एस.के. सिंह, नई दिल्ली। ग्लोबल वार्मिंग का हमारी जलवायु पर असर कितना गंभीर है, इसे समझने के लिए संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस के दो बयान काफी हैं। सितंबर में संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा, “मानव जाति ने नरक के द्वार खोल दिए हैं।” उससे पहले जुलाई में उन्होंने कहा था, “ग्लोबल वार्मिंग का युग खत्म हो चुका है, अब ग्लोबल बॉयलिंग (उबाल) का युग आ गया है।”

प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध इस्तेमाल के हश्र को समझने के लिए इस वर्ष की कुछ घटनाएं देखिए। अमेरिका, चीन, यूरोप, उत्तरी अफ्रीका और मध्य पूर्व में तापमान ने रिकॉर्ड तोड़ डाले। ग्रीस के जंगलों में लगी आग यूरोप के इतिहास का सबसे बड़ा दावानल साबित हुई। इटली को मध्य जुलाई में रेड हीट अलर्ट जारी करना पड़ा क्योंकि तापमान 49 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया। अगस्त में हवाई के मौवी द्वीप में लगी जंगल की आग की तबाही ने 97 लोगों की जान ले ली। कनाडा के जंगलों में भी भयानक आग लगी। दक्षिण अमेरिका और जापान के साथ दक्षिण पूर्व एशिया के वियतनाम, लाओस और थाईलैंड को रिकॉर्ड गर्मी का सामना करना पड़ा। यही हाल चीन का था, जहां जिनजियांग में तापमान 52.2 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया। कैलिफोर्निया की डेथ वैली में तापमान 56.7 डिग्री रिकॉर्ड किया गया जो धरती पर अब तक का सबसे अधिक तापमान है।

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इसी साल इटली, ग्रीस और मध्य यूरोप को भारी बारिश का भी प्रकोप झेलना पड़ा। चक्रवाती तूफान से चीन में कई जगहों पर बाढ़ आ गई। उत्तर-पूर्व चीन के हेबेई में तो बारिश ने 140 वर्षों का रिकॉर्ड तोड़ दिया। लीबिया में अब तक की सबसे जानलेवा बाढ़ ने 6000 से ज्यादा लोगों को निगल लिया। दक्षिण ब्राजील में पिछले दिनों आई भीषण बाढ़ का असर कम से कम 60 शहरों में दिखा।

अमेरिकी स्पेस एजेंसी नासा के अनुसार जून, जुलाई और अगस्त का तापमान 1951-1980 के औसत से 1.2 डिग्री सेल्सियस अधिक था। कोपरनिकस क्लाइमेट चेंज सर्विस की जून की रिपोर्ट के मुताबिक धरती की सतह पर हवा का तापमान लगातार 11 दिनों तक प्री-इंडस्ट्रियल समय की तुलना में 1.5 डिग्री सेल्सियस अधिक रहा। ऐसा पहली बार हुआ था। नेशनल स्नो एंड आइस डेटा सेंटर के अनुसार अंटार्कटिक में बर्फ 45 साल के सैटेलाइट रिकॉर्ड में सबसे कम हो गई है।

बढ़ते तापमान और लंबे समय तक बारिश के चलते दक्षिण एशिया में डेंगू के मामले बढ़ गए। साइंस पत्रिका में प्रकाशित एक शोध के मुताबिक 1992 से 2020 के दौरान ताजे पानी की 50% झीलें और जलाशय सूख गए। संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि भारी बारिश और सूखे के चलते दुनिया में हर साल दो करोड़ लोगों को विस्थापित होना पड़ता है। साल 2023 अब तक का सबसे गर्म साल रहा है। संभव है 2026 तक इससे भी अधिक गर्म साल का रिकॉर्ड बन जाए। वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के इसी माह जारी श्वेत पत्र के अनुसार अनेक देशों और समुद्र में तापमान 100 साल पहले की तुलना में दो डिग्री सेल्सियस से अधिक बढ़ चुका है। यूरोप का बड़ा हिस्सा और रूस का तापमान 2 डिग्री से अधिक बढ़ा है तो आर्कटिक के तापमान में चार डिग्री सेल्सियस से अधिक की वृद्धि हुई है।

कॉप 28 से क्या उम्मीदें

जलवायु संकट की इस पृष्ठभूमि में संयुक्त राष्ट्र का सम्मेलन ‘कॉप 28’ दुबई में 30 नवंबर से 12 दिसंबर 2023 तक आयोजित हो रहा है। पेरिस समझौते के लक्ष्यों पर पिछले वर्षों के दौरान जो सहमति बनी है, कॉप 28 उन पर अमल करने तथा प्रयासों को तेज करने के लिहाज से महत्वपूर्ण है। वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट इंडिया की एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर उल्का केलकर जागरण प्राइम से कहती हैं, “इस बार बैठक ऐसे देश में हो रही है जिसकी अर्थव्यवस्था पूरी तरह तेल एवं गैस पर निर्भर है। पहले सिर्फ कोयले का इस्तेमाल बंद करने पर बात होती थी, लेकिन अब पेट्रोल-डीजल की भी बात होने लगी है। देखना है कि इस बैठक में सभी जीवाश्म ईंधनों का इस्तेमाल चरणबद्ध तरीके से बंद करने की घोषणा होती है या नहीं। भारत पहले ही कह चुका है कि सिर्फ कोयले की बात न हो, बल्कि सभी जीवाश्म ईंधनों की बात हो।”

