एस.के. सिंह, नई दिल्ली। बीते पांच दशक में भारत में दूध उत्पादन पांच गुना से ज्यादा बढ़ा है। वर्ष 1970 में शुरू हुए ऑपरेशन फ्लड से पहले 1968 में यहां 2.12 करोड़ टन दूध का उत्पादन हुआ था, जो अब 23.06 करोड़ टन तक पहुंच गया है। आज भारत दुनिया का सबसे बड़ा दूध उत्पादक है और एक-चौथाई दूध का उत्पादन करता है। दुधारू पशुओं की संख्या भी यहां सबसे अधिक है। पिछले तीन दशक में प्रति व्यक्ति दूध उपलब्धता ढाई गुना हुई है। शहरीकरण और लोगों की आय बढ़ने के कारण दूध से बने उत्पादों की खपत तेजी से बढ़ रही है। देश की जीडीपी में कृषि क्षेत्र का योगदान 15-16 प्रतिशत है और इसमें 6 प्रतिशत योगदान मवेशी सेक्टर करता है। भारत का डेरी मार्केट 15 वर्षों से हर साल करीब 15% बढ़ रहा है। वर्ष 2027 तक इसके 31 लाख करोड़ रुपये का हो जाने का अनुमान है।

आज विश्व दूध दिवस (1 जून) के अवसर पर हम आपको बता रहे हैं कि भारत कैसे दुनिया का सबसे बड़ा दूध उत्पादक बना, आगे की चुनौतियां और उनका समाधान क्या है। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन (FAO) ने 2001 में विश्व दूध दिवस की शुरुआत की थी। इस वर्ष विश्व दूध दिवस की थीम ‘विश्व को पोषण उपलब्ध कराने में डेरी का महत्व’ है।

ऊपर बताई उपलब्धियों के बाद भी हम दूध उत्पादकता में बहुत पीछे हैं। पिछले बजट में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने स्वीकार किया कि दुनिया का सबसे बड़ा दूध उत्पादक होने के बावजूद भारत मवेशियों की कम उत्पादकता से जूझ रहा है। आवरवर्ल्डइनडेटा के अनुसार भारत में प्रति पशु उत्पादकता 1600 किलो सालाना है। यूरोप के देशों में यह चार से पांच गुना और अमेरिका में छह गुना से भी ज्यादा है। यही कारण है कि दूध उत्पादों के विश्व बाजार में भारत की हिस्सेदारी एक प्रतिशत भी नहीं है। एफएओ के अनुसार 73% दूध उत्पादों का निर्यात यूरोप करता है। लेकिन पर्यावरण नियमों के कारण मवेशियों से उत्सर्जन कम करने के लिए वहां गायों की संख्या कम करने का प्रस्ताव है। इसलिए 2035 तक वहां दूध उत्पादन 20% घटने के आसार हैं। दूसरी तरफ, अनुमान है कि आबादी बढ़ने के कारण तीन दशक में दुनिया में डेरी प्रोटीन की मांग 70% बढ़ेगी।

सबसे बड़ा दूध उत्पादक होने के बावजूद फिलहाल भारत इस अवसर का लाभ उठाने की स्थिति में नहीं लगता है। हम जितने दूध का उत्पादन करते हैं, लगभग पूरे की खपत भी करते हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि निर्यात के लिए प्रति पशु दूध उत्पादन बढ़ाने के साथ क्वालिटी सुधारना जरूरी है। क्वालिटी के लिए विशेषज्ञ चारा से लेकर प्रोसेसिंग तक, हर चरण में सुधार को जरूरी मानते हैं।

वैसे, भारत के डेरी सेक्टर की सबसे बड़ी मजबूती यहां की विशाल जैव-विविधता और दुधारू पशुओं की सबसे बड़ी आबादी है। डेरी सेक्टर लोगों को आर्थिक के साथ पोषण सुरक्षा भी देता है। भारत में खासतौर से महिलाएं इस सेक्टर में ज्यादा काम करती हैं। इसलिए यह उनके सशक्तीकरण का भी एक माध्यम है। एक अनुमान के मुताबिक डेरी सेक्टर में महिलाएं रोजाना 294 मिनट काम करती हैं। इस सेक्टर में देश के 8 करोड़ से ज्यादा किसान लगे हैं।

