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    कठिन होता मौसम का पूर्वानुमान लगाना, मानसून की चाल बिगड़ने से देश के कई हिस्से सूखे का कर रहे सामना

    By Sanjay PokhriyalEdited By:
    Updated: Wed, 10 Aug 2022 03:44 PM (IST)

    Climate Change भारत तीन ओर से जहां अरब सागर हिंद महासागर और बंगाल की खाड़ी से घिरा है तो उत्तरी सीमा पर पर्वतराज हिमालय के शिखर हैं। इसीलिए पूरी दुनिया के मौसम विज्ञानीभारतीय मौसम को परखने में अपनी बुद्धि खपाते हैं।

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    Climate Change: इतनी अनूठी भौगोलिक परिस्थितियों में कोई भी सटीक भविष्यवाणी करना चुनौतीपूर्ण है

    पंकज चतुर्वेदी। Climate Change भारतीय मौसम विभाग के महानिदेशक मृत्युंजय महापात्र ने कहा है कि जलवायु परिवर्तन से मौसम संबंधी महत्वपूर्ण घटनाओं का पूरे विश्व में पूर्वानुमान लगाना मुश्किल हो रहा है। इस चुनौती से भविष्य में निपटने के लिए रडारों की संख्या बढ़ाई जा रही है। वहीं उच्च परिणाम देने वाली गणना प्रणाली को भी अपडेट किया जा रहा है। वहीं बीते 50 वर्षो के अध्ययन पर केंद्रित एक रिपोर्ट के अनुसार, मौसम में जो बादल पानी बरसाते हैं, उनकी सघनता धीरे-धीरे घट रही है। इस नाते कमजोर मानसून की आशंका प्रकट हो रही है। इससे आशय यह निकलता है कि मानसून में बारिश का प्रतिशत लगातार घट रहा है। इस बार उत्तर प्रदेश, बिहार समेत छह राज्यों में बारिश औसत से 42 प्रतिशत कम हुई है।

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    दरअसल आसमान में छह से साढ़े छह हजार फीट की ऊंचाई पर जो बादल होते हैं, 50 साल पहले वे घने भी होते थे और मोटे भी, परंतु अब साल दर साल इनकी मोटाई और सघनता कम होती जा रही है। इस अध्ययन और महापात्र की चेतावनी से देश के नीति-नियंताओं को चेतने की जरूरत है, क्योंकि हमारी खेती-किसानी मानसून की बरसात पर निर्भर है। वहीं खेती-किसानी पर हमारी 70 प्रतिशत आबादी निर्भर है।

    प्रत्येक साल अप्रैल-मई में मानसून आ जाने की अटकलों का दौर शुरू हो जाता है। यदि औसत मानसून आए तो देश में हरियाली और समृद्धि की संभावना बढ़ती है और औसत से कम आए तो सूखा आता है। मौसम मापक यंत्रों की गणना के अनुसार यदि 90 प्रतिशत से कम बारिश होती है तो उसे कमजोर मानसून कहा जाता है। 90-96 प्रतिशत बारिश इस दायरे में आती है। 96-104 प्रतिशत बारिश को सामान्य मानसून कहा जाता है। यदि बारिश 104-110 प्रतिशत होती है तो इसे सामान्य से अच्छा मानसून कहा जाता है। 110 प्रतिशत से ज्यादा बारिश होती है तो इसे अधिकतम मानसून कहा जाता है।

    विज्ञानियों का कहना है कि जंगलों के घटते जाने के कारण बादलों के बरसने की क्षमता घट रही है। धरती पर जितने घने वन होंगे, आसमान में उतने ही घने और काले बादल छाकर बरसेंगे। दो दशक पहले तक कर्नाटक में 46, तमिलनाडु में 42, आंध्र प्रदेश में 63, ओडिशा में 72, बंगाल में 48, अविभाजित मध्य प्रदेश में 65 प्रतिशत भूभाग पर वन थे, जो अब 40 प्रतिशत शेष रहे गए हैं। नतीजतन पानी भी कम बरसने लगा है या फिर एक साथ बरस कर बाढ़ की विभीषिका लाने लगा है। केंद्र सरकार ने 27 जुलाई को संसद को बताया था कि उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, मेघालय और नगालैंड में बीते 30 वर्षो (1989 से 2018) में दक्षिण-पश्चिम मानसून से होने वाली वर्षा में उल्लेखनीय कमी देखी गई है। साथ ही अरुणाचल प्रदेश और हिमाचल प्रदेश में भी बारिश की मात्र घाट रही है।