सम्मेलन में जिन बातों पर चर्चा होनी है उनमें जलवायु परिवर्तन से प्रभावित समुदायों के लिए लॉस एंड डैमेज फंड की रूपरेखा को अंतिम रूप देना, जलवायु परिवर्तन से लड़ने में विकासशील देशों की मदद के लिए धन उपलब्ध कराना, जीवाश्म ईंधन को छोड़ अक्षय (रिन्यूएबल) ऊर्जा अपनाने में गति लाना शामिल हैं। पिछले साल कॉप 27 में लॉस एंड डैमेज फंड के गठन के समय कई महत्वपूर्ण बातों पर निर्णय नहीं हो सका था। जैसे, इसका दायरा कितना कम या अधिक होगा, कौन से देश इस फंड से मदद के हकदार होंगे और इसके लिए पैसा कहां से आएगा। उल्का केलकर ने बताया, “2023 में जून और नवंबर में इस बात पर चर्चा हुई कि कौन से देश इस फंड में पैसा देंगे और किन देशों को प्राथमिकता के आधार पर इससे मदद दी जाएगी। कॉप 28 में इसको अंतिम रूप दिए जाने की उम्मीद है।”

केलकर के अनुसार, हमें इस बात पर गौर करना चाहिए कि संयुक्त अरब अमीरात ने सबसे बड़ा रिन्यूएबल एनर्जी हब बनने की बात कही है। इन देशों में भविष्य सौर ऊर्जा का दिख रहा है। भारत में भी पारंपरिक रूप से जीवाश्म ईंधनों के बिजनेस वाली कंपनियां अब डायवर्सिफाई कर रही हैं। जैसे, एनटीपीसी सौर ऊर्जा में निवेश कर रही है। वे कहती हैं, “कुछ देशों ने कृषि क्षेत्र में उत्सर्जन कम करने की दिशा में भी पहल की है। यह एक नए विषय के रूप में उभर सकता है।”

कॉप 28 क्यों महत्वपूर्ण है

यह सम्मेलन इसलिए अहम है क्योंकि वैज्ञानिक जलवायु परिवर्तन पर अंकुश लगाने के लिए मौजूदा दशक को निर्णायक मानते हैं। वर्ष 1850-1900 के औसत की तुलना में वर्ष 2100 में वातावरण का तापमान यानी ग्लोबल वार्मिंग 1.5 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा न हो, इसके लिए उत्सर्जन कम करने के कई लक्ष्य तय किए गए हैं। एक लक्ष्य है वर्ष 2050 तक नेट जीरो उत्सर्जन। अर्थात वातावरण में जितनी ग्रीनहाउस गैसें जाएंगी, उतनी हम हटाएंगे भी। इस लक्ष्य को पाने के लिए वर्ष 2030 तक एक निर्धारित मात्रा में उत्सर्जन घटाना पड़ेगा, और हमें अभी से प्रयास बढ़ाने पड़ेंगे क्योंकि अब तक की कोशिशें नाकाफी साबित हुई हैं।

उत्सर्जन घटाने के लिए पेरिस में 2015 में आयोजित कॉप 21 में समझौता हुआ था, जो 4 नवंबर 2016 को अमल में आया। समझौते के अनुसार, औसत वैश्विक तापमान प्री-इंडस्ट्रियल समय की तुलना में 2 डिग्री से अधिक न बढ़े तथा इसे 1.5 डिग्री तक सीमित रखने के प्रयास किए जाएं। मौसम से जुड़ी प्राकृतिक आपदाएं बढ़ने के कारण यूएन की जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी समिति (आईपीसीसी) ने कहा है कि इसे सदी के अंत तक 1.5 डिग्री तक सीमित किया जाए। दरअसल, औद्योगिक युग से पहले की तुलना में औसत तापमान 1.14 डिग्री बढ़ चुका है और उसके नतीजे हम देख रहे हैं। तापमान 1.5 डिग्री के बाद 0.1 डिग्री भी बढ़ा तो हीटवेव, सूखा तथा अत्यधिक बारिश जैसी विनाशकारी घटनाएं बहुत बढ़ जाएंगी।