डेरी विकास में कोऑपरेटिव की भूमिका

भारत में डेरी क्षेत्र के विकास को डेरी कोऑपरेटिव आंदोलन से भी जोड़कर देखा जाता है। बात आजादी से पहले की है। तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने मुंबई शहर में दूध की क्वालिटी सुधारने का फैसला किया। इसके लिए नवंबर 1945 में मुंबई म्युनिसिपल कॉरपोरेशन मिल्क सप्लाई स्कीम बनाई गई। इस स्कीम में मुंबई से लगभग 400 किलोमीटर दूर कैरा (गुजरात) से दूध लाकर बेचने का फैसला किया गया। पॉलसन नाम की कंपनी को कॉन्ट्रैक्ट दिया गया जो किसानों से बहुत कम दाम पर दूध खरीदती और कॉरपोरेशन को ज्यादा कीमत पर बेचती थी। कंपनी ने भी दूध खरीदने के लिए ठेकेदार नियुक्त कर रखे थे। इस कारोबार में सबसे ज्यादा फायदा उन ठेकेदारों को हो रहा था। किसान उन पर निर्भर थे। उनके तय दामों पर ही उन्हें दूध बेचना पड़ता था। किसानों में असंतोष बढ़ने लगा तो सरदार वल्लभभाई पटेल की सलाह पर कैरा के किसानों ने डेरी कोऑपरेटिव बनाने का अभियान चलाया। इस तरह 1946 में भारत में कोऑपरेटिव डेरी की शुरुआत हुई। कैरा जिले के आनंद में पहला किसान डेरी कोऑपरेटिव बना, जो अमूल (आनंद मिल्क यूनियन लिमिटेड) नाम से मशहूर हुआ।

भारत को दुनिया का सबसे बड़ा दूध उत्पादक बनाने में 1965 में गठित राष्ट्रीय डेरी विकास बोर्ड (एनडीडीबी) का बड़ा योगदान है। भारत में श्वेत क्रांति के जनक कहे जाने वाले डॉ. वर्गीज कुरियन इसके पहले अध्यक्ष थे। उनके नेतृत्व में ही 1970 में ऑपरेशन फ्लड शुरू हुआ।

नेशनल डेरी डेवलपमेंट बोर्ड की एक रिसर्च के अनुसार देश में दूध उत्पादन का सिर्फ 20% संगठित क्षेत्र को जाता है और 34% असंगठित क्षेत्र को। बाकी 46% की खपत स्थानीय स्तर पर होती है। संगठित क्षेत्र में कोऑपरेटिव के साथ निजी कंपनियां भी हैं। इसमें कोऑपरेटिव के हिस्सेदारी 80% है। हालांकि पश्चिमी और उत्तरी राज्यों में ही कोऑपरेटिव का ढांचा मजबूत हो सका है, दक्षिण और पूर्व के राज्यों में यह अपेक्षाकृत कमजोर है।

इस समय देश में 27 राज्यस्तरीय मार्केटिंग फेडरेशन, 228 डेरी कोऑपरेटिव मिल्क यूनियन और इन यूनियनों के तहत 2.28 लाख से ज्यादा गांव स्तरीय डेरी कोऑपरेटिव सोसाइटी हैं। इन डेरी कोऑपरेटिव से 1.8 करोड़ किसान जुड़े हुए हैं। कोऑपरेटिव के जरिए रोजाना 5.8 करोड़ किलो दूध खरीदा जाता है। इसका लगभग 65% दूध के रूप में ही बिकता है और बाकी वैल्यू एडेड प्रोडक्ट के रूप में।

नस्ल सुधार, संतुलित आहार और पशुओं की सेहत

भारत में ज्यादातर डेरी किसान छोटे हैं और उनके पशुओं की उत्पादकता भी बहुत कम है। एनडीडीबी के मौजूदा चेयरमैन डॉ. मीनेश शाह जागरण प्राइम से कहते हैं, “उत्पादकता बढ़ाने के लिए हम मुख्य रूप से तीन काम कर रहे हैं। ब्रीडिंग के जरिए नस्ल सुधार करना, संतुलित आहार के जरिए दूध का उत्पादन बढ़ाने में किसान की मदद करना और पशुओं की सेहत ठीक रखकर उत्पादकता बढ़ाना।” (पढ़ें - डॉ. मीनेश शाह का इंटरव्यू)