    1970 से अब तक के वर्षा के दैनिक डाटा के विश्लेषण से पता चला है कि देश में भारी वर्षा के दिनों में वृद्धि हुई है, जबकि हल्की और मध्यम वर्षा के दिनों में कमी आई है। इसे जलवायु परिवर्तन का नतीजा माना जा रहा है। बिजली गिरने की घटनाओं में बढ़ोतरी और अरब सागर में चक्रवातों में तीव्रता इसी का परिणाम है।

    मौसम की हलचल पर नजर रखने के लिए विज्ञानी कंप्यूटरों, गुब्बारों, वायुयानों, समुद्री जहाजों और रडारों से लेकर उपग्रहों तक की सहायता लेते हैं। इनसे जो आंकड़े इकट्ठे होते हैं उनका विश्लेषण कर मौसम का पूर्वानुमान लगाते हैं। हमारे देश में मौसम विभाग के पास 550 भू-वेधशालाएं, 63 गुब्बारा केंद्र, 32 रेडियो, पवन वेधशालाएं, 11 तूफान संवेदी, 34 तूफान सचेतक रडार, आठ उपग्रह चित्र प्रेषण एवं ग्राही केंद्र हैं। लक्षद्वीप, केरल एवं बेंगलुरु में 14 मौसम केंद्रों के डाटा पर सतत निगरानी रखते हुए मौसम संबंधी भविष्यवाणियां की जाती हैं। अंतरिक्ष में छोड़े गए उपग्रहों से भी सीधे मौसम की जानकारियां कंप्यूटरों में दर्ज होती रहती हैं।

    बरसने वाले बादल बनने के लिए गरम हवाओं में नमी का समन्वय जरूरी होता है। हवाएं जैसे-जैसे ऊंची उठती हैं, तापमान गिरता जाता है। अनुमान के मुताबिक प्रति एक हजार मीटर की ऊंचाई पर पारा छह डिग्री नीचे आ जाता है। यह अनुपात वायुमंडल की सबसे ऊपरी परत ट्रोपोपाज तक चलता है। इस परत की ऊंचाई यदि भूमध्य रेखा पर नापें तो करीब 15 हजार मीटर बैठती है। यहां इसका तापमान लगभग शून्य से 85 डिग्री सेल्सियस नीचे पाया गया है। इसी परत के नीचे मौसम का गोला या क्षोभमंडल होता है, जिसमें बड़ी मात्र में भाप होती है। यह भाप ऊपर उठने पर ट्रोपोपाज के संपर्क में आती है। ठंडी होने पर भाप द्रवित होकर पानी की बूंदें बनाती है। पृथ्वी से पांच-10 किलोमीटर ऊपर तक जो बादल बनते हैं, उनमें बर्फ के बेहद बारीक कण भी होते हैं। पानी की बूंदें और बर्फ के कण मिलकर बड़ी बूंदों में तब्दील होते हैं और वर्षा के रूप में धरती पर टपकना शुरू होते हैं, लेकिन जलवायु परिवर्तन ने सतह पर बहने वाली हवाओं के तापमान में वृद्धि की है, जिससे वाष्पीकरण की दर में वृद्धि हुई है। चूंकि गर्म हवा में अधिक नमी होती है, अत: यह तीव्र बारिश का कारण बनती है।

    दुनिया के किसी अन्य देश में मौसम इतना विविध, दिलचस्प, हलचल भरा और प्रभावकारी नहीं है, जितना कि भारत में है। इसका मुख्य कारण है भारतीय प्रायद्वीप की विलक्षण भौगोलिक स्थिति। हमारे यहां एक ओर अरब सागर है और दूसरी ओर बंगाल की खाड़ी है और इन सबके ऊपर हिमालय के शिखर हैं। इसीलिए दुनिया के मौसम विज्ञानी भारतीय मौसम को परखने में अपनी बुद्धि खपाते हैं। इतने अनूठे मौसम की भविष्यवाणी करने में चूक सही नहीं है। हमें सफल भविष्यवाणी के लिए कंप्यूटर की देसी भाषा विकसित करनी होगी। जब हम वर्षा के आधार स्नेत की भाषा पढ़ने और संकेत परखने में सक्षम हो जाएंगे तो मौसम की भविष्यवाणी भी सटीक बैठेगी।

    [पर्यावरण मामलों के जानकार]