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    विभाजन के 75 वर्ष बीत जाने के बाद भी लोगों के विस्थापित होने का सिलसिला थमा नहीं

    By Sanjay PokhriyalEdited By:
    Updated: Sun, 14 Aug 2022 11:29 AM (IST)

    स्वतंत्रता के साथ देश का विभाजन भी हुआ। इसने लाखों जानें लीं और करोड़ों लोगों का जीवन तहस-नहस कर दिया था। विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस (14 अगस्त) पर उस त्रासदी को स्मरण करना दरअसल देश की एकता के लिए दिए गए बलिदान को भी स्मरण करना है।

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    इतिहास के सही विवेचन व भविष्य के लिए सबक की आवश्यकता को रेखांकित कर रहे हैं डा. सच्चिदानंद जोशी...

    डा. सच्चिदानंद जोशी। पिछले वर्ष 15 अगस्त को जब लाल किले से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 14 अगस्त को ‘विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस’ के रूप में याद करने की घोषणा की, तब बहुत कम लोगों ने प्रधानमंत्री की इस घोषणा के दूरगामी परिणामों को आंका होगा। बहुतों ने शायद उस समय इस बात की आलोचना भी की होगी कि ऐसे समय में जब सारा देश स्वाधीनता का अमृत महोत्सव मना रहा हो और चारों ओर उत्सव का वातावरण हो, ऐसे में विभाजन की विभीषिका को याद करना अनावश्यक और अप्रासंगिक है।

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    प्रधानमंत्री कितने सही थे, इसका अंदाज तब हुआ जब स्मृति दिवस के निमित्त लोगों का साथ आकर मिलना-बतियाना शुरू हुआ। इस बात का एहसास धीरे-धीरे, लेकिन कहीं बहुत गहरे में फैलता चला गया कि पिछली शताब्दी के या यूं कहें कि आधुनिक विश्व के इतिहास में अब तक के सबसे बड़े मानव विस्थापन और नरसंहार को कुछ समय के लिए स्मृतियों से ओझल कर देना तो शायद संभव है, लेकिन पूरी तरह दरकिनार कर देना प्राय: असंभव है। इस घोषणा के पीछे का उद्देश्य इस भीषण मानव निर्मित त्रासदी के इतिहास से उस पीढ़ी को आगाह करा देना रहा होगा जो इस त्रासदी के इतिहास से अछूती है और जिसका नए भारत में निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान रहने वाला है।

    अब तक भुगत रहे दुष्परिणाम

    20 फरवरी, 1947 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लेमेट एटली ने हाउस आफ कामंस में घोषणा की थी कि सरकार ने 30 जून, 1948 से पहले सत्ता के हस्तांतरण का फैसला किया है। भारत के तत्कालीन वायसराय लार्ड माउंटबेटन ने पूरी प्रक्रिया को तेजी से करते हुए हस्तांतरण की तिथि को एक साल पहले करने के प्रस्ताव पर स्वीकृति प्राप्त कर ली। दो जून, 1947 की ऐतिहासिक बैठक में कई भारतीय नेताओं ने धार्मिक आधार पर विभाजन को लेकर विरोध किया मगर उन नेताओं ने इस पर सहमति दे दी, जिनका हित और भविष्य ही भारत के विभाजन से जुड़ा था। चार जून, 1947 को माउंटबेटन ने पत्रकार सम्मेलन में इसकी घोषणा की, तब उनके पास विभाजन से जुड़े कई व्यावहारिक और भावनात्मक प्रश्नों के हल नहीं थे। यह दुर्भाग्य इतने पर ही थम जाता तब भी कुछ गनीमत थी। सात जून, 1947 को माउंटबेटन ने बैरिस्टर सिरिल रेडक्लिफ को दो सीमा आयोगों की अध्यक्षता करने के लिए कहा- एक पंजाब के लिए और एक बंगाल के लिए। रेडक्लिफ को भारत के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। आठ जुलाई को रेडक्लिफ भारत आए और 12 अगस्त तक उन्होंने रिपोर्ट पूरी कर ली। भारत के प्रति अनभिज्ञता और अपने कार्य के प्रति उदासीनता के कारण रेडक्लिफ एक ऐसा निर्णय दे गए, जिसका खामियाजा भारत और पाकिस्तान दोनों ही देश आज तक भुगत रहे हैं।

    दुखों का टूटा पहाड़

    स्वाधीनता के तराने सुनने में जितने दिलकश लगते हैं, उतनी ही या शायद उससे कहीं ज्यादा हृदय विदारक वो चीखें हैं जिन्हें स्वाधीनता के शोरशराबे में बुरी तरह दबा दिया गया और उनके दर्द को पृष्ठभूमि में दफन कर स्वाधीनता का जश्न मनाया गया। विभाजन की घोषणा के साथ विस्थापन और भयानक हिंसा का दौर शुरू हुआ। एक तरफ जब भारत के अधिकांश भागों में स्वाधीनता का जश्न था तो दूसरी तरफ लाखों लोग ऐसे भी थे जो अपना घर-संसार और रिश्तेदार छोड़कर आए और विभिन्न शरणार्थी बस्तियों में पड़े आंसू बहा रहे थे। इन बस्तियों में रहने वाले किसी ने अपना घर जमीन-जायदाद खोया था तो बहुत से लोग ऐसे थे जिन्होंने अपने सगे-संबंधी ही खो दिए थे।