डेरी रिसर्च में देश की शीर्ष संस्था आईसीएआर-राष्ट्रीय डेरी अनुसंधान संस्थान (NDRI) करनाल के कुलपति और निदेशक डॉ. धीर सिंह ने कहा, “दुनिया का सबसे बड़ा दूध उत्पादक देश बनने के बावजूद भारत दुधारू पशुओं की कम उत्पादकता से जूझ रहा है। इसके लिए हमें अपने डेरी पशुओं के पोषण में सुधार करना होगा और स्वदेशी पशुओं पर भी अधिक ध्यान केंद्रित करना होगा, क्योंकि वे जलवायु परिवर्तन के प्रति अधिक सहिष्णु हैं।” उन्होंने कहा कि एनडीआरआई 100 वर्षों से अधिक समय से दूध की उत्पादकता और गुणवत्ता बढ़ाने के लिए काम कर रहा है। यह डेरी किसानों और डेरी उद्योग को नई सिद्ध प्रौद्योगिकियों के साथ प्रशिक्षित भी कर रहा है।

हर स्तर पर वैज्ञानिक प्रक्रिया अपनाना जरूरी

उत्पादकता को कैसे सुधारा जा सकता है, इस सवाल पर गुजरात की कामधेनु यूनिवर्सिटी के कुलपति डॉ. एन.एच. केलावाला कहते हैं, “फीडिंग, ब्रीडिंग और मैनेजमेंट हर स्तर पर पूरी वैज्ञानिक प्रक्रिया अपनानी पड़ेगी। अभी एक गाय 5 लीटर और दूसरी गाय 10 लीटर दूध देती है, तो हम दोनों को एक समान चारा देते हैं, जबकि दोनों के लिए अलग फीडिंग चाहिए।”

डेरी मार्केट रिसर्च फर्म जॉर्डब्रुकेयर इंडिया के संस्थापक-निदेशक प्रशांत त्रिपाठी दूध उत्पादन बढ़ाने और इंडस्ट्री की सस्टेनेबिलिटी के लिए कई उपाय बताते हैं। एक तो है बेहतर फार्म मैनेजमेंट। दूध उत्पादन बढ़ाने के लिए अच्छी क्वालिटी का चारा और संतुलित पोषण आवश्यक है। फीड सप्लीमेंट और खनिज मिक्सचर के प्रयोग से उत्पादन और बढ़ाया जा सकता है। अभी खराब फार्म मैनेजमेंट के कारण हम अपने मवेशियों की पूरी क्षमता का प्रयोग नहीं कर पाते हैं।

दूसरा, घरेलू नस्लों की अधिक उत्पादक नस्लों के साथ क्रॉस ब्रीडिंग करके देसी पशुओं की जेनेटिक क्वालिटी सुधारी जा सकती है। तीसरा, पशुओं की देखभाल का इंफ्रास्ट्रक्चर मजबूत करना पड़ेगा ताकि नियमित रूप से पशुओं की सेहत का चेकअप हो सके, उन्हें टीके लगाए जा सकें। इससे दूध उत्पादन को प्रभावित करने वाली बीमारियों से बचा जा सकेगा। चौथा, एक्सटेंशन सेवाओं और ट्रेनिंग प्रोग्राम के जरिए किसानों को पशुपालन, चारा और पशु प्रबंधन में शिक्षित करने की जरूरत है।

वैज्ञानिक तरीके से उत्पादन तीन गुना बढ़ाना संभव

केलावाला के अनुसार, विकसित देशों में जो गायें दूध देना बंद कर देती हैं उन्हें नहीं रखा जाता, लेकिन भारत में मान्यताओं और परंपराओं के कारण यह संभव नहीं है। यहां औसत उत्पादकता कम होने का यह भी एक कारण है। इसलिए वैज्ञानिक तरीके अपना कर प्रति पशु दूध उत्पादन बढ़ाना ही श्रेष्ठ तरीका है। उनका दावा है कि वैज्ञानिक तरीके अपनाकर भारत में दूध उत्पादन तीन गुना बढ़ाया जा सकता है।

