भारत का मुकुट बचाने को प्राण बलिदान करने वाले भारतीय जनसंघ के संस्थापक डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी
डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ऐसे विलक्षण नेता थे जिनका जन्म बंगाल में हुआ परंतु बलिदान राष्ट्रीय एकता के लिए कश्मीर में हुआ। वे राष्ट्रीय एकता के लिए अपने शरीर का उत्सर्ग करने वाले पहले राजनीतिक बलिदानी भी कहे जा सकते हैं।

तरुण विजय। "मुझे कहा गया कि जो साहब आये हैं उनकी तबीयत ठीक करने के लिए एक इंजेक्शन लगा दूँ । वो इंजेक्शन क्या था मुझे बताया नहीं गया, इंजेक्शन सीरिंज में लगाकर दिया गया था । उसके बाद मैंने वो इंजेक्शन लगा दिया, अगले दिन मुझे सीधे ट्रांसफर करके लुधियान भेज दिया गया था, उसके बाद क्या हुआ मुझे मालूम नहीं । लेकिन जब मैंने अखबारों में पढ़ा कि उनका देहांत हो गया तो कांप गई, मुझे कई दिनों तक नींद नहीं आयी । मैंने कुछ लोगों से कहना भी चाहा पर सब लोगों ने मुझे डरा दिया कि चुप रहो "।
डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी बंगाल में जन्में, कश्मीर के भारत के साथ सम्पूर्ण विलय के लिए बलिदान हो गए । आज यदि कश्मीर में 370 नहीं है, दो झंडे नहीं हैं, दो विधान और दो प्रधान नहीं हैं तो उसका श्रेय श्यामा प्रसाद को जाता है जिन्होंने 52 वर्ष की आयु में इतिहास रचा, स्वयं नेतृत्व की नवीन परिभाषा गढ़ी, शेख अब्दुल्लाह और नेहरू की दुरभिसंधि के शिकार हुए और इतिहास में सबसे अनाम, अन्जान अचीन्हे महापुरूष के नाते विदा हुए ।
पंजाब जनसंघ-भाजपा के नेता डा. बलराम जी दास टंडन ने मुझे बताया था की डा. मुखर्जी की 'हत्या' का इतना बड़ा सदमा जनसंघ और हिंदुओं को लगा था कि 56 के चुनावों में जनसंघ का नारा था - अब्दुल्ला के यारों को , मुखर्जी के हत्यारों को वोट न देना भाइयों वोट न देना।
कौन थे श्यामा प्रसाद मुखर्जी और कश्मीर के साथ उनका क्या रिश्ता था?
वे बंगाल के प्रसिद्ध बौद्धिक घराने के के देदीप्यमान नक्षत्र थे, उनके प्रपितामह गंगा प्रसाद मुखोपाध्याय ने रामायण का प्रथम बांग्ला रूपांतरण किया था, उनके पिता सर आशुतोष मुखोपाध्याय गणित के विश्व विख्यात विद्वान थे । उनके द्वारा दान दी गईं 87 हजार पुस्तकें और वैश्विक महत्व के अत्यंत दुर्लभ चित्र आज कोलकाता संग्रहालय में आशुतोष मुखर्जी खंड में सुरक्षित है, उनके बेटे श्यामा प्रसाद ने बांग्ला भाषा माध्यम से प्राथमिक शिक्षा ली, बांग्ला में एम.ए. प्रथम श्रेणी में प्रथम दर्जे से उत्तीर्ण की , बैरिस्टरी पास की, 33 वर्ष की आयु में कोलकाता विश्वविद्यालय के उप-कुलपति बने । धधकती अग्नि के सारथ हिन्दू और समग्र भारत के हितों के लिए संघर्ष किया । वे प्रथम उप कुलपति थे जिन्होंने स्वदेशी विश्वविद्यालय में स्वदेशी भाषा में दीक्षांत व्याख्यान प्रारंभ किए और उद्घाटन भाषण हेतु कवि गुरू रवीन्द्रनाथ ठाकुर को बुलाया । जो इस शर्त पर आये कि सम्पूर्ण कार्यवाही केवल बांग्ला भाषा में होगी । इस व्याख्यान का भी विश्वविद्यालय के मुस्लिम छात्रों ने विरोध किया । कारण यह दिया कि विश्वविद्यालय के प्रतीक चिन्ह में कमला का पुष्प है जो हिन्दू प्रतीक है, उसको हटाए बिना वे रवीन्द्रनाथ के भाषण में नहीं आएंगे ।
