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    नाम और पैसा कमाने को हिंदी, त्रिभाषा फार्मूले का विरोध

    By Vinay TiwariEdited By:
    Updated: Sun, 16 Jun 2019 03:30 PM (IST)

    दक्षिण भारत में भाषा के नाम पर लोग राजनीति तो करते हैं पर अपने घर में अपनी संतान को हिंदी पढ़ाते हैं और अपने साहित्य का हिंदी में अनुवाद करवाते हैं। ...और पढ़ें

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    नाम और पैसा कमाने को हिंदी, त्रिभाषा फार्मूले का विरोध

    (डॉ.निर्मला एस मौर्य) दक्षिण भारत में भाषा के नाम पर लोग राजनीति तो करते हैं पर अपने घर में अपनी संतान को हिंदी पढ़ाते हैं और अपने साहित्य का हिंदी में अनुवाद करवाते हैं। अभिनेता हिंदी फिल्म में काम करके नाम और पैसा तो कमाना चाहते हैं पर त्रिभाषा फार्मूले को अपनाने में हिचक दिखाना इनकी फितरत बन गई है। हिंदी का विरोध करने वाले तमिल राजनेता चुनाव जीतने के लिए अपने पंपलेट हिंदी में छपवाते हैं। 

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    राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने हिंदी को भारत की भाषा मानते हुए देवनागरी लिपि के व्यवहार पर बल दिया। वह इससे सहमत नहीं थे कि रोमन लिपि का व्यवहार भारत में हो। अखिल भारत के परस्पर व्यवहार के लिए उन्हें ऐसी भाषा की जरूरत महसूस हुई, जिसे देश की आबादी का बड़ा हिस्सा पहले से ही जानता और समझता हो। हिंदी इस दृष्टि से उन्हें सर्वश्रेष्ठ लगी। तमिलनाडु में हिंदी की जड़ें बहुत गहरी हैं और अब पहले वाली स्थिति नहीं रही। इसके पीछे 1918 में मद्रास में स्थापित ‘हिंदी प्रचार आंदोलन’ की भूमिका रही है।

    बापू ने दक्षिण में हिंदी प्रचार-प्रसार के लिए 1918 में त्यागराय नगर मद्रास में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की स्थापना की। आगे चलकर कनार्टक, केरल, आंध्र प्रदेश में इसकी शाखाएं खुलीं। इसके साथ ही बड़ी संख्या में हिंदी प्रचारक तैयार हुए। दक्षिण राज्य की जनता की भावनाओं का स्वागत और आदर करते हुए इस संस्था को 1964 में राष्ट्रीय महत्व की  संस्था’ घोषित किया गया और चार प्रदेश में क्रमश: उच्च शिक्षा और शोध संस्थान स्थापित किए गए। 

    यदि 2018 के आंकड़े उठाकर देखे जाएं तो इन दक्षिणी प्रदेशों में करीब 15 हजार प्रमाणित प्रचारक प्रतिवर्ष तैयार होते हैं। स्वयं मेरे शोध निर्देशन में 90 शोधार्थियों को एमफिल, 89 शोधार्थियों को पीएचडी और 6  शोधार्थियों को डीलिट् की उपाधि मिली है। संस्थान से हजारों की संख्या में छात्र विभिन्न पाठ्यक्रम को पूरा कर सरकारी और गैर सरकारी संस्थानों में अपना जीविकोपार्जन कर रहे हैं। हिंदी की स्थिति विश्व फलक पर बड़ी तेजी से बदल रही हैं। फिर ऐसी स्थिति में कहां से हिंदी विरोध की बात पैदा होनी चाहिए। मैं आज भी दक्षिण के विभिन्न राज्यों में हिंदी के कार्यक्रम में जाती रहती हूं और हमेशा यह अनुभव करती हूं कि यहां का आम आदमी हिंदी जान और समझ कर स्वयं को गौरवान्वित महसूस करता है। उसे टूटी फूटी हिंदी में बात करना अच्छा लगता है। 

    यही नहीं हमारे जैसे असंख्य उत्तर भारतीय और मारवाड़ी यहां बसे हुए, जो बहुत अच्छी तमिल बोलते हैं और तमिल में अपना कार्य भी करते हैं। तब ऐसी स्थिति में क्यों भाषा के नाम पर अलगाव पैदा किया जा रहा है। 1937 में मद्रास प्रेसीडेंसी में जो हिंदी विरोधी आंदोलन शुरू हुआ और पिछली सदी के छठे दशक में दूसरा आंदोलन उभरा, उन सभी को दरकिनार कर अब त्रिभाषा सूत्र को ईमानदारी से लागू करने का समय आ गया है। 

    रूस और चीन जैसे देशों में अनेक भाषाएं हैं किंतु रूसी और चीनी भाषाओं को राष्ट्रभाषा का दर्जा देते हुए राष्ट्रीय अस्मिता से जोड़ा गया। अगर ऐसा नहीं हुआ तो एक  दिन अंग्रेजी पहले दक्षिण की भाषाओं को ली लेगी। तमिलनाडु में ही तमिल की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है क्योंकि यहां की नई पीढ़ी के बहुत कम लोग तमिल पढ़ और लिख पाते हैं। उन्हें मात्र तमिल बोलना आता है। जिस प्रकार तमिलनाडु और कर्नाटक जैसे दक्षिणी राज्यक्रमश: तमिल और कन्नड़ को अपने राज्य की अस्मिता से जोड़कर देखते हैं तो क्या हिंदी को भारत की अस्मिता से नहीं जोड़ा जाना चाहिए? जिस तरह से दक्षिण भारत में हिंदी फलफूल रही है वैसे ही उत्तर भारत में त्रिभाषा सूत्र ईमानदारी से लागू होना चाहिए और वहां भी मातृ भाषा तथा अंग्रेजी के साथ-साथ ऐच्छिक विषय के रूप में उर्दू, संस्कृत तथा दक्षिण की भाषाओं को भी पढ़ने-पढ़ाने पर जोर देना होगा। भारतीय सांस्कृतिक, पारंपरिक विरासत को बचाना है तो हमें यह करना ही होगा। 

    पूर्व कुलसचिव एवं अध्यक्ष उच्च शिक्षा और शोध संस्थान दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, चेन्नई 

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