Trending

    Move to Jagran APP
    pixelcheck
    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    किलर कफ सीरप: 53 साल पहले हुई थी 15 बच्चों की मौत, फिर से शुरू हुआ सिलसिला; क्यों नहीं जागा सरकारी तंत्र?

    Updated: Thu, 09 Oct 2025 06:05 PM (IST)

    तमिलनाडु की एक कंपनी के कफ सीरप से मध्य प्रदेश में 19 बच्चों की मौत हो गई। सीरप में डायथिलीन ग्लाइकॉल नामक जहरीला पदार्थ पाया गया। लापरवाही के चलते एक डॉक्टर और कंपनी के डायरेक्टर को गिरफ्तार किया गया है। यह पहली बार नहीं है, जब इस तरह की घटना हुई है, पहले भी कई बच्चे जहरीले सीरप से मर चुके हैं। सरकारी तंत्र की लापरवाही के कारण यह त्रासदी हुई।

    Hero Image
    धनंजय प्रताप सिंह, भोपाल। तमिलनाडु के कांचीपुरम स्थित श्रीसन कंपनी के कोल्ड्रिफ कफ सीरप से अब तक छिंदवाड़ा और बैतूल जिले के 19 बच्चों की मौतें हो चुकी हैं। कुछ बच्चे नागपुर में जीवन के लिए संघर्ष कर रहे हैं। राज्य सरकार ने कार्रवाई के नाम पर दवा लिखने वाले डॉ. प्रवीण सोनी को गिरफ्तार कर लिया। बवाल मचने पर एसडीओपी जितेंद्र सिंह जाट के नेतृत्व में पुलिस अधिकारियों व ड्रग इंस्पेक्टर की एसआईटी ने श्रीसन कंपनी के डायरेक्टर रंगनाथन गोविंदन की गिरफ्तारी की है।
     
    कोल्ड्रिफ में 48.6 प्रतिशत डीईजी यानी डायथिलीन ग्लाइकॉल मिला था। इसी की विषाक्तता से बच्चों की मौत हुई। बच्चों की अकाल मौतों से पूरे देश में आक्रोश है। सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ही सियासी आंसू बहा रहे हैं, लेकिन उन परिवारों को न्याय कैसे मिलेगा, इसकी चिंता किसी को नहीं है। दरअसल, डीईजी की वजह से बच्चों की मौत का यह पहला मामला नहीं है। पिछले 50 वर्षों में कई बार सैकड़ों बच्चे इस तरह के सीरप से मौत के मुंह में समा चुके हैं। इसकी शुरुआत भी तमिलनाडु से ही हुई है।
     

    कफ सीरप से पहली मौत कब हुई?

    अनुसंधान से जुड़े एक डॉक्टर के अनुसार, स्वास्थ्य विशेषज्ञ दिनेश ठाकुर और एडवोकेट प्रशांत रेड्डी की पुस्तक ‘द ट्रुथ पिल’ में लिखा है कि भारत में डीईजी के जहरीले दुष्प्रभाव का पहला मामला तमिलनाडु में ही वर्ष 1972 में दर्ज किया गया था, जब वहां 15 बच्चों की मौतें हुई थी। इसमें यह भी लिखा है कि डीईजी के दुष्प्रभाव का निदान करना बेहद कठिन है। वर्ष 2019-20 में जम्मू कश्मीर में ही इससे 12 बच्चों की मौतें हुई थीं। इन बच्चों की उम्र भी पांच वर्ष से कम थी। अब पांच वर्ष बाद मध्य प्रदेश में वही घटना घटी है, लेकिन इसके समाधान के बजाय चारों तरफ सियासी दांव-पेच के घोड़े दौड़ाए जा रहे हैं।

    आग लगने पर कुआं खोदने जैसी कहावत को चरितार्थ करते हुए सरकारी तंत्र सक्रिय हुआ है, लेकिन इतना सबकुछ होने के बावजूद यह बताने के लिए कोई तैयार नहीं है कि क्या इन बच्चों की मौत के लिए एक डॉक्टर ही जिम्मेदार है। जब 50 वर्षों से इस दवा ने कई बच्चों को मौत की नींद सुलाया तो फिर आज वही दवा मध्य प्रदेश में कैसे बिक रही है। खाद्य एवं औषधि नियंत्रण विभाग क्या प्रदेश में सो रहा था। जब 4 सितंबर को पहली मौत हुई, उसके बाद एक माह तक छिंदवाड़ा के कलेक्टर क्या कर रहे थे। वह लगातार इससे इनकार करते रहे कि मौत की वजह सीरप हो सकती है। लापरवाही की कड़ी यहीं से शुरू हुई थी।

    राज्य सरकार ने भी चतुराई से अपने चहेते तत्कालीन कलेक्टर शीलेन्द्र सिंह को बचा लिया। 30 सितंबर को कलेक्टर का तबादला हो गया था, लेकिन वह 3 अक्टूबर तक आदिवासियों की भूमि गैर आदिवासियों के नाम करने की अनुमति देते रहे, क्योंकि उनके लिए बच्चों की जान बचाने से अधिक महत्वपूर्ण काम कोई और लगा। आशय यह है कि हमारा समूचा तंत्र ही सो गया है। उसे भ्रष्टाचार के अलावा और कोई काम नजर नहीं आता है। जिस सुशासन का दावा किया जाता है, यदि वह होता तो कार्रवाई के लिए सरकार एक महीने का इंतजार नहीं करती।

    केंद्र सरकार का काम भी केवल एडवाइजरी जारी करना ही बचा है, उसे क्रियान्वित कौन कराएगा, इसकी जिम्मेदारी कोई नहीं लेना चाहता है। जब 50 वर्ष पहले से डीईजी बच्चों की जान की दुश्मन बना हुआ है तो फिर बाजार में बिक कैसे रहा है, इसका जवाब किसी के पास नहीं है। ड्रग कंट्रोलर के पद पर पहले सीनियर आईएएस को पदस्थ किया जाता है, लेकिन हटाए गए ड्रग कंट्रोलर दिनेश मौर्य तो अब तक एक बार कलेक्टर भी नहीं बन पाए और उन्हें इस महत्वपूर्ण पद पर बैठा दिया गया। इन बच्चों की मौतों के लिए केवल और केवल सरकारी तंत्र को ही जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए। यह केवल एक हादसा नहीं, बल्कि सरकारी लापरवाही का नतीजा है।

     माता-पिता अपने बच्चों को खो चुके हैं और सरकार सफाई देने में व्यस्त है। वैसे मामला अब सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच चुका है। सुप्रीम कोर्ट को भी यह देखना चाहिए कि केंद्र सरकार ने बच्चों की मौतों के पहले दिन सीरप की गुणवत्ता को सही करार दे दिया था, ऐसा क्यों। क्या इसके पीछे कोई षड्यंत्र था। यदि तमिलनाडु सरकार की रिपोर्ट में डीईजी की मात्रा अधिक होने का तथ्य नहीं आता तो केंद्र सरकार आंख भी नहीं खोलती। सरकार की गंभीरता को इसी से समझा जा सकता है कि जब बच्चे मर रहे थे, तब छिंदवाड़ा के औषधि प्रशासन विभाग ने दवाओं के सैंपल को डाक से भेजा, जो तीन दिन बाद भोपाल पहुंचे। अगर जांच समय पर होती तो कई बच्चों की जान बच सकती थी। कुल मिलाकर देखा जाए तो बच्चों की मौत के लिए केवल सरकारी तंत्र जिम्मेदार है।
     
    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें