बचपन से ही बहुत निडर और साहसी थीं कई उपलब्धियों और पुरस्कारों से सम्मानित आंध्र प्रदेश की दुर्गाबाई देशमुख
जिन दिनों बालिकाओं के लिए शिक्षा वर्जित मानी जाती थी दुर्गाबाई ने एक पड़ोसी अध्यापक से हिंदी पढ़कर ऐसी योग्यता हासिल कर ली थी कि 12 वर्ष की उम्र में काकीनाडा में बालिकाओं के लिए एक हिंदी विद्यालय की शुरुआत कर दी थी।

विमल मिश्र। 'टिकट दिखाइए।' वर्ष 1923 में जब पंडित जवाहरलाल नेहरू आंध्र प्रदेश के राजमुंदरी जिले के काकीनाडा में कांग्रेस के अधिवेशन के दौरान दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा द्वारा आयोजित हिंदी साहित्य सम्मेलन की प्रदर्शनी देखने आए हुए थे तो उनसे यह मांग की थी कांग्रेस की 14 वर्षीया वालंटियर दुर्गाबाई ने। गांधीजी के बाद कांग्रेस के दूसरे बड़े नेता थे नेहरू, पर तब न उनके पास टिकट था, न टिकट खरीदने के पैसे। दुर्गाबाई ने विनम्रतापूर्वक उन्हें बिना टिकट प्रवेश देने से मना कर दिया। नेहरू तभी भीतर जा पाए, जब उनके लिए टिकट खरीदा गया। ऐसा नहीं था कि दुर्गाबाई उन्हें पहचानती नहीं थीं, पर नियम तो नियम!
महात्मा गांधी से उनकी पहली भेंट भी कम दिलचस्प नहीं थी। गांधीजी ने हिंदी के प्रचार-प्रसार को राष्ट्रीय आंदोलन का अंग बनाया हुआ था। जिन दिनों बालिकाओं के लिए शिक्षा वर्जित मानी जाती थी दुर्गाबाई ने एक पड़ोसी अध्यापक से हिंदी पढ़कर ऐसी योग्यता हासिल कर ली थी कि 12 वर्ष की उम्र में काकीनाडा में बालिकाओं के लिए एक हिंदी विद्यालय की शुरुआत कर दी थी, जिसमें उन्होंने पांच सौ से अधिक महिलाओं को हिंदी लिखना और पढऩा सिखाने के साथ कांग्रेस की स्वयंसेविका भी बनाया। वर्ष 1921 में इसी पाठशाला का निरीक्षण करने कस्तूरबा, जमनालाल बजाज और सी. एफ. एंड्रूज के साथ गांधीजी आए थे और फ्राक पहने हुए नन्हीं मास्टरनी को देखकर अवाक रह गए थे। हिंदी के प्रति दुर्गाबाई का यह प्रेम जीवनपर्यंत बना रहा।
गांधीजी के आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु दौरों में उनके हिंदी भाषणों के तेलुगु और तमिल अनुवाद वही करती थीं। वर्ष 1946 में हिंदी के प्रचार-प्रसार में योगदान के लिए महात्मा गांधी ने अपने हाथों से उन्हें स्वर्ण पदक से सम्मानित किया। दुर्गाबाई अगर सामाजिक जीवन में नहीं होतीं तो जरूर किसी विश्वविद्यालय में प्रोफेसर या किसी नामी संस्था के प्रमुख पद पर विराजी होतीं। उन्होंने अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों का बहिष्कार किया। संविधान सभा के सदस्य के रूप में हिंदी को राष्ट्रीय भाषा बनाने का प्रस्ताव उन्हीं का था। इसी दौरे में उन्होंने गांधीजी की स्थानीय देवदासियों और मुस्लिम समुदाय की कुछ महिलाओं से भेंट कराई, विदेशी वस्त्रों की होली जलाई और अपने सभी आभूषण बापू के चरणों में समर्पित कर दिए। खादी को अपनाया और कभी आभूषण या सौंदर्य प्रसाधन नहीं पहने।
