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द ग्रैंड ओल्ड मैन ऑफ इंडिया के नाम से ब्रिटिश संसद में चुने गए थे दादा भाई नौरोजी

आज दादा भाई नौरोजी का जन्मदिन है। उन्होंने देश में गरीबी हटाने और सामान शिक्षा व्यवस्था लागू करने के लिए आवाज उठाई थी।

By Vinay TiwariEdited By: Published: Tue, 03 Sep 2019 07:39 PM (IST)Updated: Wed, 04 Sep 2019 01:05 PM (IST)
द ग्रैंड ओल्ड मैन ऑफ इंडिया के नाम से ब्रिटिश संसद में चुने गए थे दादा भाई नौरोजी
द ग्रैंड ओल्ड मैन ऑफ इंडिया के नाम से ब्रिटिश संसद में चुने गए थे दादा भाई नौरोजी

नई दिल्ली [जागरण स्पेशल]। दादा भाई नौरोजी द ग्रैंड ओल्ड मैन ऑफ इंडिया के नाम से मशहूर थे। वो इसी नाम से ब्रिटिश संसद में चुने जाने वाले पहले एशियाई थे। संसद सदस्य रहते हुए उन्होंने ब्रिटेन में भारत के विरोध को प्रस्तुत किया। उन्होंने भारत की लूट के संबंध में ब्रिटिश संसद में थ्योरी पेश की। इस ड्रेन थ्योरी में भारत से लूटे हुए धन को ब्रिटेन ले जाने का उल्लेख था।

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गुजरात में हुआ जन्म
ऐसे दादा भाई नौरोजी का आज जन्मदिन है। उनका जन्म 4 सितम्बर 1825 को हुआ था। मनेकबाई और नौरोजी पालनजी डोर्डी के पुत्र दादा भाई नौरोजी का जन्म एक ग़रीब पारसी परिवार में गुजरात के नवसारी में हुआ। वे शुरुआत से काफ़ी मेधावी थे। वर्ष 1850 में केवल 25 वर्ष की उम्र में प्रतिष्ठित एलफिंस्टन इंस्टीट्यूट में सहायक प्रोफेसर नियुक्त हुए। इतनी कम उम्र में इतना सम्मानजनक ओहदा संभालने वाले वह पहले भारतीय थे। वो ब्रिटिशकालीन भारत के एक पारसी बुद्धिजीवी, शिक्षाशास्त्री, कपास के व्यापारी तथा आरम्भिक राजनैतिक एवं सामाजिक नेता थे। उन्हें 'भारत का वयोवृद्ध पुरुष' (Grand Old Man of India) भी कहा जाता है। 1892 से 1895 तक वे यूनाइटेड किंगडम के हाउस आव कॉमन्स के सदस्य ( एमपी) थे। 

एलफिंस्टन इंस्टीटयूट में शिक्षा ग्रहण की 
दादाभाई नौरोजी ने भारत में विश्वविद्यालयों की स्थापना के पूर्व के दिनों में एलफिंस्टन इंस्टीटयूट में शिक्षा ग्रहण की थी, वो वहां के एक मेधावी छात्र थे। उसी संस्थान में अध्यापक के रूप में जीवन आरंभ कर आगे चलकर वहीं वे गणित के प्रोफेसर हुए, उन दिनों भारतीयों के लिए शैक्षणिक संस्थाओं में सर्वोच्च पद था। साथ में उन्होंने समाज सुधार के कार्यों में कई धार्मिक तथा साहित्य संघटनों के रूप में अपना विशेष स्थान बनाया। उसकी दो शाखाएं थीं, एक मराठी ज्ञानप्रसारक मंडली और दूसरी गुजराती ज्ञानप्रसारक मंडली। रहनुमाई सभी की भी स्थापना इन्होंने की थी। "रास्त गफ्तार' नामक अपने समय के समाज सुधारकों के प्रमुख पत्र का संपादन तथा संचालन भी इन्होंने किया।

