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    कोर्ट के दिशा-निर्देशों के बाद भी कुछ नहीं बदलता, ना सुधरते हम

    By Kamal VermaEdited By:
    Updated: Tue, 05 Jun 2018 12:21 PM (IST)

    कालांतर में भारत के शीर्ष न्यायालय ने राज्य को पर्यावरण सुरक्षा के लिए दिशा निर्देश देने वाले कई सिद्धांतों का प्रतिपादन किया है।

    कोर्ट के दिशा-निर्देशों के बाद भी कुछ नहीं बदलता, ना सुधरते हम

    नई दिल्‍ली। कालांतर में भारत के शीर्ष न्यायालय ने राज्य को पर्यावरण सुरक्षा के लिए दिशा निर्देश देने वाले कई सिद्धांतों का प्रतिपादन किया है। उदाहरण के लिए 1997 में ताज ट्रॅपेजियम मामले में न्यायालय ने ‘श्रम के पर्यावरणीय विधिशास्त्र’ नामक एक नई संकल्पना विकसित की, जिसमें उद्योग में लगे श्रमिकों के अधिकारों और लाभों और उनके संरक्षण की बात की गई थी। इसके पहले इंडियन काउंसिल फॉर एनविरो-लीगल एक्शन बनाम भारत संघ (1996) 3एससीसी 212 मामले में न्यायालय ने ‘एहतियाती सिद्धांत’ तथा ‘प्रदूषक भुगतान करेगा सिद्धांत’ का विकास किया था।

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    हमारा है दायित्‍व 

    एहतियाती सिद्धांत के तहत प्रदूषक का यह दायित्व है कि वह सिद्ध करे कि उसका उद्योग या उसके द्वारा की गई कोई गतिविधि स्वास्थ्य या पर्यावरण, किसी के लिए भी हानिकारक नहीं है। दूसरी ओर प्रदूषक भुगतान करेगा सिद्धांत के दो अनिवार्य तत्व हैं। पहला यह कि प्रदूषण करने वाला उद्योग पर्यावरण को होने वाली क्षति के लिए स्वयं निरपेक्ष रूप से उत्तरदायी होगा। और दूसरा यह कि पर्यावरण की क्षति की भरपाई पर आने वाली लागत के लिए प्रदूषक ही उत्तरदायी होगा। ध्यातव्य हो कि पर्यावरण के पुनरुत्थान की इसी संकल्पना को धारणीय पुनर्विकास भी कहते हैं। ये दोनों ही सिद्धांत हमें कर्तव्यनिष्ठ बनाते हैं।

    न्‍यायपालिका के दिशा-निर्देश 

    न्यायपालिका द्वारा दिए गए दिशा निर्देशों और राज्य द्वारा उठाए जा रहे कदमों के बावजूद पर्यावरण का ह्रास और जैव विविधता का क्षरण जारी है। इसका सबसे बड़ा कारण कदाचित मानव-प्रकृति संघर्ष है। सामान्यत: यह माना जाता रहा है कि प्रकृति की तुलना में मानव अधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि मानव विकास का संचालक है जबकि प्रकृति केवल संसाधनों की आपूर्तिकर्ता के रूप में कार्य करती है। इस दृष्टिकोण ने प्रकृति के प्रति हमारी संवेदनशीलता में अप्रत्याशित कमी लाई है।

    समग्र विकास जरूरी 

    हमें यह समझना होगा कि मानव प्रकृति का ही एक अवयव है और प्रकृति अपने स्वांगीकरण की क्षमता के कारण पारिस्थितिकी में ऊर्जा प्रवाह बनाए रखने का कार्य करती है जो समग्र विकास के लिए अनिवार्य है। इस संकल्पना को लियोपोल्ड ने भूमि नीतिशास्त्र भी कहा है। हम यह जानते हैं कि उच्चतम न्यायालय द्वारा की गई व्याख्या के अनुसार अनुच्छेद 21 के तहत ‘प्राण’ शब्द के अर्थ में स्वच्छ पर्यावरण का अधिकार भी शामिल है और इस आधार पर इसके उल्लंघन की स्थिति में हम दावा भी कर सकते हैं, लेकिन जो सबसे महत्वपूर्ण है वह स्वयं में कर्तव्यनिष्ठा लाना है। उत्तर-लोकतांत्रिक दृष्टिकोण इसी कर्तव्यबोध का प्रवर्तन करता है।

    पर्यावरण के प्रति बनें संवेदनशील 

    इस दृष्टिकोण के अनुसार अधिकारों और कर्तव्यों का समन्वय ही हमें एक-दूसरे के प्रति संवेदनशील बनाता है। यह संवेदनशीलता नागरिकों में राज्य के प्रति और व्यक्तियों के रूप में समाज और प्रकृति के प्रति होगी। अत: उत्तर-लोकतांत्रिक दृष्टिकोण में कर्तव्यों को विधिक आधार देने और उन्हें क्रियान्वित करने के योग्य बनाने पर जोर दिया गया है ताकि स्व-जवाबदेही विकसित की जा सके और प्रकृति के प्रति नैतिक मानकों को सुधारा जा सके।

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