राजदुलारी नर्स जो डाक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी के इलाज के लिए श्रीनगर में उनकी काराबंदी के समय तैनात की गई थी ।
डोगरी की सुप्रसिद्ध कवयित्री पद्मा सचदेव जी मुझे यह कथा सुनाते हुए रो पड़ी थी । उन्होंने मुझ कहा कि तरूण जी मैंने कई लोगों से बात की है लेकिन पता नहीं उस विषय में जांच ही क्यूं नहीं करवाई जाती । सामान्य से सामान्य व्यक्ति की संदिग्ध परिस्थिति में मृत्यु की भी जांच होती है । परन्तु अगर श्यामा प्रसाद मुखर्जी के अंतिम समय में जो डाक्टर उनके साथ थे, उनकी नर्स और कुछ कर्मचारियों की जांच हो जाती तो जरूर रहस्यों से पर्दा उठ जाता ।
डाक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी भारत के एक ऐसे अग्निधर्मा सपूत थे जिन्होंने वचन लिया था कि मैं कश्मीर में दो निशान, दो विधान, दो प्रधान नहीं चलने दूंगा और उन वचनों की पूर्ति के लिए स्वयं अग्रिम दस्ते के सेनापति बनकर बढ़े । उस समय पंडित नेहरू के पास कश्मीर विभाग था और कुछ को यह जानकर आश्चर्य भी होगा कि भाजपा शासन आने तक कश्मीर की कार्यवाहियों के संबंध में जो 'डेस्क' है अर्थात जहाँ से कश्मीर के बारे में विचार, विनिमय या निर्णय लिये जाते थे वे विदेश मंत्रालय के अंतर्गत था । विदेश मंत्रालय से यह डेस्क गृह मंत्रालय में बाद में स्थानांतरित किया गया ।
श्यामा प्रसाद मुखर्जी देश के एक ऐसे विलक्षण नेता थे जिनका जन्म बंगाल में हुआ, परन्तु बलिदान राष्ट्रीय एकता के लिए कश्मीर में हुआ। मौलिक प्रकार से वे राष्ट्रीय एकता के लिए अपने शरीर का उत्सर्ग त्यागने वाले पहले राजनीतिक बलिदानी भी कहे जा सकते हैं। उनका प्रारम्भिक जीवन बहुत ही गरिमामय और देश के श्रेष्ठतम एवं शिखर विद्वानों की संगति में बीता, वे कलकत्ता विश्वविद्यालय के उस समय के उपकुलपति तथा भारतीय गणित शास्त्र के विश्व विख्यात विद्वान एवं साहित्यिक आशुतोष मुखर्जी के बेटे थे। आशुतोष मुखर्जी के गणित पर लिखे निबंध आज भी विश्व विद्यालयों में पढाए जाते हैं। उनके पास ज्ञान-विज्ञान, संस्कृति, कला एवं साहित्य का ऐसा अनमोल खजाना था, कि जब उनका देहांत हुआ तो उन्होंने अपनी समस्त साहित्यिक सम्पदा दान में देने की इच्छा व्यक्ति की। वे 87,000 पुस्तकें, चित्र आज कोलकाता संग्रहालय में आशुतोष मुखर्जी खंड में संग्रहीत एवं प्रदर्शित किए गए हैं। जहां देश-विदेश के अनेक विद्वान शोध के लिए आते हैं।
आशुतोष मुखर्जी ने अपने बेटे श्यामा प्रसाद मुखर्जी को बचपन से ही राष्ट्रीयता और तीव्र देशभक्ति की शिक्षा दी थी और उन्होंने बंग्ला माध्यम में पढ़वाया तथा यह याद दिलाना जरूरी है कि उन्होंने बचपन से ही प्रत्येक परीक्षा प्रथम श्रेणी में स्वर्ण पदक प्राप्त करके उर्त्तीण की थी और जब एम. ए. में विषय चुनने का प्रश्न आया तो श्यामा प्रसाद ने अंग्रेजी साहित्य चुना तो आशुतोष मुखर्जी जी ने उनके सामने यह रखा था कि हम इतना बंग्ला भाषा के विषय में बात करते हैं अगर तुम भी अपना स्नात्कोत्तर उपाधि अंग्रेजी में लोगे तो क्या यह उचित होगा? तुरंत श्यामा प्रसाद मुखर्जी समझ गए और उन्होंने बांग्ला साहित्य में एम.