वे कहते हैं, 1960 के दशक में गुजरात से गाय लेकर ब्राज़ील गए। उस नस्ल की गाय वहां रोजाना 40 लीटर दूध देती है। इसका मतलब उसमें वह क्षमता है। इसके लिए उन्होंने पूरी तरह वैज्ञानिक तरीके अपनाए हैं। भारत ने अभी इस दिशा में कदम रखना शुरू किया है। वे एक और बात बताते हैं। विकसित देशों में बड़े फार्म होते हैं, जहां सैकड़ों गायें होती हैं। वे उनके के लिए डॉक्टर भी रख सकते हैं। लेकिन भारत में ज्यादातर दूध किसान छोटे हैं, उनके लिए ऐसा संभव नहीं है।

केलावाला कहते हैं, “भारत में एक बड़ी समस्या डेटा रिकॉर्डिंग की है। विकसित देशों में गाय के सुबह-शाम दूध देने का रिकॉर्ड रहता है। रोज 30 लीटर दूध देने वाली गाय ने अगर 25 लीटर दूध दिया तो तत्काल पता चल जाता है। यह देखा जाता है कि उसे कोई बीमारी तो नहीं।” प्रशांत भी कहते हैं, “यह सेक्टर डेटा की अनुपलब्धता की समस्या से जूझ रहा है, इससे बेहतर निर्णय लेने में परेशानी आती है।”

सबसे बड़े निर्यातक यूरोप में उत्पादन घटने का अंदेशा

यूरोपियन यूनियन हर साल 15.5 करोड़ टन दूध उत्पादन करता है। जर्मनी, फ्रांस, पोलैंड, नीदरलैंड, इटली और आयरलैंड ईयू के 70% दूध का उत्पादन करते हैं। लेकिन हाल में यूरोपियन यूनियन में दूध उत्पादन स्थिर हो गया है या घटने लगा है, न्यूजीलैंड जैसे बड़े निर्यातक उत्पादन घटा रहे हैं।

मार्च 2023 में यूरोपियन यूनियन के देश मवेशी से होने वाला प्रदूषण कम करने के लिए फार्म संख्या घटाने पर सहमत हुए थे। मवेशियों के शरीर से निकलने वाली मीथेन गैस प्रमुख ग्रीनहाउस गैस है। इसे कम करने के लिए ईयू के सदस्य देश सख्त नियम बना रहे हैं। इसके तहत प्रति हेक्टेयर पशुओं की संख्या निर्धारित की जा रही है। डेनमार्क, फिनलैंड, आयरलैंड, नीदरलैंड्स और लक्जमबर्ग ने इस प्रस्ताव को स्वीकार किया है लेकिन कई यूरोपीय देशों में इसका विरोध भी हो रहा है। हाल में पूरे यूरोप में किसान प्रदूषण नियमों के खिलाफ सड़कों पर उतर आए थे। उसके बाद यूरोपीय संसद के लिए होने वाले चुनावों (6-9 जून) तक उन नियमों पर अमल टाल दिया गया। हालांकि कुछ देशों ने अपने स्तर पर कदम उठाए हैं।

दूध उत्पादों का 73% निर्यात यूरोप करता है। ईयू डेरी प्रोडक्ट, खास कर चीज और स्किम्ड मिल्क पाउडर का सबसे बड़ा निर्यातक है। डेरी सेक्टर में सप्लाई चेन सुधारने के लिए 2012 में ‘मिल्क पैकेज’ लाया गया और 2015 में कोटा प्रणाली भी खत्म की गई। लेकिन मौजूदा हालात को देखते हुए रेबो बैंक ने एक रिपोर्ट में कहा है कि 2035 तक यूरोप में दूध उत्पादन 20% गिर सकता है। यह गिरावट मुख्य रूप से उत्तर-पश्चिम यूरोप के डेनमार्क, जर्मनी, नीदरलैंड्स और बेल्जियम में आएगी। 2010 के बाद उत्पादन में जो वृद्धि हुई वह 2025 तक खत्म हो जाएगी।