"कैमास' बंधुओं ने अपने व्यापार में भागीदार बनाना चाहा
पारसियों के इतिहास में अपनी दानशीलता और प्रबुद्धता के लिए प्रसिद्ध "कैमास' बंधुओं ने दादाभाई को अपने व्यापार में भागीदार बनाने के लिए आमंत्रित किया। तदनुसार दादाभाई लंदन और लिवरपूल में उनका कार्यालय स्थापित करने के लिए इंग्लैंड गए।

विद्यालय के वातावरण को छोड़कर एकाएक व्यापारी धन जाना एक प्रकार की अवनति या अपवतन समझा जा सकता है, परंतु दादा भाई ने इस अवसर को इंग्लैंड में उच्च शिक्षा के लिए जाने वाले विद्यार्थियों की भलाई के लिए उपयुक्त समझा। जो विद्यार्थी उन दिनों उनके संपर्क में आए और उनसे प्रभावित हुए उनमें सुप्रसिद्ध फीरोजशाह मेहता, मोहनदास कर्मचंद गांधी और मुहम्मद अली जिना का नाम उल्लेखनीय है। इसके अतिरिक्त दादाभाई का एक और उद्देश्य ब्रिटिश जनता को ब्रिटिश शासन से उत्पीड़ित भारतीयों के दु:खों की जानकारी कराना और उन्हें दूर करने के उनके उत्तरदायित्व की ओर ध्यान आकर्षित कराना भी था।

भारत तथा इंग्लैंड में एक साथ परीक्षा चलाने का प्रस्ताव 
उन दिनों भारतीय सिविल सेवाओं में सम्मिलित होने के इच्छुक अभ्यर्थियों के लिए सबसे कठिनाई की बात यह थी कि उन्हें प्रतिकूल परिस्थितियों में ब्रिटिश अभ्यर्थियों से स्पर्धा करनी पड़ती थी। इस असुविधा को दूर करने के लिए दादा भाई का सुझाव इंग्लैंड और भारत में एक साथ सिविल सर्विस परीक्षा करने का था। इसके लिए उन्होंने 1893 तक आंदोलन चलाया जब कि उन्होंने वहां लोकसभा (हाउस आव कामन्स) में उस सदन के एक सदस्य की हैसियत से अधिक संघर्ष किया और सभा ने भारत तथा इंग्लैंड में एक साथ परीक्षा चलाने का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। 

दरिद्रता के खिलाफ उठाई आवाज 
उन दिनों दूसरी उससे भी बड़ी परिवेदना भारतीयों की भयानक दरिद्रता थी। दादाभाई ही पहले व्यक्ति नहीं थे जिन्होंने इसके लिए दुःख की अभिव्यक्ति की हो किंतु वे पहले व्यक्ति अवश्य थे जिन्होंने उसके उन्मूलन के लिए आंदोलन चलाया। उन्होंने तथ्यों और आँकड़ों से यह सिद्ध कर दिया कि जहां भारतीय दरिद्रता में आकंठ डूबे थे, वहीं भारत की प्रशासकीय सेवा दुनियां में सबसे महंगी थी। 19वीं शताब्दी के अंत तक दादाभाई ने अनेक समितियों और आयोगों के समक्ष ही नहीं वरन् ब्रिटिश पार्लियामेंट के सामने भी भारत के प्रति की गई बुराइयों को दूर करने के लिए वकालत की।

उच्चाधिकारियों देते रहे चेतावनी 
उच्चाधिकारियों को बराबर चेतावनी देते रहे कि यदि इसी प्रकार भारत की नैतिक और भौतिक रूप से अवनति होती रही तो भारतीयों को ब्रिटिश वस्तुओं का ही नहीं वरन् ब्रिटिश शासन का भी बहिष्कार करने के लिए बाध्य होना पड़ेगा। इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। अंत में उन्होंने भारतीयों की राजनीतिक दासता और दयनीय स्थिति की ओर विश्व लोकमत का ध्यान आकृष्ट करने के लिए प्रयास करने का निश्चय किया। हाउस ऑफ कामन्स की सदस्यता प्राप्त करने में उनकी अद्भुत सफलता लक्ष्यपूर्ति के लिए एक साधन मात्र थी। उनका यह लक्ष्य या ध्येय था भारत का कल्याण और उन्नति जो संसद की सदस्यता के लिए संघर्ष करते समय भी उनके मस्तिष्क पर छाया रहता था।