ए. प्रथम श्रेणी में स्वर्ण पदक प्राप्त कर कलकत्ता विश्वविद्यालय के गौरव बने। बैरिस्टिरी करने के बाद भी जब वे आए तो उन्होंने वकालत तो नहीं की लेकिन इतना जरूर था कि राष्ट्रीय मुद्दों में अपनी बात उठाते रहे और इस सावरकर के विचार से प्रभावित हुए। प्रारम्भ में उन्होंने सार्वजनिक जीवन में कॉर्पोरेट के टिक पर एम.एल.ए. का चुनाव कांग्रेस के समर्थन से स्वतंत्र उम्मीदवार के नाते एम.एल.ए. का चुनाव जीता था और फजलल हक चौधरी मंत्रिमंडल में वे वित्त पाते, परन्तु वही हुई हिन्दुओं के साथ जब भेदभाव दिखा और देखा कि बंगाल से आने वाले हिन्दुओं के प्रति बहुत भेदभाव का व्यवहार हो रहा है तो मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया और हिन्दु महासभा का नेतृत्व उन्होंने संभाला इस सावरकर ने बहुत प्रभावित किया और उन्होंने पश्चिमी बंगाल का अध्यक्ष बनाया। हर ऐसे विषय में, जिसमें पूरी नगर की राष्ट्रीयता पर चूक हुई है हिन्दुओं के साथ अन्याय हो रहा है उन्होंने एक बहुत कठोर रूख अपनाया और अनेक मुद्दों पर काफी तीव्र संघर्ष का भी सामना करना पड़ा। महामना मदन मोहन मालवीय तथा डाक्टर भीमराव अंबेडकर के साथ उनकी बहुत अनन्य मित्रता रही। न केवल उन्होंने डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्ण को अपने कलकत्ता विश्वविद्यालय के उप कुलपति पद पर रहते हुए बंगलौर से कोलकाता लाकर आगे बढ़ाया और डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्ण को यदि राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय ख्याति मिली तो यह डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी द्वारा कोलकाता विश्वविद्यालय आमंत्रित किए जाने के कारण मिली थी। इसके प्रति डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्ण अंत तक उनके प्रति कृतज्ञ रहे। यहां तक कि जब डाक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मृत्यु के पश्चात जब उनके दीक्षांत भाषणों का एक संकलन छपा। चाहे अन्न के उत्पादन का प्रश्न हो औद्योगिकीकरण का प्रश्न हो अथवा भगवान बुद्ध के अवशेष बर्मा से लाकर कंबोडिया ले लाने का प्रश्न हो वे ऐसे एकमात्र भारत के महापुरूष हुए हैं जो वैदिक सनातनी आस्था को मानते हुए भी महाबोधि सोसायटी के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद पर दो बार निर्वाचित हुए। भगवान बुद्ध के अवशेष वर्मा के तत्कालीन प्रधान मंत्री उंथा से लेकर कंबोडिया गए। कंबोड़िया में उनके स्वागत के लिए हवाई अड्डे पर तत्कालीन राष्ट्रपति नरोत्तम सिंहल आए थे और उनका सम्मान किया था। ऐसा अद्भुत उनका कृतित्व रहा। जब उन्होंने देखा की भारत में हिन्दुओं पर भीषण अत्याचार हो रहे हैं और लियाकत अली एवं नेहरू ने देश हित एवं हिन्दुत्व की बलि दे दी है, तो उन्होंने नेहरू मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया। उस समय राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघचालक गोवलकर पूज्य श्री गुरुजी श्री माधव राव गोलवलकर ने इस विषय पर चर्चा की थी कि भारत में राष्ट्रीयता और हिन्दुत्व की बात करने वाला कोई नहीं है। पंडित नेहरू के साथ वांमपंथी हैं। पंडित नेहरू का झुकाव अंग्रेजों की तरफ अधिक था स्वयं को उन्होंने भारत का "लास्ट ब्रिटिश प्राइम मिनिस्टर अर्थात