दूसरी तरफ, दुनिया में दूध की मांग लगातार बढ़ रही है। एफएओ के अनुसार, दूध और इसके उत्पादों की प्रति व्यक्ति खपत विकसित देशों में अधिक है, लेकिन विकासशील देशों में आबादी और आमदनी बढ़ने के साथ यह अंतर कम हो रहा है। 1960 के दशक से अब तक विकासशील देशों में प्रति व्यक्ति दूध की खपत दोगुनी हो गई है। हालांकि डॉ. केलावाला के अनुसार, “यूरोप में भी प्रति पशु उत्पादकता बढ़ाने के प्रयास किए जा रहे हैं, क्योंकि दूध की जरूरत तो उन्हें भी रहेगी।”

दुनिया को भारत से उम्मीदें

विश्व दूध दिवस से पहले तुर्किये के अंकारा में 27-30 मई तक डेरी ओलंपिक्स का आयोजन हुआ। इसमें इंटरनेशनल डेरी फेडरेशन (आईडीएफ) के प्रेसिडेंट पियरक्रिस्टियानो ब्रेजले ने कहा कि इस समय वैश्विक दूध उत्पादन सालाना दो से तीन प्रतिशत बढ़ रहा है। इस समय दूध की सप्लाई और डिमांड के बीच 3.3 करोड़ टन का अंतर है। वर्ष 2030 तक इसके दोगुना हो जाने की उम्मीद है। वर्ष 2050 तक दुनिया की आबादी 2 अरब बढ़कर 9.6 अरब हो जाने का अनुमान है। अगले 30 वर्षों में दुनिया में डेरी प्रोटीन की मांग 70% बढ़ जाएगी।

उसी कार्यक्रम में नीदरलैंड्स के अंतरराष्ट्रीय डेरी सलाहकार केविन बेल्लामी (Kevin Bellamy) ने कहा, “अगले चार दशक तक भारत में डेरी उत्पादन बढ़ने की अनेक संभावनाएं हैं। यहां ग्रोथ दूसरे विकासशील देशों से तेज होगी। इस वर्ष दुनिया का एक-चौथाई यानी 25% दूध उत्पादन भारत में होगा।”

निर्यात की अड़चनें और समाधान

भारत के लिए निर्यात के अवसर तो हैं, लेकिन परिस्थितियां नहीं हैं क्योंकि हम जितने दूध का उत्पादन करते हैं उसका लगभग पूरा खपत भी करते हैं। जॉर्डब्रुकेयर के प्रशांत त्रिपाठी कहते हैं, दूध उत्पादों के वैश्विक ट्रेड में भारत का हिस्सा एक प्रतिशत भी नहीं है। इसे बहुमुखी रणनीति से सुधारा जा सकता है। सबसे पहले तो स्रोत पर ही दूध की क्वालिटी सुधारने को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। इसके लिए किसान, दूध खरीदने वाले एजेंट तथा वैल्यू चेन में शामिल सबको प्रशिक्षित करने की आवश्यकता है।

दूसरा, स्टोरेज और ट्रांसपोर्टेशन के समय दूध की क्वालिटी बरकरार रखने के लिए कोल्ड चेन इंफ्रास्ट्रक्चर मजबूत बनाना पड़ेगा। कोल्ड स्टोरेज फैसिलिटी, रेफ्रिजरेटेड ट्रांसपोर्टेशन और मॉनिटरिंग के लिए टेक्निकल इंटीग्रेशन आवश्यक है। संभावित बाजारों तथा उपभोक्ताओं की पसंद समझने के लिए मार्केट रिसर्च और प्रमोशन भी जरूरी है। मार्केटिंग कैंपेन और अंतरराष्ट्रीय व्यापार मेले में भागीदारी के जरिए भारतीय डेरी प्रोडक्ट का मजबूत ब्रांड बनाया जा सकता है।

वे कहते हैं, “मैं सरकारी मदद का बड़ा पैरोकार नहीं हूं, लेकिन डेरी एक्सपोर्ट बढ़ाने के लिए एक्सपोर्ट सब्सिडी, टैक्स में छूट और प्रक्रियागत खामियां दूर करना लाभदायक हो सकता है। चीज, योगर्ट और मिल्क पाउडर जैसे अधिक डिमांड वाले प्रोडक्ट के लिए प्रोसेसिंग और वैल्यू एडिशन पर फोकस करना भी महत्वपूर्ण है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में प्रतिस्पर्धी बने रहने के लिए भारत को उत्पादन लागत भी कम करना पड़ेगा। इसके लिए बेहतर चारा, ब्रीडिंग प्रोग्राम और ऑपरेशनल क्षमता सुधारना आवश्यक है।”

