं उन्हें संसदीय विशेषाधिकार प्राप्त होगा उन पर आपराधिक मुकदमा नहीं चलेगा जबकि जो सांसद विधायक रिश्वत लेकर निर्देशों के मुताबिक मतदान नहीं करते और अपने मन से मतदान करते हैं उन पर आपराधिक मुकदमा चलेगा।
शिबू सोरेन केस का उदाहरण
सुप्रीम कोर्ट की सात न्यायाधीशों की पीठ ने 1998 के इस फैसले को रद करते हुए का कि इस व्याख्या का विरोधाभासी निष्कर्ष निकलता है। झारखंड मुक्ति मोर्चा की विधायक सीता सोरेन पर आरोप है कि 2012 में राज्यसभा चुनाव में वोट देने के लिए रिश्वत ली थी हालांकि उन्होंने बाद में वोट अपने दल को ही दिया था लेकिन इस मामले में सीता सोरेन के खिलाफ आपराधिक मुकदमा दर्ज हुआ जिसे उन्होंने हाई कोर्ट में चुनौती दी और विशेषाधिकार का दावा करते हुए मुकदमा रद करने की मांग की। उन्होंने इस मामले में शिबू सोरेन केस का उदाहरण दिया था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद सीता सोरेन सहित ऐसे ही किसी भी दूसरे मामलों पर इसका असर दिखेगा।
1998 के बहुमत के फैसले से असहमत
पीठ की ओर से प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने फैसला पढ़ते हुए कहा कि विधायिका के सदस्यों का भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी भारतीय संसदीय लोकतंत्र की नींव को कमजोर करती है। यह संविधान की आकांक्षाओं और विचारशील आदर्शों के लिए विघटनकारी है और ऐसी राजनीति का निर्माण करता है, जो नागरिकों को जिम्मेदार, उत्तरदायी और प्रतिनिधि लोकतंत्र से वंचित करता है। पीठ ने कहा कि उन्होंने 1998 के पीवी नरसिम्हा राव फैसले पर सभी पहलुओं से विचार किया और वह 1998 के बहुमत के फैसले से असहमत हैं और उसे रद करते हैं।
सदन के भीतर बहस और चर्चा वाला माहौल
सोमवार के फैसले में कोर्ट ने कहा कि विधायिका का कोई भी सदस्य अनुच्छेद 105 और अनुच्छेद 194 के तहत सदन में वोट या भाषण से संबंधित रिश्वतखोरी के आरोप में आपराधिक मुकदमे से छूट पाने के लिए विशेषाधिकार का दावा नहीं कर सकता। कोर्ट ने कहा कि अनुच्छेद 105 और अनुच्छेद 194 एक ऐसा माहौल बनाए रखने की बात करते हैं जिसमें सदन के भीतर बहस और चर्चा हो सके। यह उद्देश्य तब नष्ट हो जाता है जब किसी सदस्य को रिश्वत के द्वारा एक निश्चित तरीके से बोलने या वोट देने के लिए प्रेरित किया जाता है।
सांसदों-विधायकों को विशेषाधिकार देने का उद्देश्य
कोर्ट ने फैसले में कहा है कि सांसदों और विधायकों को विशेषाधिकार देने का उद्देश्य था कि सांसद और विधायक बिना डरे देश हित की बात कर पाएं लेकिन रिश्वत लेकर वोट देने से यह प्रक्रिया भंग हो जाती है। फैसले में कोर्ट ने यह स्पष्ट किया है कि सदन की कमेटी और कोर्ट की कार्यवाही दोनों अलग अलग चीजें हैं दोनों में अंतर है।
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