अन्तिम ब्रिटिश प्रधान मंत्री" तक अमरीकी राजदूत गालब्रेथ से एक वार्ता में कहा था। उस समय एक सर्वसमावेशी राजनीतिक दल गठित करने की आवश्यकता महसूस की गई और भारतीय जनसंघ की परिकल्पना कर उसके अध्यक्ष पद पर श्यामा प्रसाद मुखर्जी को नामित किया गया। उन्होंने प्रथम दिवस से ही राष्ट्रीय एकता और कश्मीर के शेष भारत में संपूर्ण विलय की बात उठायी। प्रजा परिषद का तीव्र आन्दोलन कश्मीर में चल रहा था। हजारों जेल में डाले हुए थे। 13 लोग तिंरगा आन्दोलन में मारे जा चुके थे। कश्मीर में प्रवेश करने के लिए भारतीय नागरिकों को परमिट लेना पड़ता था। वहां के गवर्नर को सदरे रियासत और मुख्य मंत्री को वजीरे आजम कहा जाता था। वहां का संविधान अलग चलता था। यह देखकर श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने संपूर्ण देश में कश्मीर आन्दोलन की एक मुहिम छेड़ी और कहा कि इसका नेतृत्व मैं करूँगा।
हमारे युग को बदलने में जिन महापुरुषों ने प्राणों की बाजी लगाकर देहोत्सर्ग किया, उनमें डॉ0 हेडगेवार, सुभाष चन्द्र बोस, विनायक सावरकर और डॉ0 श्यामा प्रसाद मुखर्जी हैं, जिनके साथ सेकुलर-कांग्रेस-कम्युनिस्ट भारतीय तत्वों ने अन्याय सामने नहीं आने दिया।
श्यामा प्रसाद ने बंगाल बचाया अन्यथा आज पश्चिमी बंगाल प्रान्त न बना होता और सारा बंगाल पाकिस्तान चला जाता। उन्होंने विंस्टन चर्चिल के कारण हुए बंगाल-अकाल में पूरी शक्ति से हिन्दू मुस्लिम अकाल पीड़ितों की रक्षा की। इस अंग्रेजी-निर्मित अकाल में तीस लाख भारतीय मारे गए थे। बंगभंग आन्दोलन, नो आखली रक्तपात, कलकत्ता-एक्शन, 1947 विभाजन-हर मौके पर हिन्दुओं की असंदिग्ध-बिना क्षमाभाव के रक्षा हेतु श्यामा प्रसाद ने भारत वाणी के विरोध में नेहरू मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया ।
भारतीय जनसंघ के टिकट पर वे दक्षिण कोलकाता के लोकसभा के चुनाव में जीते । तब प्रथम निर्वाचित लोकसभा में जनसंघ के तीन सांसद चुने गए थे । लेकिन श्यामाप्रसाद की योग्यता और पंडित नेहरू को 26 घंटे में खड़ा करने के साहस से प्रभावित समूचे विपक्ष ने नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट (पार्टी) का औपचारिक गठन कर उसका नेतृत्व श्यामाप्रसाद को दिया । उन्हें संसद का शेर कहा जाता था । भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष के नाते उन्होंने जम्मू-कश्मीर के शेष भारत में विलय हेतु आंदोलन छेड़ा । 26 जून 1952 को लोकसभा में कश्मीर पर बोलते हुए उन्होंने पं0 नेहरू को कठोरतापूर्वक लताड़ा और कहा, 'हम पर पत्थर फेंकने से कोई लाभ नहीं, परस्पर आरोप लगाने, हमें साम्प्रदायिक, प्रतिक्रियावादी कहने का कोई उपयोग नहीं '- हम चाहते हैं, कश्मीर सम्पूर्णत: भारत में रहे ताकि गत पांच वर्षों से देश की जनता ने कश्मीर की रक्षा हेतु जो महान बलिदान दिए हैं उनका परिणाम पूर्ण राष्ट्र के लिए फलदायी है । जैसे कश्मीर के झंडे का प्रश्न है । दो दिन पहले शेख अब्दुल्ला ने कहा, 'हम दोनों (भारत व कश्मीर) के झंडों को समान सम्मान देंगे ।' इसका कोई अर्थ नहीं । यहाँ आधे-आधे बंटवारे का सवाल नहीं उठता । पूरे देश के लिए एक ही ध्वज है, उस देश में कश्मीर शामिल है । कश्मीर के महाराजा की