    बढ़ जाएगी सार्थकता

    पाकिस्तान से पिछले 30 वर्ष में जितने हिंदुओं को भगाया गया है, वह किसी भी राष्ट्र की असंवेदनशीलता को दर्शाता है। धर्म के आधार पर जिस देश की निर्मिति हुई हो वहां अल्पसंख्यकों के साथ किया जाने वाला अमानवीय व्यवहार कहीं न कहीं हमें चुनौती भी देता है। एक पंथ निरपेक्ष राष्ट्र होते हुए भी भारत में जिस तरह अल्पसंख्यकवाद को पाला-पोसा गया है, वह अकल्पनीय है। बांग्लादेश से आने वार्ले ंहदू परिवारों की त्रासदी तो और भी पीड़ादायक है। आश्चर्य होता है सिर्फ कूटरचित दुष्प्रचार के कारण भारत को कटघरे में खड़ा करने वाले तथाकथित मानव अधिकारवादी अंतरराष्ट्रीय संगठन पाकिस्तान या बांग्लादेश से प्रताड़ित कर भगाए जाने वाले हिंदू परिवारों की दुर्दशा पर चुप्पी क्यों साध लेते हैं! विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस के निमित्त ऐसे असंख्य परिवारों की ओर भी ध्यान जाए तो इस दिन की सार्थकता और बढ़ जाएगी।

    तथ्यपरक हो इतिहास और साहित्य

    हमारे देश की बड़ी समस्या इतिहास लेखन की रही है। हमने स्वतंत्रता प्राप्ति के इतने वर्ष बाद भी भारतीय दृष्टिकोण से प्रामाणिक इतिहास लेखन की तरफ ध्यान ही नहीं दिया है। हम अभी भी उन्हीं ऐतिहासिक ग्रंथों और तथ्यों पर निर्भर हैं जो यूरोपीय इतिहासकारों ने अपने दृष्टिकोण से लिखे। यही कारण है कि इतिहास की किताबों में अभी भी विभाजन के घटनाक्रम को दो-चार पंक्तियों या बहुत हुआ तो एक-दो पैराग्राफ में समेट दिया गया है। यदि इस समूचे घटनाक्रम की तथ्यपरक विवेचना की जाए तो कई ऐसे तथ्य सामने आएंगे जो उन तमाम चेहरों पर से नकाब हटा सकते हैं जिन्होंने व्यक्तिगत स्वार्थ एवं महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए इस देश को विभाजन की विभीषिका में झोंक दिया। यह भी स्पष्ट हो जाएगा कि भारत का विभाजन अपरिहार्यता नहीं थी बल्कि ब्रिटिश हुकूमत का एक षड्यंत्र था, ताकि वे 1947 में विश्व के सबसे शक्तिशाली राष्ट्र का उदय रोक सकें। विभाजन की त्रासदी को लेकर भारत में लिखा गया ज्यादातर साहित्य भावनात्मक धरातल पर लिखा गया। ऐसे साहित्य की रचना भी आवश्यक है, लेकिन उतना ही आवश्यक है कि ऐसे तथ्यपरक साहित्य की रचना हो जो विभाजन की पृष्ठभूमि, विभाजन की प्रक्रिया और विभाजन का क्रियान्वयन ऐसे तमाम जरूरी मुद्दों पर प्रकाश डाल सके। इतिहास की घटनाओं को पलटा नहीं जा सकता, लेकिन उसका सही विवेचन तो किया ही जा सकता है ताकि हम आगे आने वाले समय में उससे सबक ले सकें।

    दुर्घटनाओं को याद करने का वक्त

    विभाजन के ऐतिहासिक संदर्भों को तथ्यपरक दृष्टि से समझने के लिए पाकिस्तानी मूल के स्वीडिश राजनीतिशास्त्र विशेषज्ञ प्रो. इश्तियाक अहमद जैसे अध्येताओं को पढ़ना जरूरी है। उन्होंने अपनी पुस्तकों ‘द पंजाब ब्लडीड, पार्टिशंड एंड क्लींस्ड (2012’ तथा ‘जिन्ना: हिज सक्सेसेज, फेल्योर एंड रोल इन हिस्ट्री (2020)’ में उन तमाम परिस्थितियों का सिलसिलेवार वर्णन किया है जो विभाजन के लिए कारक बनीं। साथ ही उन्होंने जिन्ना जैसे कई राजनेताओं की मनोवृत्ति को उजागर किया है, जिनका भारत के विभाजन में बड़ा योगदान रहा है। दृढ़ इच्छाशक्ति के बल पर भारत एक महाशक्ति के रूप में उभरकर सामने आ रहा है। भारत उदय का यह समय इतिहास में हुई ऐसी दुर्घटनाओं को याद करने का भी समय है जिससे हम भविष्य के लिए सबक ले सकें।

    (लेखक इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के सदस्य सचिव हैं)

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