टीवी न्यूज चैनल पर पैनल चर्चा में तथ्यों से संबंधित मर्यादा का ध्यान रखना और संयम बरतना सभी के लिए आवश्यक
अधिकांश टीवी न्यूज चैनलों पर आयोजित पैनल चर्चाओं में अक्सर उनके प्रस्तोता पैनल के सदस्यों को भड़काऊ बयान देने के लिए उकसाते देखे गए हैं। कई एंकर तो इसीलिए चर्चा पा सके हैं कि वे स्वयं ऊंची आवाज में विषय से संबंधित आरोप लगाते हैं।

डा. संजय वर्मा। टीवी चैनलों पर बहस को देखते-सुनते आजकल एक सवाल अक्सर मन में पैदा होता है कि किसी मुद्दे पर चर्चा या बहस के दौरान प्रस्तोता (एंकर) और पैनल विशेषज्ञों आदि का धर्म क्या हो। ये बहसें कैसी हों, जो एक सकारात्मक परिवेश बनाएं और किसी सार्थक परिणाम तक पहुंचें। बहस को पुरातन संदर्भो में देखें तो यह किसी विषय या विवाद के दो या अधिक विद्वानों के बीच चर्चा या शास्त्रर्थ की श्रेणी में आती है। प्राचीन भारत में दार्शनिक और धार्मिक मसलों पर गूढ़ विषय के वास्तविक अर्थ की चर्चा होती थी और परोपकार के उद्देश्य से सत्य-असत्य के निर्णय होते थे। ऋषि याज्ञवल्क्य-गार्गी के मध्य और आदि शंकराचार्य का मंडन मिश्र व उनकी पत्नी भारती से शास्त्रर्थ- ये उदाहरण बताते हैं कि भारत भूमि पर बहस की एक अति पुरातन परंपरा कायम रही है।
अक्सर शास्त्रर्थ की तीन परंपराओं का उल्लेख भी मिलता है, जिनमें मिथिला, काशी और दक्षिणात्य परंपरा को सर्वाधिक प्रचलित माना गया है। ऐसे दावे भी प्राचीन ग्रंथों में मिलते हैं कि एक समाज-समुदाय को नीचा दिखाने और स्वयं को दूसरे से श्रेष्ठ साबित करने के लिए ऐसे शास्त्रर्थ का आयोजन होता था। यहां प्रश्न यह है कि शास्त्रर्थ की यह चर्चा आज प्रासंगिक क्यों हो उठी है। वस्तुत: इसका एक संदर्भ हाल में देश की सर्वोच्च अदालत द्वारा की गई एक टिप्पणी से संबंधित है। सुप्रीम कोर्ट ने नुपुर शर्मा मामले की सुनवाई करते हुए सवाल उठाया कि टीवी चैनल ऐसे मुद्दों पर पैनल बहस आयोजित क्यों करते हैं, जो अदालतों में विचाराधीन हैं। अदालत की चिंता यह है कि अक्सर टीवी की ये बहसें देश-समाज में एक व्यथा पैदा करती हैं और कई बार हालात कानून-प्रशासन और सरकारों के हाथ से बाहर निकल जाते हैं।
कठघरे में है टीवी की बहस : काशी में ज्ञानवापी परिसर स्थित मस्जिद में शिवलिंग की उपस्थिति से जुड़े तथ्यों की छानबीन को लेकर टीवी चैनलों पर आयोजित बहस के दौरान ही नुपुर शर्मा के बयान और उसके बाद बनी स्थितियों के मद्देनजर ही सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश यह कहने को प्रेरित हुए कि टीवी पर इसे लेकर आयोजित हुई बहसों की एक बड़ी भूमिका देश में अराजकता पैदा करने में है। अदालत इस टिप्पणी के माध्यम से जो कहना चाहती है, उसका यह निहितार्थ भी निकाला जा सकता है कि अगर टीवी चैनल बहसों के सतर्क आयोजन की नीति का पालन करते, तो संभवत: ऐसे हालात नहीं बनते। किसी मामले में टीवी पर होने वाली बहस को कठघरे में खड़ा करने की यह कोई पहली कोशिश नहीं है। इससे पहले भी कई बार ऐसा हुआ है, जब अदालतों और मीडिया नियामकों ने टीवी पर आयोजित पैनल चर्चा या बहस के रूप में कराए जा रहे मीडिया ट्रायल की भूमिका हालात बिगाड़ने के रूप में देखी है। बीते वर्ष इस तरह के कई मामले सामने आए हैं। बाद में उनमें से कई बातें देश-दुनिया में आरोपों-प्रत्यारोपों और कुछ मामलों में समाज में हिंसा के उत्प्रेरक के रूप में भी दर्ज की जाती हैं। टीवी न्यूज चैनलों पर ऐसे कार्यक्रमों और बहसों के आयोजन पर अदालतें ही नहीं, मीडिया की नियामक संस्थाएं भी चिंता प्रकट करती रही हैं।