क्लीन मिल्क प्रोडक्शन का तरीका अपनाना होगा

डॉ. केलावाला कहते हैं, निर्यात के लिए क्लीन मिल्क प्रोडक्शन का तरीका अपनाना जरूरी है, क्योंकि यूरोपीय देशों में क्वालिटी के मानक काफी सख्त हैं। पशुओं को हम जो चारा खिलाते हैं उसमें कीटनाशक होता है। हमें उस स्तर से ही काम शुरू करने की जरूरत है ताकि दूध में कीटनाशकों का अंश ना आए। दूसरे देशों में गायों की उत्पादकता अधिक होने के कारण डेरी किसान दूध दुहने की मशीन का इस्तेमाल करते हैं। भारत में उत्पादकता कम है इसलिए मशीन से दूध दुहना संभव नहीं है।

प्रशांत के मुताबिक, ग्लोबल मार्केट में सफल होने के लिए भारत को ऐसे प्रोडक्ट प्रोसेसिंग को प्राथमिकता देनी पड़ेगी जिनकी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर डिमांड है। आने वाले दशक में भारत को दूध प्रोसेसिंग की एडवांस क्षमता और वैल्यू एडिशन पर फोकस करना चाहिए। इससे बेहतर रिटर्न के रूप में दूध किसानों को फायदा होगा, एफिशिएंसी और मार्केटेबिलिटी से प्रोसेसर को लाभ होगा और अच्छी क्वालिटी वाले प्रोडक्ट के रूप में उपभोक्ता लाभान्वित होंगे।

हालांकि प्रशांत यह भी कहते हैं, “मुझे लगता है कि भारत में मांग और उत्पादन दोनों काफी बढ़ने की संभावना है और आने वाले समय में सप्लाई की तुलना में मांग अधिक होगी। इसलिए भारत को निर्यात पर फोकस करने के बजाय घरेलू जरूरत पूरी करने पर ध्यान देना चाहिए।”

डेरी सेक्टर की चुनौतियां

प्रशांत चुनौतियों को भागों में बांटते हैं- किसान स्तर की और दूध संग्रह-प्रोसेसिंग स्तर की। किसान स्तर की चुनौतियों में कम उत्पादकता सबसे बड़ा मुद्दा है। यह समस्या मुख्य रूप से जेनेटिक सीमाओं के कारण है। भारत के अनेक डेरी पशु कम उत्पादन वाले देसी नस्लों के हैं। अच्छी क्वालिटी का चारा पर्याप्त रूप से उपलब्ध न होने के कारण पोषण की भी समस्या है।

दूध उत्पादन की ऊंची लागत भी एक बड़ी चुनौती है। यह तब है जब इस लागत में घर के सदस्यों का श्रम नहीं जोड़ा जाता है। चारे की कीमतों में अधिक उतार-चढ़ाव से किसानों का मुनाफा प्रभावित होता है। पशुओं की नियमित देखभाल भी किसानों की लागत बढ़ाती है क्योंकि उन्हें दवाई इत्यादि पर भी काफी खर्च करना पड़ता है। दूध दुहने और पशुओं की देखभाल के लिए मजदूर रखने का भी खर्च है। इसके अलावा किसान अपॉरच्युनिटी कॉस्ट से भी वाकिफ नहीं होते, जिससे यह पता नहीं चला पाता कि कोई दूसरा विकल्प अपनाने पर उन्हें कितना फायदा होता।