कॉप 21 के बाद के सम्मेलन इस बात पर केंद्रित रहे हैं कि पेरिस समझौते को कैसे लागू किया जाए और इसका फायदा भी हुआ है। वर्ष 2010 में 2100 तक औसत तापमान 3.7 से 4.8 डिग्री बढ़ने का अंदेशा जताया गया था, पिछले साल यह अंदेशा घटकर 2.4 से 2.6 डिग्री पर आ गया। जाहिर है कि इसे 1.5 डिग्री पर लाने के लिए और अधिक प्रयास करने होंगे।

कॉप 28 ऐसे समय हो रहा है जब अंतरराष्ट्रीय सहयोग की जगह अंतरराष्ट्रीय अलगाव बढ़ रहा है। पिछले साल रूस-यूक्रेन युद्ध ने दुनिया को बांटने का काम किया तो इजरायल-हमास युद्ध ने इस खाई को और चौड़ा किया है। इसलिए इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी (आईईए) के एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर फातिह बिरोल (Fatih Birol) ने एसएंडपी ग्लोबल के साथ एक इंटरव्यू में कहा कि कॉप 28 से उम्मीदें तो बहुत हैं, लेकिन दुनिया में बढ़ते युद्ध को देखते हुए कुछ लक्ष्य हासिल करना मुश्किल होगा।

उन्होंने कहा, “सभी देश रिन्यूएबल एनर्जी की क्षमता तीन गुना करने और एनर्जी एफिशिएंसी दोगुनी करने पर सहमत हैं। तेल एवं गैस इंडस्ट्री ने भी मीथेन उत्सर्जन में बड़ी कटौती की प्रतिबद्धता जताई है। सभी देशों को जीवाश्म ईंधन का प्रयोग चरणबद्ध तरीके से कम करने का संकेत देना चाहिए, जिसकी शुरुआत कोयले से की जा सकती है।” उन्होंने माना कि जीवाश्म ईंधन को फेजआउट करने पर आम राय बनाना सबसे मुश्किल काम होगा।

कॉप (कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज, यहां पार्टी का अर्थ देश) का आयोजन हर साल अलग देश करता है। आयोजक देश एक अध्यक्ष नियुक्त करता है जिसकी सम्मेलन को दिशा देने में अहम भूमिका होती है। संयुक्त अरब अमीरात ने उद्योग मंत्री डॉ. सुल्तान अल जाबिर को अध्यक्ष नियुक्त किया है। डॉ. जाबिर अबू धाबी नेशनल ऑयल कंपनी के एमडी और ग्रुप सीईओ भी हैं। तेल उद्योग से जुड़े होने के कारण सवाल उठ रहे हैं कि डॉ. जाबिर कितनी निष्पक्षता बरत पाएंगे।

जलवायु परिवर्तन पर विभिन्न देशों के उठाए कदमों पर संयुक्त राष्ट्र की ग्लोबल स्टॉकटेक रिपोर्ट पर भी इस बैठक में चर्चा होगी। यूएन की यह पहली ग्लोबल स्टॉकटेक रिपोर्ट है और इसके आने के बाद यह पहली कॉप होगी। सितंबर में जारी रिपोर्ट के अनुसार ग्लोबल वार्मिंग 1.5 डिग्री तक सीमित रखने के लिए दुनिया पेरिस समझौते के लक्ष्यों से काफी दूर है। इस लक्ष्य को हासिल करने की समय सीमा घटती जा रही है और हमें तत्काल बड़े कदम उठाने होंगे। आने वाले समय में दुनिया जलवायु संकट का मुकाबला करेगी या इसका शिकार होगी, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि विभिन्न देशों के नीति निर्माता और बिजनेस लीडर कॉप 28 में ग्लोबल स्टॉकटेक रिपोर्ट पर क्या कदम उठाते हैं।

फंडिंग का संकट बरकरार

पेरिस समझौते के दो अन्य प्रमुख लक्ष्य थे जलवायु परिवर्तन के एडेप्टेशन के साथ लोगों को इसके प्रभावों को झेलने के काबिल बनाना और फाइनेंस का प्रवाह इस तरह निर्धारित करना कि ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन घटे। दुनिया इस लक्ष्य के आसपास भी नहीं है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) ने इसी महीने एडेप्टेशन गैप पर जारी सालाना रिपोर्ट में बताया कि विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन का असर कम करने के लिए 2030 तक हर साल 215 से 387 अरब डॉलर की जरूरत है, लेकिन विकसित देशों से उन्हें सिर्फ 21 अरब डॉलर मिल रहे हैं। वर्ष 2022 की रिपोर्ट में बताया गया था कि 2030 तक हर साल 160 से 340 अरब डॉलर चाहिए जबकि मिल रहे हैं 29 अरब डॉलर। ग्लासगो सम्मेलन (कॉप 26) में 2025 तक सालाना एडेप्टेशन फाइनेंस 40 अरब डॉलर करने के वादे के बावजूद इसमें गिरावट आई है। रिपोर्ट में इस फंडिंग का महत्व भी बताया गया है। समुद्र तटीय इलाकों में एडेप्टेशन पर एक अरब डॉलर खर्च करने से 14 अरब डॉलर के आर्थिक नुकसान से बचा जा सकता है। इसी तरह, कृषि में हर साल 16 अरब डॉलर का निवेश 7.8 करोड़ लोगों को भूखे रहने से बचाएगा।