किसी ने कभी यह अपेक्षा नहीं की थी कि दादाभाई हाउस आव कामन्स में इतनी बड़ी हलचल पैदा कर देंगे किंतु उस सदन में उनकी गतिविधि और सक्रियता से ऐसा प्रतीत होता था मानो वे वहां की कार्यप्रणाली आदि से बहुत पहले से ही परिचित रहे हों। भारत की दरिद्रता, मुद्रा और विनिमय, अफीम या शराब के सेवन के प्रोत्साहन से उत्पन्न होने वाले कुपरिणामों के विषय में उनके भाषण बड़े आदर और ध्यान से सुने जाते थे। 

अखिल भारतीय कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन 
स्वशासन के लिए अखिल भारतीय कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन (1906) में उनके द्वारा की गई मांग की गई। उन्होंने अपने भाषण में स्वराज्य को मुख्य स्थान दिया। भाषण के दौरान में उन्होंने कहा कि हम कोई कृपा की याचना नहीं कर रहे हैं, हमें तो केवल न्याय चाहिए। आरंभ से ही अपने प्रयत्नों के दौरान मुझे इतनी असफलताएं मिली हैं जो एक व्यक्ति को निराश ही नहीं बल्कि विद्रोही भी बना देने के लिए पर्याप्त थीं, पर मैं हताश नहीं हुआ हूँ और मुझे विश्वास है कि उस थोड़े से समय के भीतर ही, जब तक मै जीवित हूँ।

एक शब्द से चल जाए काम तो दो का क्यूं करें इस्तेमाल 
वह कहा करते थे कि जब एक शब्द से काम चल जाए तो दो शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। एक लिबरल के रूप में वह 1892 में हाउस आफ कामंस के लिए चुने गये। वे एक कुशल उद्यमी थे। 1939 में पहली बार नौरोजी की जीवनी लिखने वाले आरपी मसानी ने ज़िक्र किया है कि नौरोजी के बारे में 70 हज़ार से अधिक दस्तावेज थे जिनका संग्रह ठीक ढंग से नहीं किया गया। नौरोजी गोपाल कृष्ण और महात्मा गांधी के गुरु थे। नौरोजी सबसे पहले इस बात को दुनिया के सामने लाए कि ब्रिटिश सरकार किस प्रकार भारतीय धन को अपने यहां ले जा रही है। उन्होंने ग़रीबी और ब्रिटिशों के राज के बिना भारत नामक किताब लिखी। वह 1892 से 1895 तक ब्रिटिश संसद के सदस्य रहे। एओ ह्यूम और दिनशा एडुलजी वाचा के साथ मिलकर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना का श्रेय उन्हें जाता है।

बड़ौदा के प्रधानमंत्री
लार्ड सैलसिबरी ने उन्हें ब्लैक मैन कहा था। हालांकि वह बहुत गोरे थे। उन्होंने संसद में बाइबिल से शपथ लेने से इंकार कर दिया था। अंग्रेज़ों की कारस्तानियों को बयान करने के लिए उन्होंने एक पत्र रस्त गोतार शुरू किया जिसे सच बातों को कहने वाला पत्र कहा जाता था। वर्ष 1874 में वह बड़ौदा के प्रधानमंत्री बने और तब वे तत्कालीन बंबई के लेजिस्लेटिव काउंसिल के सदस्य चुने गये। उन्होंने मुंबई में इंडियन नेशनल एसोसिएशन की स्थापना की जिसका बाद में कांग्रेस में विलय कर दिया गया। 


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