15 जुलाई, 1909 को आंध्र प्रदेश के राजमुंदरी जिले के काकीनाडा में रामाराव व कृष्णवेनम्मा के घर जन्मीं दुर्गाबाई ने जिंदगी झंझावातों में बिताई। पिता, जो उनके जीवन के पहले आदर्श थे, कम उम्र में ही उनकी छाया सिर से छिन गई। अपनी आत्मकथा चिंतामण और मैं में उन्होंने पिता के साथ काकीनाडा में प्लेग और हैजे के दौरान बीमार लोगों की सेवा और परिचर्या के दिनों का मार्मिक चित्र खींचा है। महज आठ वर्ष की उम्र में उनका विवाह जमींदार सुब्बाराव से हो गया, जो रिश्ते में चचेरे भाई थे, लेकिन गृहस्थ जीवन शुरू करने से पहले ही उन्होंने खुद को बाल विवाह के इस बंधन से आजाद कर लिया। तब उनकी उम्र थी केवल 15 वर्ष। दांपत्य का सुख उन्हें मिला, पर 44 की उम्र में, जब उन्होंने स्वतंत्र भारत के पहले वित्त मंत्री चिंतामण देशमुख से सिविल मैरिज की, जिसमें गवाह के रूप में उपस्थित थे प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू। स्वभाव और परिवेश में जमीन-आसमान का फर्क होने के बावजूद दोनों में खूब निभी।
उच्च शिक्षा की आकांक्षा उन्हें बनारस ले आई। त्वरित पाठ्यक्रम पूरा करके वह काशी हिंदू विश्वविद्यालय (वर्तमान बीएचयू) आईं और राजनीति विज्ञान में दाखिला चाहती थीं, पर विश्वविद्यालय के संस्थापक महामना मदनमोहन मालवीय इस विषय को केवल पुरुषों के लिए उपयुक्त समझते थे। लिहाजा उन्हें आंध्र विश्वविद्यालय जाना पड़ा।
आंध्र विश्वविद्यालय से बीसवीं सदी के तीसरे दशक में उन्होंने इस विषय में पोस्ट ग्रेजुएशन ही नहीं किया, बल्कि प्रथम श्रेणी के साथ पांच पदक प्राप्त करके लंदन स्कूल आफ इकोनामिक्स में पढ़ाई के लिए टाटा स्कालरशिप भी हासिल की। हालांकि द्वितीय विश्वयुद्ध होने कारण जब उनका लंदन जाना नहीं हो पाया तो वर्ष 1942 में मद्रास (अब चेन्नई) के ला कालेज से उन्होंने वकालत की डिग्री प्राप्त की और मद्रास उच्च न्यायालय में प्रैक्टिस करने लगीं। एक कत्ल के मुकदमे में बहस करने वाली वह देश की पहली महिला वकील थीं। आंध्र विश्वविद्यालय में दाखिले के दिनों की बात है। वाइस चांसलर डा. सी. आर. रेड्डी ने उन्हें प्रवेश न देने के लिए जब बहाना बताया कि हमारे यहां तो गल्र्स हास्टल ही नहीं है, तुम रहोगी कहां? तो दुर्गाबाई ने 10 सहपाठिनियों के सहयोग से खुद ही एक छोटे गल्र्स हास्टल का निर्माण कर डाला।
आंध्र प्रदेश से स्वाधीनता समर में सर्वप्रथम कूदने वाली महिला थीं दुर्गाबाई। बापू के सत्याग्रह, नमक आंदोलन और सविनय अवज्ञा आंदोलन के दंड स्वरूप ब्रिटिश राज ने वर्ष 1930 से 1933 के बीच उन्हें तीन बार जेल में डाला। खूनी कैदियों के बीच जब वह वेल्लोर की जेल में थीं तो उन्होंने कुछ निरपराध महिला बंदिनियों की दुर्दशा देखी। यही वक्त था, जब उन्होंने कानून की पढ़ाई करने की ठानी ताकि इन महिलाओं को मुफ्त में कानूनी मदद दे पाएं। वर्ष 1942 में, जब भारत छोड़ो आंदोलन पूरे जोर पर था, मद्रास वकील संघ में नियुक्ति के बाद उन्होंने पहला मुकदमा जो हाथ में लिया वह था उत्तराधिकार से वंचित महिला को उसकी संपत्ति वापस दिलाने का।