उल्का केलकर के मुताबिक, “इस साल वर्ल्ड बैंक की कई उच्चस्तरीय बैठकें हुई हैं। चर्चा इस बात पर हो रही है कि वर्ल्ड बैंक या एशियन डेवलपमेंट बैंक जैसी अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए ज्यादा कर्ज दे सकें। कॉप 28 में इस पर भी चर्चा होने की उम्मीद है।” वे कहती हैं, “अब तो यह कहा जा रहा है कि जब देशों के पास जंग से लड़ने के लिए पैसा है तो क्लाइमेट चेंज से लड़ने के लिए क्यों नहीं। अभी अगर पैसा आए तो भारत जैसे देशों की इंडस्ट्री में नई तकनीक आ सकती है। इससे हमें उत्सर्जन कम करने में भी मदद मिलेगी।”

वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट के अनुसार जलवायु और बायोडायवर्सिटी के लक्ष्यों को 2050 तक हासिल करने के लिए हर साल 5 लाख करोड़ डॉलर निवेश की जरूरत है। दिल्ली में आयोजित जी-20 बैठक घोषणापत्र में कहा गया कि जरूरत 5.8 से 5.9 लाख करोड़ डॉलर की है। विकसित देशों की तुलना में विकासशील देशों में फंडिंग गैप दोगुना है, जबकि जरूरत कम आय वाले देशों में ज्यादा है, क्योंकि बढ़ते तापमान का नुकसान उन्हें ही अधिक हो रहा है।

केलकर के अनुसार, “पहली बार 2023 में 100 अरब डॉलर की फंडिंग का आंकड़ा पूरा होने की उम्मीद है। कॉप 28 में इस बात पर चर्चा होगी कि 2025 के बाद अगला लक्ष्य क्या हो। यह 500 अरब डॉलर होना चाहिए। 100 अरब डॉलर की फंडिंग 2020 में पूरी होनी थी, इसलिए दो वर्षों की कमी आगे पूरी होनी चाहिए। इसके अलावा, 100 अरब डॉलर में से ज्यादा हिस्सा अगर कर्ज का हो, जिसे विभिन्न देशों को लौटना पड़े, अथवा यह उत्सर्जन घटाने के लिए हो एडेप्टेशन के लिए न हो, तो समस्या बनेगी रहेगी।”

फंडिंग का असर टेक्नोलॉजी अपनाने पर

फंडिंग में कमी बिजली, ट्रांसपोर्ट, कृषि समेत हर सेक्टर में है। विशेषज्ञों का कहना है कि अनिश्चितता के कारण निवेशक क्लाइमेट टेक्नोलॉजी में बड़ा निवेश करने से झिझकते हैं। इससे बायो एनर्जी, हाइड्रोजन, सस्टेनेबल एविएशन फ्यूल, कार्बन कैप्चर यूटिलाइजेशन एंड स्टोरेज (सीसीयूएस) और बैट्री स्टोरेज जैसी टेक्नोलॉजी को पर्याप्त फंडिंग नहीं मिल पाती है। पिछले साल इस लक्ष्य के लिए पूरी दुनिया में जितना फंड उपलब्ध कराया गया उसका सिर्फ 2% टेक्नोलॉजी को मिला। फिलहाल 55% टेक्नोलॉजी ही ऐसी हैं जो मौजूदा समय में या निकट भविष्य में कम खर्चीली साबित होंगी। इसलिए चुनिंदा देशों में ही निवेश बढ़ रहा है। 

वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम ने श्वेत पत्र में बताया है कि 1.5 डिग्री लक्ष्य के लिए जितना उत्सर्जन कम करने की जरूरत है, मौजूदा टेक्नोलॉजी से उसका सिर्फ आधा हासिल किया जा सकता है। कुछ टेक्नोलॉजी अभी डेवलपमेंट के शुरुआती चरण में हैं जिन्हें नीतिगत समर्थन के साथ व्यापक निवेश की भी जरूरत है। तभी वे आर्थिक रूप से व्यवहार्य हो सकेंगे। लेकिन स्थिति यह है कि क्लाइमेट फंडिंग की आधी जरूरत भी पूरी नहीं हो पा रही है।