प्रशांत के अनुसार, दूध संग्रह और प्रोसेसिंग के स्तर पर इंफ्रास्ट्रक्चर की बड़ी कमी है। अनेक ग्रामीण क्षेत्रों में उचित कूलिंग और स्टोरेज की व्यवस्था वाले पर्याप्त संग्रह केंद्र नहीं हैं। इससे दूध नष्ट होता है, उसकी क्वालिटी खराब होती है। अंतरराष्ट्रीय स्तर की उच्च क्वालिटी के डेरी प्रोडक्ट उत्पादन करने वाली आधुनिक प्रोसेसिंग यूनिट की भी कमी है। दूध से चीज, योगर्ट और अन्य डेरी प्रोडक्ट बनाने के लिए वैल्यू एडिशन की जानकारी भी किसानों को कम होती है। छोटी होती जोत से भी डेरी फार्मिंग की मुश्किलें बढ़ रही हैं। युवा छोटी जोत वाली खेती करने के बजाय दूसरे सेक्टर में नौकरी करना पसंद करते हैं।

सरकार के कदम

डेरी सेक्टर के विकास के लिए सरकार ने कई कदम उठाए हैं। पशुपालन में ऑटोमेटिक रूट से 100% विदेशी निवेश की अनुमति है। खाद्य क्षेत्र में 40% एफडीआई डेरी सेक्टर में ही आया है। मिल्क प्रोसेसिंग और चिलिंग प्लांट को अपग्रेड करने के लिए डेरी प्रोसेसिंग एवं इन्फ्रा डेवलपमेंट फंड बनाया गया है। इस प्रोजेक्ट के तहत लोन पर 2.5% ब्याज सब्सिडी मिलती है। आत्मनिर्भर भारत पैकेज में 15000 करोड़ रुपये का पशुपालन इन्फ्रा डेवलपमेंट फंड बनाने की घोषणा हुई। इसका उद्देश्य दूध और मीट प्रोसेसिंग क्षमता बढ़ाने के साथ निर्यात बढ़ाना भी है। इसके तहत कर्ज पर ब्याज में 3% छूट मिलती है।

राष्ट्रीय डेरी विकास कार्यक्रम 2021-22 से 2025-26 तक के लिए है। इसका बजट 1790 करोड़ रुपये है। इसका मकसद दूध और इसके उत्पादों की क्वालिटी सुधारना, संगठित क्षेत्र में खरीद, प्रोसेसिंग, वैल्यू एडिशन बढ़ाना और मार्केटिंग है। दूध उत्पादन और उत्पादकता बढ़ाने तथा डेरी क्षेत्र को किसानों के लिए ज्यादा लाभदायक बनाने के लिए राष्ट्रीय गोकुल मिशन 2026 तक के लिए बढ़ाया गया है।

मत्स्य पालन, पशुपालन और डेयरी मंत्रालय के अनुसार राष्ट्रीय गोकुल मिशन के तहत 6.21 करोड़ मवेशियों को कवर किया गया। इस मिशन से चार करोड़ से ज्यादा किसान लाभान्वित हुए। राष्ट्रीय डेरी विकास कार्यक्रम के तहत गांव स्तर पर 3864 बल्क मिल्क कूलर के साथ 84.4 लाख लीटर की चिलिंग क्षमता स्थापित की गई।

18 से 20 अरब डॉलर का निवेश चाहिए

इनवेस्ट इंडिया के अनुसार, भारत की डेरी इंडस्ट्री 2022 में 182 अरब डॉलर की थी, इसके 2028 में 380 अरब डॉलर का हो जाने की उम्मीद है। शहरीकरण बढ़ने के साथ दूध की मांग भी बढ़ रही है। वर्ष 2025 तक भारत में शहरीकरण की दर 37% हो जाने की उम्मीद है। आबादी बढ़ने का भी मांग पर असर होगा। वर्ष 1991 में देश की आबादी में 15-65 आयु वर्ग का अनुपात 55.4% था जो 2022 में 67.45% हो गया।

वर्ष 2021-26 के दौरान भारत का चीज मार्केट सालाना 18% और योगर्ट का 15.3% की दर से बढ़ने का अनुमान है। आइसक्रीम का बाजार 2022 में 2.37 अरब डॉलर का था और 2028 तक इसके हर साल 17.5% की गति से बढ़ने की उम्मीद है। तरल दूध का बाजार 2022 में 92.73 अरब डॉलर का था, इसके 2028 तक 13.5% की दर से बढ़ने के आसार हैं। डेरी सेक्टर में 12-13 करोड़ टन के इन्फ्रास्ट्रक्चर की कमी है। इसके लिए 18 से 20 अरब डॉलर का निवेश चाहिए।