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    'महिला किसी भी धर्म की हो, सब पर लागू होता है कानून', घरेलू हिंसा अधिनियम पर SC का ऐतिहासिक फैसला

    By Agency Edited By: Manish Negi
    Updated: Thu, 26 Sep 2024 08:49 PM (IST)

    सुप्रीम कोर्ट ने घरेलू हिंसा को लेकर बड़ा फैसला सुनाया है। अदालत ने कहा कि घरेलू हिंसा अधिनियम 2005 हर महिला पर लागू होता है। कोर्ट ने कहा कि महिला चाहे किसी भी धर्म की हो। शीर्ष अदालत ने भरण-पोषण और मुआवजा देने से संबंधित मामले में कर्नाटक हाईकोर्ट के एक आदेश को चुनौती देने वाली एक महिला द्वारा दायर अपील पर फैसला सुनाया।

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    घरेलू हिंसा अधिनियम पर सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला

    पीटीआई, नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने घरेलू हिंसा अधिनियम पर ऐतिहासिक फैसला सुनाया है। अदालत ने कहा कि घरेलू हिंसा अधिनियम 2005 हर महिला पर लागू होता है। चाहे उस महिला की धार्मिक संबद्धता और सामाजिक पृष्ठभूमि कुछ भी हो।

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    कर्नाटक HC के आदेश को दी थी चुनौती

    जस्टिस बीवी नागरत्ना और एन. कोटिस्वर की खंडपीठ ने कहा कि 2005 में बना कानून हर महिला के अधिकार की रक्षा करता है। शीर्ष अदालत ने भरण-पोषण और मुआवजा देने से संबंधित मामले में कर्नाटक हाईकोर्ट के एक आदेश को चुनौती देने वाली एक महिला द्वारा दायर अपील पर फैसला सुनाया। महिला ने अधिनियम की धारा 12 के तहत एक याचिका दायर की थी।

    पति को दिया था मुआवजा देने का आदेश

    इससे पहले एक मजिस्ट्रेट ने फरवरी 2015 में महिला को 12 हजार रुपये मासिक और एक लाख रुपये मुआवजा देने के उसके पति को निर्देश दिए थे। महिला के पति ने 2015 के आदेश के खिलाफ अपील दायर की थी। पति ने अधिनियम की धारा 25 के तहत मजिस्ट्रेट से आदेश में परिवर्तन करने की अपील की थी, जिसे खारिज कर दिया गया। इसके बाद पति ने अपीलीय अदालत के सामने अपनी मांग रखी। इसे अपीलीय अदालत ने स्वीकार करते हुए दोनों पक्षों को अपने साक्ष्य लाकर मजिस्ट्रेट के सामने पेश होने को कहा।

    इसके बाद महिला ने हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। हाईकोर्ट ने उसकी याचिका खारिज कर दी और मजिस्ट्रेट को पति की ओर से दायर आवेदन पर विचार करने का निर्देश दिया। शीर्ष अदालत ने कहा कि यह स्पष्ट है कि पीड़ित व्यक्ति अधिनियम के प्रावधानों के तहत दिए गए आदेश में परिवर्तन, संशोधन या निरस्त करने की मांग कर सकता है, लेकिन यह तभी संभव है जब उन परिस्थितियों में परिवर्तन हुआ हो। इस मामले में मजिस्ट्रेट तभी निरस्त या संशोधन आदेश दे सकते हैं, जब वह मानते हों कि परिस्थितियों में बदलाव हुआ है और आदेश में संशोधन की आवश्यकता है।