कार्बनक्रेडिट्स.कॉम ने ब्लूमबर्ग-एनईएफ के हवाले से लिखा है कि इस साल नीतिगत मदद मिलने से सीसीयूएस इंडस्ट्री बढ़ी है। सीसीयूएस इंफ्रास्ट्रक्चर में पिछले साल 6.4 अरब डॉलर का निवेश हुआ था, इस साल 5 अरब डॉलर के निवेश की उम्मीद है। डिकार्बनाइजेशन के प्रयास बढ़ने के साथ बिजली, सीमेंट, आयरन एवं स्टील जैसे ज्यादा कार्बन उत्सर्जन वाले सेक्टर में इसका प्रयोग बढ़ रहा है। सीमेंट इंडस्ट्री में कार्बन कैप्चर क्षमता सबसे ज्यादा 175% बढ़ी है। कई स्टार्टअप भी नई टेक्नोलॉजी विकसित कर रहे हैं जो वातावरण से कार्बन डाइऑक्साइड को कैप्चर करके सीमेंट इंडस्ट्री में उसका इस्तेमाल कर रहे हैं।

निवेश चीन और विकसित देशों में केंद्रित

ब्लूमबर्ग-एनईएफ के अनुसार 2022 में दुनिया में रिन्यूएबल एनर्जी में रिकॉर्ड 495 अरब डॉलर का निवेश हुआ। इसमें से 273 अरब डॉलर यानी 55% अकेले चीन ने किया। अमेरिका ने 50 अरब डॉलर और यूरोपियन यूनियन ने 39 अरब डॉलर लगाए। एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार क्लीन एनर्जी में 2019 से 2023 तक निवेश में जो वृद्धि हुई उसका लगभग 55% यूरोप, अमेरिका और जापान में हुआ और 35% चीन में। इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी (आईईए) के अनुसार 2050 तक नेट जीरो उत्सर्जन लक्ष्य प्राप्त करने के लिए रिन्यूएबल एनर्जी की उत्पादन क्षमता 2030 तक 3 गुना बढ़कर 11000 गीगावाट करने की जरूरत है।

भारत में प्रति व्यक्ति उत्सर्जन बहुत कम

विजुअल कैपिटल के ग्लोबल कार्बन एटलस के मुताबिक 2021 में दुनिया में जो कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन हुआ उसका 30.9% चीन ने, 13.5% अमेरिका ने और 7.3% भारत ने किया। यानी लगभग 52% उत्सर्जन तीन देशों ने किया है। हालांकि प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन में अमेरिका सबसे ऊपर है, जिसका औसत 15 टन है। चीन का प्रति व्यक्ति सालाना कार्बन उत्सर्जन 7 टन और भारत का सिर्फ 2 टन है। आईईए का आकलन है कि भारत जैसे-जैसे विकसित राष्ट्र बनने की तरफ जाएगा, यहां कार्बन उत्सर्जन भी बढ़ेगा। 2030 में विश्व उत्सर्जन में भारत का हिस्सा 10% पहुंच जाएगा।

दरअसल, आर्थिक विकास के साथ भारत में बिजली की डिमांड बढ़ रही है। अगस्त में यह 16.3%, सितंबर में 10.3% और अक्टूबर में 21% बढ़ी। बिजली मंत्री आर.के. सिंह ने इंडस्ट्री के लोगों से बात करते हुए 21 नवंबर को उनसे थर्मल पावर उत्पादन क्षमता बढ़ाने को कहा। उन्होंने कहा कि 2031-32 तक थर्मल क्षमता 80 हजार मेगावाट (80 गीगावाट) बढ़ाने की जरूरत है। अभी 27 गीगावाट थर्मल पावर क्षमता निर्माणाधीन है, आगे 55-60 गीगावाट पर काम करेंगे।

जलवायु परिवर्तन से जान-माल का नुकसान

क्लाइमेट वलनरेबल फोरम के आकलन के मुताबिक तापमान 2 डिग्री बढ़ने पर 2050 तक गर्मी से होने वाली मौतों की संख्या 370% बढ़ जाएगी तथा लोगों के काम के घंटे 50% कम हो जाएंगे। बीमार और बुजुर्गों के लिए अधिक गर्मी और उमस खतरनाक साबित हो रही है। मानव जीवन पर इस साल की गर्मी के प्रभाव का अभी पूरा आकलन नहीं किया गया है, लेकिन नेचर पत्रिका के अनुमान के मुताबिक यूरोप में पिछले साल इससे कम गर्मी ने 61 हजार लोगों की जान ली थी।

