आर्थिक समृद्धि के लिए हर राज्य बढ़ाए अपनी आय, अपने कर्तव्य का सही तरीके से निर्वहन जरूरी
धन की मुफ्त बंदरबांट की जगह खाली खजाने वाले हमारे राज्यों को आय बढ़ाने के स्रोतों पर ध्यान देने की जरूरत है। ‘घर में नहीं हैं दाने अम्मा चलीं भुजाने’ से अच्छा है कि खुद की अतिरिक्त आय से लोगों का और ज्यादा व प्रभावी कल्याण सुनिश्चित करें।
डॉ. विकास सिंह। राज्यों का खजाना भले ही खाली हो, लेकिन मुफ्त की रेवड़ियां बांटने से वे परहेज नहीं करते हैं। कमोबेश सारे राज्य घाटे का बजट पेश कर रहे हैं, लेकिन चुनाव के अलावा सामान्य दिनों में भी गैरउत्पादक खर्चो पर उनका बजट तेजी से बढ़ा है। लोगों को फौरी राहत दिलाने की उनकी मानसिकता राज्य के आर्थिक विकास के लिए अभिशाप बनती जा रही है। बड़ा सवाल यह है कि खाली खजाने वाली सरकारें राज्य के विकास के मद में या उत्पादक खर्च को लेकर क्यों अन्यमनस्क रहती हैं?
जनकल्याण से जुड़ी केंद्र की फ्लैगशिप योजनाओं को या तो ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है या फिर उनकी रिब्रांडिंग कर दी जाती है। मतदाता बहुत सहज होते हैं। वे ये समझ नहीं पाते कि किस नीति या योजना के लिए किस हद तक कौन-सी सरकार उत्तरदायी है। राजनीतिक दल स्थिति को और बदतर कर देते हैं। अच्छी योजनाओं का श्रेय खुद लूटते हैं और दायित्वों के प्रति लापरवाह हो जाते हैं। हमारा प्रशासनिक परिवेश भी कम जटिल नहीं है। भले ही कोई कार्यक्रम (मनरेगा) केंद्रीय रूप से डिजायन और वित्तपोषित हो, लेकिन उसके कार्य निष्पादन के लिए राज्य जिम्मेदार हैं।
मूल रूप से कृषि पर आश्रित 11 राज्यों के बीच हुए एक अध्ययन के नतीजे आंखें खोलने वाले रहे हैं। इसमें बताया गया है कि कैसे प्राथमिकताओं के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है। करीब 75 फीसद से अधिक भूस्वामियों को संस्थागत क्रेडिट मुहैया हो रहा है। गहराई में जाकर किया गया विश्लेषण समस्या की मूल वजह बताता है। ऋण के रूप में पूंजीगत निवेश का अनुपात कृषि के लिए जारी कुल क्रेडिट का बहुत छोटा सा हिस्सा है और यह लगातार क्षीण भी हो रहा है।
पूंजी निर्माण की जगह निजी तौर पर किसानों को बांटी जाने वाली रेवड़ियां उनकी उत्पादकता को कम करती हैं। किसानों के लिए ऋण की व्यवस्था स्वागतयोग्य है। कृषि क्षेत्र के टिकाऊपन के लिए पूंजीगत निवेश अहम है। इससे हमारे किसान सशक्त होते हैं। इससे सिंचाई की सुविधा और बीज जैसे इनपुट वाली अनिश्चितताएं खत्म होती है। कृषि में पूंजी का सृजन इस क्षेत्र के लिए गुणक साबित होती है।
इसी तरह राज्य सरकारें अस्पताल तो खुशी-खुशी बनाती हैं, लेकिन लोग बीमार ही न हों या बीमारी से रोकथाम के उपायों को प्रभावी तरीके से लागू करने में हिचक दिखाती हैं। यह भी वोट केंद्रित तात्कालिक लाभ का एक अनूठा उदाहरण है। स्वच्छ भारत अभियान स्वास्थ्य खर्च को कम कर सकता है। दीर्घकालीन आर्थिक मूल्य विकास को तेज करते हैं। दुर्भाग्य से हमेशा से यह देखा गया है कि केंद्र से इतर दलों की राज्य सरकारें स्वच्छ भारत जैसे निवारण प्रयासों को मुंह चिढ़ाती दिखती रही हैं। भारत के पास रॉबिनहुड बनने लायक संसाधन नहीं हैं। इसके प्रतिकूल आर्थिक विकास कल्याण का दायरा विस्तृत करता है जिसमें सभी के लिए अर्थपूर्ण और टिकाऊ हिस्सा होता है। इससे अधिक संख्या में लोग आत्मनिर्भर होते हैं जिन्हें ऐसी ‘रेवड़ियों’ की जरूरत भी नहीं होती है।
अपनी वित्तीय तंगहाली में लोगों को मुफ्त की रेवड़ियां बांटने से ज्यादा सरकारों को हुनर को निखारने, मूल्यवर्धक संस्थानों के निर्माण पर ध्यान देना चाहिए। निवेश को आकर्षित करने और रोजगार बढ़ाने के लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर उत्प्रेरक की तरह काम करता है। दुर्भाग्य से सभी राज्य मूल समस्या पर बात करने से परहेज करते हैं। विकास के इंजन कहे जाने वाले एमएसएमई को जरूरी मदद नहीं मिल पाती है। सर्वाधिक कुशल का इंस्पेक्टर राज गला घोंट देता है। नतीजतन वैल्यू की वृद्धि में वे विफल साबित होते हैं। इससे बड़े कॉरपोरेट की कुशलता भी कम होती है। हालांकि, इन सब में केंद्र की भी भूमिका होती है, लेकिन अगर राज्य अपनी कर्तव्य का सही तरीके से निर्वहन करें तो सबसे ज्यादा फायदा उन्हीं का होगा।
(लेखक मैनेजमेंट गुरु और वित्तीय एवं समग्र विकास के विशेषज्ञ हैं)