भारत की जोन आफ आर्क कही जाने वाली दुर्गाबाई की सामाजिक गतिविधियों की शुरुआत दुष्ट पतियों के सामाजिक बहिष्कार और देवदासी प्रथा के विरोध से शुरू हुई थी।
वर्ष 1946 में वह मद्रास प्रांत से संविधान परिषद की सदस्य चुनी गईं। संविधान सभा में अध्यक्षों के पैनल में अकेली महिला। इस रूप में उन्होंने लगभग 750 संशोधन प्रस्ताव रखे। वह कई समाजसेवी और महिलाओं के उत्थान से संबंधित संस्थाओं की सदस्य रहीं। उन्होंने योजना आयोग के सदस्य के रूप में भारत में समाजसेवा का विश्वकोश निकाला। वर्ष 1953 में सेंट्रल सोशल वेलफेयर बोर्ड की पहली अध्यक्ष के रूप में उन्होंने कई महत्वपूर्ण कदम उठाकर भारत में महिला सशक्तीकरण की नींव रखी। बोर्ड को देश के तीस हजार से अधिक छोटे एनजीओ से जोड़कर, सरकार द्वारा आर्थिक मदद दिलाकर शिक्षा, प्रशिक्षण और जरूरतमंद महिलाओं व बच्चों के पुनर्वास के उद्देश्य से स्वयं सहायता समूह बनाने का श्रेय उन्हीं को जाता है।
दुर्गाबाई ने आंध्र महिला सभा, आंध्र एजुकेशन सोसाइटी, विश्वविद्यालय महिला संघ, नारी निकेतन, सामाजिक विकास परिषद जैसी संस्थाओं के माध्यम से महिलाओं के उत्थान के लिए अथक प्रयत्न किए। उन्होंने अनेक विद्यालय, कालेज, चिकित्सालय, नर्सिंग विद्यालय तथा तकनीकी विद्यालय स्थापित किए। उन्होंने ब्लाइंड रिलीफ एसोसिएशन की अध्यक्ष के रूप में नेत्रहीनों के लिए विद्यालय, छात्रावास तथा तकनीकी प्रशिक्षण केंद्र खोले। वर्ष 1958 में भारत सरकार द्वारा स्थापित राष्ट्रीय महिला शिक्षा परिषद की भी वह पहली अध्यक्ष बनीं, जिसमें उन्होंने लड़कियों के लिए मुफ्त शिक्षा और आरक्षण संबंधी सिफारिशें कीं। वंचितों और महिलाओं के बजटीय प्राविधान के लिए वह मंत्रियों को निरंतर सचेत करती थीं।
दुर्गाबाई देशमुख को पद्म विभूषण, नेहरू साक्षरता पुरस्कार, पाल जी हाफमैन पुरस्कार, यूनेस्को पुरस्कार, जीवन गौरव सहित बहुत से राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिले। दिल्ली का दुर्गाबाई देशमुख मेट्रो स्टेशन उन्हीं के नाम पर है। जुझारूपन से लेडी आफ आयरन, वक्तृत्व कला से जोन आफ आर्क और कृतित्व से सामाजिक कार्य की जननी कहलाने वाली दुर्गाबाई की पुस्तक द स्टोन दैट स्पीकेथ उनके जीवन संघर्ष का बयान है। मदुरै जेल में काल कोठरी की सजा के दौरान उनकी मस्तिष्क की नसों पर आघात लगा था और मधुमेह के कारण आखिरी दिनों में नेत्रच्योति भी चली गई थी। नौ मई, 1981 को आंध्र प्रदेश के श्रीकाकुलम जिले के नरसनपेटा में उन्होंने अपना नश्वर शरीर त्याग दिया।
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