दिल्ली स्थित कोअलिशन फॉर डिजास्टर रेजिलिएंट इन्फ्रास्ट्रक्चर (CDRI) के अनुसार जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाली आपदाओं से हर साल इन्फ्रास्ट्रक्चर और बिल्डिंग को 732 से 845 अरब डॉलर की क्षति होती है। न्यूजीलैंड की विक्टोरिया यूनिवर्सिटी ऑफ़ वेलिंगटन की एक रिसर्च के मुताबिक 2000 से 2019 तक एक्सट्रीम वेदर की वैश्विक घटनाओं से हर साल औसतन 140 अरब डॉलर का नुकसान हुआ। वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम का अनुमान भी लगभग इतना ही है। दो दशक में कम से कम 120 करोड़ लोग एक्सट्रीम वेदर की घटनाओं से प्रभावित हुए हैं। वर्ल्ड मेटियोरोलॉजिकल ऑर्गेनाइजेशन (WMO) के अनुसार 1970 के दशक की तुलना में इन घटनाओं से होने वाला नुकसान 7 गुना बढ़ गया है। अटलांटिक काउंसिल के शोधकर्ताओं का मानना है कि एक्सट्रीम हीट अमेरिका की इकोनॉमी को हर साल 100 अरब डॉलर का नुकसान पहुंचा रहा है। वर्ष 2050 तक यह आंकड़ा 500 अरब डॉलर को छू सकता है।

नेशनल ओसनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन (NOAA) रिसर्च का आकलन है कि दुनिया के 40% समुद्र मरीन हीटवेव का सामना कर रहे हैं। इससे समुद्र की सतह का औसत तापमान रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गया है। इसे न रोका गया तो समुद्र का जलस्तर बढ़ने से जो बाढ़ आएगी उससे हर साल 50 लाख करोड़ डॉलर यानी दुनिया की जीडीपी के 4% के बराबर नुकसान होगा। NOAA ने उत्तरी गोलार्ध में मार्च 2024 तक अल नीनो का बड़ा प्रभाव रहने की आशंका जताई है, जिसका असर मौसम के पैटर्न पर पड़ेगा। डब्लूएमओ महासचिव पेटेरी तालस का कहना है कि इसका लोगों की सेहत, खाद्य सुरक्षा, जल प्रबंधन और पर्यावरण पर बुरा असर होगा।

ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में निकलने वाली गर्मी का 90% समुद्र सोख लेते हैं। अर्थ.ओआरजी के मुताबिक अगस्त में भूमध्य सागर की सतह का तापमान रिकॉर्ड 28.7 डिग्री पर पहुंच गया था। इसका तापमान वैश्विक औसत से 20% अधिक तेजी से बढ़ रहा है जो इसमें रहने वाली लगभग 17,000 प्रजातियों के लिए खतरा है।

कृषिः जलवायु परिवर्तन से बचते हुए खाद्य सुरक्षा

जलवायु परिवर्तन का सबसे बुरा असर एग्री फूड सेक्टर पर हो रहा है और विशेषज्ञ मानते हैं कि ऐसा आगे भी होगा। कृषि एवं खाद्य संगठन (FAO) की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि बीते तीन दशक में कृषि और इससे जुड़े क्षेत्र को क्लाइमेट चेंज, प्राकृतिक आपदा और प्रतिकूल मौसम से 3.8 लाख करोड़ डॉलर का नुकसान हुआ है। नीति आयोग के सदस्य डॉ. रमेश चंद ने पिछले दिनों एक इंटरव्यू में कहा, “कृषि क्षेत्र जलवायु परिवर्तन से प्रभावित तो होता ही है, यह जलवायु को प्रभावित भी करता है। तापमान एक डिग्री बढ़ जाए तो उससे कार या फ्रिज का उत्पादन प्रभावित नहीं होता, लेकिन कृषि उत्पादन प्रभावित होता है।”

इसलिए फूड और लैंड यूज सिस्टम में भी बदलाव की जरूरत है ताकि कृषि से उत्सर्जन कम हो और जंगलों को फिर से आबाद तथा संरक्षित किया जा सके। जलवायु संकट के प्रभाव से सूखा और बाढ़ की घटनाएं किसानों की फसलों और उनकी आजीविका तबाह कर रही हैं। दुनिया को जलवायु परिवर्तन से बचते हुए खाद्य सुरक्षा बढ़ाने के उपायों में निवेश करने की जरूरत है। डब्लूईएफ के मुताबिक हमें ऐसे उपाय करने होंगे जिनसे 2030 तक कृषि क्षेत्र से होने वाला उत्सर्जन 2020 के स्तर से 25 प्रतिशत कम हो।

खाद्य पदार्थों की बर्बादी भी 2030 तक आधी करनी पड़ेगी। अर्थ.ओआरजी के अनुसार, लोगों के खाने के लिए हम हर साल जितना खाद्य पदार्थ उगाते हैं, उसका एक तिहाई नष्ट या बर्बाद होता है। मात्रा के लिहाज से यह 130 करोड़ टन है जिससे 300 करोड़ लोगों को खाना खिलाया जा सकता है। बर्बाद हुए खाद्य पदार्थों से ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन चीन और अमेरिका के बाद तीसरा सबसे बड़ा है। विकसित देशों में 40% खाद्य पदार्थ रिटेल और उपभोक्ता के स्तर पर बर्बाद होते हैं तो विकासशील देशों में इतना ही खाद्य पदार्थ फसल कटाई-तुड़ाई और प्रोसेसिंग में बर्बाद होते हैं।

