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    भारत के पांच राज्यों में बसे हैं एक लाख से ज्यादा 'असुर', भाषा विलुप्ति के कगार पर

    By Neel RajputEdited By:
    Updated: Mon, 08 Mar 2021 08:55 PM (IST)

    छत्तीसगढ़ के जशपुर जिले के मनोरा तहसील के गजमा लुखी कांटाबेल कुलाडोर विरला व दौनापाठ में इस जनजाति के लोग निवास करते हैं। जिले में असुर समाज की सबसे वृद्ध महिला 95 वर्षीय मडवारी बाई ने बताया कि कुत्ता को सेता और बालिका को कुड़ीचेंगा कहा जाता है।

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    युवा पीढ़ी अपने पूर्वजों की भाषा सीखने नहीं ले रही रचि

    जशपुरनगर [रविंद्र थवाईत]। पुराणों में उल्लेखित असुर जनजाति की बोली विलुप्त होने की कगार पर पहुंच गई है। सभ्य समाज के संपर्क में आने के कारण नई पीढ़ी लरिया व छत्तीसगढ़ी समेत अन्य स्थानीय बोलियों तक सिमट गई है। इस जनजाति के लोग छत्तीसगढ़ के जशपुर, झारखंड और बिहार के पठारी क्षेत्र में निवास करते हैं। इनकी आबादी भी सिमटते जा रही है। इनकी जनसंख्या वर्ष-2011 की जनगणना के अनुसार मात्र एक लाख 10 हजार है। असुर जनजाति की अपनी विशिष्ट सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराएं हैं, लेकिन सबसे अलग पहचान है इनकी भाषा। आदिकाल से यह जनजाति अपने समाज में जिस भाषा का प्रयोग करते आ रही है, इसे असुर भाषा के नाम से ही जाना जाता है। इस भाषा की लिपि नहीं है, लेकिन शब्दावली और लोकगीत के लिहाज से यह बेहद समृद्ध है।

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    छत्तीसगढ़ के जशपुर जिले के मनोरा तहसील के गजमा, लुखी, कांटाबेल, कुलाडोर, विरला व दौनापाठ में इस जनजाति के लोग निवास करते हैं। जिले में असुर समाज की सबसे वृद्ध महिला 95 वर्षीय मडवारी बाई ने बताया कि कुत्ता को सेता और बालिका को कुड़ीचेंगा कहा जाता है। हाड़ीकोना निवासी चीरमईत बाई ने बताया कि समाज के दो-चार वृद्ध ही इसे जानते हैं। नईदुनिया के विशेष आग्रह पर उन्होंने असुर भाषा का एक लोकगीत गाकर सुनाया। इसे सुनकर मौके पर मौजूद असुर समाज के युवा भी आश्चर्य चकित हो गए।

    पारंपरिक व्यवसाय व तीर-धनुष चलाना भी भूले

    सरकारी रिकार्ड के मुताबिक महिषासुर के वंशज माने जाने वाले असुर जनजाति के लोग बालू से लोहा निकालने में माहिर मानी जाती थी। नई पीढ़ी इस पारंपरिक व्यवसाय के साथ ही तीर-धनुष चलाना भी भूल चुकी है। कृषि और मजदूरी ही आजीविका का साधन रह गई है।

    सहेजने की जरूरत आदिवासी कांग्रेस के जशपुर जिलाध्यक्ष हीरूराम निकुंज का कहना है कि असुर जनजाति की सांस्कृतिक व सामाजिक पहचान को बनाए रखने के लिए प्रयास की जरूरत है। हालांकि अब जाकर प्रदेश सरकार ने पहल शुरू की है। विशेषज्ञों के साथ मिलकर शब्दकोश तैयार करने और लोकगीतों को लिपिबद्ध करने की तैयारी की जा रही है। जनजाति के युवाओं को शिक्षा के साथ लोक संस्कृति से जुड़ने के लिए जागरूक किया जा रहा है। इसके लिए आदिवासी समाज और समाजसेवी संगठनों की मदद भी ली जा रही है।