टीआरपी का जुगाड़ : पिछले वर्ष टीवी समाचार प्रसारकों के निजी संघ न्यूज ब्राडकास्टिंग एंड डिजिटल स्टैंडर्डस अथारिटी (एनबीडीएसए) ने कोड आफ एथिक्स और दिशा-निर्देशों का उल्लंघन करने के लिए दो टीवी चैनलों की निंदा करते हुए उन्हें फटकार लगाई थी। इनमें से एक टीवी चैनल पर ‘धर्मातरण जिहाद’ पर किए गए कार्यक्रम और कांस्टिट्यूशनल कंडक्ट ग्रुप के सदस्यों को ‘चालाक और गैंग’ कहने वाले शो को लेकर एनबीडीएसए ने चैनलों को फटकारा था और इन कार्यक्रमों को चैनलों की वेबसाइट, यूट्यूब व अन्य प्लेटफार्म्स से हटाने का निर्देश दिया था। ‘धर्मातरण जिहाद’ पर आयोजित बहस को लेकर यह शिकायत दर्ज कराई गई थी कि ‘टीवी चैनल का एंकर यह कहकर नफरत बेच रहा है कि जिस हिंदुस्तान में हम रह रहे हैं, वह हिंदुओं के लिए अब सुरक्षित नहीं है।’ शिकायत में दावा किया गया था कि ‘धर्मातरण जिहाद’ असल में मुस्लिमों द्वारा हिंदुओं के कथित जबरन धर्मातरण के लिए गढ़ी गई एक शब्दावली है। एनबीडीएसए ने शिकायत पर मिली प्रतिक्रियाओं और प्रसारण की फुटेज की समीक्षा करते हुए कहा था कि एंकर ने अपनी बहस के दौरान ऐसे बयान दिए और ऐसे आपत्तिजनक कैप्शन प्रसारित कराए जो नस्लीय और धार्मिक सद्भाव का पालन करने वाले दिशा-निर्देशों का उल्लंघन कर रहे थे। इसी तरह एक टीवी चैनल को दिल्ली दंगों को लेकर वे दो वीडियो हटाने को कहा गया था जिनमें चैनल के प्रस्तोताओं ने निष्पक्ष तरीके से डिबेट (बहस) नहीं की थी।
एजेंडा आधारित बहस : यहां प्रश्न यह है कि आखिर क्यों कुछ टीवी न्यूज चैनलों पर मुद्दा-आधारित चर्चा या बहस के कार्यक्रमों में प्रस्तोता से लेकर आमंत्रित मेहमान तक अपनी बयानबाजी में उग्रता का प्रदर्शन करते हैं। इस प्रवृत्ति का एक संकेत एजेंडा सेटिंग विधि के तहत मिलता है। टीवी चैनलों के संचालक, उनके प्रस्तोता यानी एंकर और बहस में आमंत्रित विषय विशेषज्ञों को किसी निश्चित एजेंडा के तहत एक अंतर्निहित निर्देश प्राप्त होता है कि दर्शकों के विशिष्ट वर्ग को आकर्षित करने के लिए उन्हें खास शैली में बयानबाजी करनी होगी। ऊपरी तौर पर कहा जा सकता है कि टीवी रेटिंग प्वाइंट यानी टीआरपी हासिल करने के लिए न्यूज चैनल ऐसा करते हैं।
इसमें संदेह नहीं है कि प्राय: हरेक टीवी न्यूज चैनल का एक खास दर्शक वर्ग रहता है। वह दर्शक वर्ग छिटककर दूसरे टीवी चैनल की ओर न चला जाए, साथ में उन्हीं जैसी मानसिकता वाला नया दर्शक वर्ग न्यूज चैनल से जुड़ा रहे, इसकी कोशिश सतत चलती रहती है। दूसरा कारण राजनीतिक दल या किसी संस्था-संगठन की ओर से टीवी की बहसों में शामिल होने वाले विश्लेषकों की पार्टी लाइन पर चलने की नीति और उनकी मानसिकता से जुड़ता है। अधिकृत प्रवक्ता के तौर पर टीवी बहस में शामिल होने वाले नेता अपने दल के आंतरिक अनुशासन के मुताबिक ही टीवी की बहसों में तर्क-वितर्क करते हैं। ऐसे में यदि यह कहा जाए कि टीवी की डिबेट में कोई प्रवक्ता अपने मन से कोई तर्क देता है और उसका पार्टी लाइन या नीतियों से कोई लेना-देना नहीं है, यह तर्क सही नहीं है। यद्यपि यह अवश्य कहा जा सकता है कि किसी बहस में पार्टी प्रवक्ता को शामिल ही इसलिए किया जाता है कि उकसाने पर वह वांछित बयान दे, जिसकी अपेक्षा टीआरपी बढ़ाने के उद्देश्य से की जा रही है। अर्थात ऐसे मामलों में यदि किसी व्यक्ति विशेष को ही तीक्ष्ण बयानबाजी का जिम्मेदार माना जा रहा है, तो कह सकते हैं कि मामले को अधूरे संदर्भो में देखा जा रहा है।