एफएओ के महानिदेशक क्यूयू डोंग्यू ने कहा है, "जलवायु और खाद्य संकट को अलग करके नहीं देख सकते। एग्रीफूड सिस्टम और ग्रामीण क्षेत्र में निवेश से ही जलवायु संकट के असर को कम किया जा सकता है। कॉप 28 में एफएओ बताएगा कि कैसे एग्रीफूड सिस्टम में बदलाव से लोगों को फायदा हो सकता है।"

अब तक क्या कदम उठाए गए

यह पूछने पर कि बीते एक साल में प्रमुख देशों ने उत्सर्जन घटाने के लिए क्या कदम उठा, उल्का केलकर ने कहा, ट्रेंड तो वही चल रहा है जो कॉप 27 से पहले था। अनेक देशों ने नियम बनाए और लक्ष्य तय किए हैं। कुछ सेक्टर में अच्छी प्रगति देखने को मिली है। जैसे ट्रांसपोर्ट में इलेक्ट्रिक वाहनों का प्रयोग बढ़ा है। यूरोपियन यूनियन ने तय किया है कि 2035 के बाद पेट्रोल या डीजल की गाड़ियां नहीं बिकेंगी। लेकिन पावर सेक्टर में रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद तेल एवं गैस पर निर्भरता फिर बढ़ी है। कुछ समय के लिए कोयले का इस्तेमाल भी बढ़ा। नतीजा मिश्रित कह सकते हैं। किसी भी देश के उत्सर्जन में बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ा है।

यूएन क्लाइमेट चेंज के एक्जीक्यूटिव सेक्रेटरी साइमन स्टियल ने 14 नवंबर को नई रिपोर्ट जारी करते हुए कहा, “जलवायु संकट से बचने के लिए तमाम देशों का समग्र कदम भी बहुत छोटा है। इसे रास्ते पर लाने के लिए कॉप 28 में सरकारों को बड़े साहसिक कदम उठाने पड़ेंगे। मतलब, कॉप 28 टर्निंग प्वाइंट होना चाहिए…। यह साहसिक कदमों के फायदे बताने का समय है- ज्यादा नौकरियां, ज्यादा वेतन, आर्थिक विकास, अवसर एवं स्थिरता, कम प्रदूषण और बेहतर स्वास्थ्य।”

यूएन क्लाइमेट चेंज ने 25 सितंबर 2023 तक विभिन्न देशों के एनडीसी का विश्लेषण करने पर पाया कि 2030 के बाद उत्सर्जन (2019 की तुलना में) नहीं बढ़ेगा, लेकिन उसमें गिरावट भी नहीं आएगी जो इस दशक के लिए जरूरी है। 14 नवंबर को ही जारी यूएन की दीर्घकालिक कम उत्सर्जन विकास रणनीति रिपोर्ट के अनुसार नेट जीरो उत्सर्जन के लिए विभिन्न देशों ने जो लक्ष्य तय किए हैं, उनके मुताबिक 2050 में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन 2019 के मुकाबले 63% कम होगा।

आईईए के अनुसार अनेक देश 2030 तक रिन्यूएबल एनर्जी का उत्पादन बढ़ाने के लिए सौर तथा पवन ऊर्जा पर फोकस कर रहे हैं, लेकिन चीन को छोड़ कर ज्यादातर देश सालाना लक्ष्य से पीछे ही हैं। 2022 में चीन ने लक्ष्य से 168% अधिक क्षमता विकसित की। इसके विपरीत अमेरिका ने लक्ष्य का 46% और भारत में 57% हासिल किया। चीन ने 101 की जगह 170 गीगावाट, यूरोपियन यूनियन ने 86 की जगह 54 गीगावाट, अमेरिका ने 69 की जगह 32 गीगावाट, भारत ने 35 की जगह 20 गीगावाट और इंग्लैंड ने 7 की जगह 5 गीगावाट रिन्यूएबल की क्षमता विकसित की। ये देश दुनिया की 63% बिजली खपत करते हैं, इसलिए बिजली उत्पादन को डिकार्बनाइज करने की जिम्मेदारी इन पर ज्यादा है।