आज लाख आलोचना करें, पर सत्य यह है कि यदि उन्होंने विलय के पत्र पर हस्ताक्षर न किए होते तो भारत की सेना कश्मीर में नहीं भेजी जा सकती थे और उस हालत में वहाँ हिन्दुस्तान का नहीं, पाकिस्तान का झंडा लहराया जाता । अंग्रेज 500 रियासतों का प्रश्न खुला छोड़ने की राक्षसी कार्यवाही करके गए - सरदार वल्लभ भाई पटेल ने 497 रियासतें स्वाधीन भारत में शामिल कीं । हैदराबाद, जूनागढ़ व कश्मीर की समस्या क्यों और किसने बढ़ाई ? आज शेख अब्दुल्ला धारा 370 की बात करते हैं - वे भूल जाते हैं कि इसे प्रसतुत करते हुए श्री गोपाल स्वामी अय्ंयगर ने कहा था कि उन्हें आशा है (आशा शब्द पर ध्यान दें) कि कुछ समय में शेष सभी राज्यों की भांति जम्मू कश्मीर के शेष देश से पूर्व विलय का समय आ जाएगा । कश्मीर एक गणतंत्र के भीतर दूसरा गणतंत्र नहीं हो सकता । इसकी कोई संभावना नहीं । शेख अब्दुल्ला किसके बूते पर 'बादशाह' बन गया है ? भारत की सेना न होती तो शेख का क्या होता ? अभिशप्त महाराजा के समय जम्मू-कश्मीर में उर्दू और हिन्दी दोनों पढ़ाई जाती थीं - शेख के राज में हिन्दी विलुप्त कर दी गई है । ....कश्मीर में प्रवेश के लिए परमिट व्यवस्था है । क्यों है ? यह हम स्वीकार कैसे कर सकते हैं ? आज शेख अब्दुल्ला और कम्युनिस्ट दोनों एक मंच पर हैं । मैं समझ सकता हूँ । कम्युनिस्ट हमेशा भारत तोड़ने के पक्षधर रहे हैं.... "
डा. श्यामा प्रसाद का यह संसदीय व्याख्यान उनके दृढ़ निश्चय और स्पष्ट निर्भीक सोच का प्रभाव है । वे इसी राष्ट्रीय एकता के भाव से 8 मई, 1953 को दिल्ली रेलवे स्टेशन से सुबह 6.30 बजे रेल से जम्मू रवाना हुए । उनके साथ अटल बिहारी बाजपेयी, वैद्य गुरूदत्त, टेकचंद, बलराज मधोक भी थे । कायदे से उन्हें लखनपुर मार्ग से जम्मू-कश्मीर प्रवेश से पूर्व गिरफ्तार कर दिल्ली लाया जाना था, क्योंकि वे बिना परमिट जा रहे थे । उन्होंने पठानकोट से अपने सहयोगियों को दिल्ली भेजा ताकि पार्टी का काम देखें और स्वयं आगे बढ़ गए। लेकिन ऐसा लगता है उच्च स्तर पर उन्हें मारने की कहीं तैयारी हो चुकी थी। उन्हें लखनपुर सीमा पर गिरफ्तार कर दिल्ली भेजने के बजाय, शेख अब्दुल्ला की पुलिस खुली जीप में उन्हें ले जाने के लिए खड़ी थी। यह जानते हुए भी कि डॉ0 मुखर्जी हृदय रोग से पीड़ित हैं, खुली जीप में रात भर 12 घंटे के सफर की यातना दी गई और उन्हें श्रीनगर में एक भग्न प्राय: मकान (निशात बाग) में रखा गया। 44 दिन की यातना मय, रहस्य मय काराबंदी के बाद उनको 23 जून को मृत घोषित कर दिया गया ।
श्यामप्रसाद का बलिदान व्यर्थ नहीं गया। उनके दो अनुयायी नरेन्द्र मोदी और अमित शाह ने अब्दुल्ला शही की क्रूरताओं पर राष्ट्रीयता का प्रहार करते हुए 35A तथा 370 का सफाया कर मुखर्जी को राष्ट्र की सार्थक श्रदांजलि अर्पित की। आज न वहां दो झंडे हैं, न दो विधान, न दो प्रधान।
विश्व में एक सशक्त विचार सम्पन्न नेता और उसके संगठन की विजय गाथा का ऐसा कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता। पांच दशक में ही लोकतांत्रिक पद्धति से अनूठी एकता यात्रा है यह ।
(लेखक प्रख्यात पत्रकार एवं राज्यसभा के पूर्व सदस्य हैं)
कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।