टीवी की बहसों में यदि उग्रता दर्शाई जा रही है, तीखी बातों का आह्वान हो रहा है और भड़काऊ बयानबाजी कराई जा रही है, तो इसमें राजनीतिक दल, संस्था, टीवी चैनल, नियामक संस्थाओं और कुछ अंशों में उस दर्शक वर्ग की भी भूमिका है जो ऐसी ही सामग्री (कंटेंट) देखने-सुनने के लिए किसी न्यूज चैनल विशेष से चिपका रहता है और दूसरों को वही चैनल देखने की ताकीद करता है।
एक लोकतांत्रिक देश और अभिव्यक्ति की आजादी के तर्क के परिवेश में इसका अनुमान लगाना अक्सर मुश्किल होता है कि किसी बहस की सीमाएं क्या होनी चाहिए। आज समस्या यह है कि टीवी पर होने वाली बहसें केवल टीवी और उन चंद लोगों के समूहों तक सीमित नहीं रहती हैं जो पक्ष या विपक्ष में सारगर्भित और ठोस विवेचना कर सकें, बल्कि इंटरनेट मीडिया के वर्तमान युग में टीवी की बहस देखने-सुनने वाले लोगों पर अपने ढंग से निष्कर्ष निकालने और संख्याबल के आधार पर अपने मत के पक्ष में हवा बनाने का मौका मिल गया है।
ऐसे में स्थिति यह बनती है कि टीवी की बहस के दर्शक जब ट्विटर, फेसबुक, इंस्टाग्राम और वाट्सएप पर अपने गुस्से का इजहार करते हैं तो वहां उनकी भाषा का संयम भी टूट जाता है। गंभीर बात यह है कि इंटरनेट मीडिया पर प्रकट होने वाला यह आक्रोश, भाषा की अभद्रता और हिंसा की प्रतिध्वनि टीवी चैनलों के स्टूडियो तक पहुंचती है और कार्यक्रम संचालकों-प्रस्तोताओं को टीआरपी बटोरने के लिए और प्रेरित करती है। ऐसे में आक्रोश को शांत करने के बजाय उसे और भड़का दिया जाता है। अगर टीवी न्यूज चैनल किसी बहस को प्रायोजित नाटक की बजाय एक मुद्दे के गंभीर विवेचन के तौर पर पेश करने का प्रयास करेंगे, तो पैनल चर्चाओं को सकारात्मक और सार्थक संवाद की दिशा में मोड़ा जा सकेगा।
साथ ही, बिना सबूत के कोई दावा करने की जिस समझ की उम्मीद की जाती है, अगर उस पर गंभीरता से ध्यान दिया जाए, तो बहस के नाम पर होने वाले हुड़दंग को काबू में किया जा सकता है। एंकर किसी मामले में कीचड़ उछालने की बजाय अच्छे कंटेंट और भाषा व भाव-भंगिमा की शालीनता बरतेंगे तो टीवी की बहस को विश्वसनीय बनाया जा सकता है। टीवी की पैनल चर्चाओं की विश्वसनीयता संदिग्ध हो जाने और दर्शकों के उनसे विमुख हो जाने की खबरों के बीच कुछ टीवी न्यूज चैनलों और उनके प्रस्तोताओं ने इधर पैनल में शामिल सदस्यों-विशेषज्ञों की निराधार बातें कहने और भदेस भाषा के इस्तेमाल पर रोकना-टोकना शुरू किया है, लेकिन टीआरपी हासिल करने के दबाव में वे कब इस नीति से पलट जाएं, इसका पता नहीं।
ऐसे में प्रसारक नियामक संस्थाएं टीवी चैनलों को आचारसंहिता और दिशा-निर्देशों का सख्ती से पालन कराने की कोशिश करेंगी, तो बेहतर होगा। यूं तो टीवी का रिमोट दर्शकों के हाथ में होता है। वे चाहें तो सांप्रदायिक वैमनस्य, हिंसा फैलाने और उकसाने वाले टीवी चैनलों व उनके प्रस्तोताओं का इलाज एक बटन दबाने भर से तुरंत कर सकते हैं। इसलिए यह जिम्मेदारी दर्शकों की भी बनती है कि वे तय करें कि कौन सा टीवी चैनल और कौन सी बहस देखी जाएगी और कौन सी नहीं।
[एसोसिएट प्रोफेसर, बेनेट यूनिवर्सिटी, ग्रेटर नोएडा]

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