क्या होना चाहिए

वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के श्वेत पत्र के मुताबिक तापमान वृद्धि रोकने के लिए उत्सर्जन घटाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं, जबकि यह हर साल बढ़ रहा है। वर्ष 1950 से 2011 तक ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन हर साल 2% बढ़ा। 2011 से 2021 तक इसके बढ़ने की गति थोड़ी कम हुई, फिर भी यह 1.5% बढ़ रहा है। 1.5 डिग्री सेल्सियस का लक्ष्य हासिल करने के लिए 2030 तक हर साल उत्सर्जन 7 प्रतिशत और 2030 से 2050 तक हर साल 5.8 प्रतिशत घटाना जरूरी है। अब तक लागू नीतियों से वर्ष 2100 तक वातावरण का तापमान 3.2 डिग्री सेल्सियस बढ़ जाएगा। विभिन्न देशों ने जो अपने लक्ष्य (एनडीसी) तय किए हैं उन पर पूरा अमल हो तब भी तापमान 2.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ेगा। तापमान बढ़ने के साथ एडेप्टेशन और नुकसान से निपटना अधिक खर्चीला हो जाएगा। 

समस्या यह है कि मौजूदा दशक में विभिन्न देश बहुत ज्यादा करने की प्रतिबद्धता नहीं दिखा रहे हैं। इसलिए उत्सर्जन घटाने के उनके वादे पर संशय है। यूक्रेन पर रूस के हमले के बाद गैस की आपूर्ति बाधित होने से यूरोप में कोयले से बिजली का उत्पादन बढ़ा है, इंग्लैंड ने 100 नए तेल एवं गैस खनन का लाइसेंस जारी करने का फैसला किया है, फ्रांस 2023 में रिन्यूएबल एनर्जी का लक्ष्य पूरा नहीं कर पा रहा है, अमेरिका में भी इस वर्ष रिकॉर्ड तेल का उत्पादन का अनुमान है। 

एसएंडपी ग्लोबल का आकलन है कि 2050 तक अमेरिका और यूरोपियन यूनियन तथा 2060 तक चीन ने नेट जीरो उत्सर्जन का लक्ष्य हासिल नहीं किया तो 1.5 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य को हम नहीं प्राप्त कर सकेंगे। नेट जीरो के लिए हर साल जितने नए इलेक्ट्रिक वाहन और जितनी जीरो कार्बन बिल्डिंग होनी चाहिए वास्तव में संख्या उससे बहुत कम है। 2030 तक सालाना इनकी संख्या क्रमशः 7 गुना और 9 गुना बढ़ानी पड़ेगी।

बहरहाल, कुछ सकारात्मक संकेत भी हैं। केलकर के अनुसार, “ऊर्जा सेक्टर में कुछ देशों में अच्छी प्रगति हुई है। जैसे पुर्तगाल में पिछले दिनों पूरे एक सप्ताह तक सौर, पवन तथा जियोथर्मल ऊर्जा से बिजली सप्लाई की गई। उन्होंने रिन्यूएबल स्रोतों से अपनी जरूरत से ज्यादा बिजली पैदा की और दूसरे देशों को बेची। इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी के अनुसार जीवाश्म ईंधनों का प्रयोग शीर्ष पर पहुंच गया है। पश्चिम तथा दुनिया के कई देशों में जीवाश्म ईंधनों का प्रयोग अब नहीं बढ़ रहा है। वहां रिन्यूएबल एनर्जी का ही इस्तेमाल बढ़ रहा है। मेरे विचार से उत्सर्जन का स्तर व्यापक रूप से घटाने में थोड़ा समय लगेगा। यूक्रेन युद्ध जैसी बाधाएं जब आती हैं, तो हमारी पिछले कुछ वर्षों की प्रगति शून्य हो जाती है।”

कुछ और छोटे मगर महत्वपूर्ण कदम हैं। कैलिफोर्निया में ट्रक ट्रांसपोर्ट कंपनियों ने लंबी दूरी के लिए हाइड्रोजन ईंधन का इस्तेमाल शुरू किया है। अमेरिकी कंपनी हायरलूम ने लाइमस्टोन की मदद से सीधे हवा से कार्बन डाइऑक्साइड कैप्चर करने की टेक्नोलॉजी विकसित की है।

समस्या को देखने के बाद लोगों के विचार भी बदल रहे हैं। आईईए के बिरोल के अनुसार 2015 में सौर ऊर्जा अनेक लोगों के लिए रोमांटिक विजन था, अब यह मेनस्ट्रीम हो गया है। इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी ने अपने सालाना वर्ल्ड एनर्जी आउटलुक में कहा है कि 2030 में नई बिजली उत्पादन क्षमता का 80% रिन्यूएबल होगा, जिसमें आधी से अधिक सौर ऊर्जा होगी। यूएन महासचिव गुटेरेस भी पूरी तरह नाउम्मीद नहीं हुए हैं। वे कहते हैं, “हमने कुछ प्रगति देखी है। रिन्यूएबल एनर्जी का उत्पादन तेजी से बढ़ रहा है। शिपिंग जैसे क्षेत्रों में कुछ सकारात्मक कदम उठाए गए हैं…। ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री तक सीमित रखना और जलवायु परिवर्तन के सबसे बुरे प्रभावों से बचना अब भी संभव है, लेकिन इसके लिए हमें तत्काल बड़े कदम उठाने होंगे।”