सुप्रीम कोर्ट में सरकार ने कहा- तीन तलाक इस्लाम का अंग नहीं
सुप्रीम कोर्ट ने ट्रिपल तलाक पर हलफनामा दायर करते हुए कहा कि तीन बार तलाक महिलाओं के साथ लैंगिग भेदभाव करता है।
जागरण ब्यूरो, नई दिल्ली : भारत के इतिहास में पहली बार केंद्र सरकार मुस्लिम महिलाओं के हक में खुलकर आगे आई है। केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा है कि मुसलमानों में प्रचलित तीन तलाक, हलाला निकाह और बहुविवाह इस्लाम का अभिन्न अंग नहीं है।
मुस्लिम महिलाओं के बराबरी के हक की तरफदारी करते हुए कहा कि इससे कोई समझौता नहीं हो सकता। सरकार ने लैंगिक समानता और धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र के संदर्भ में इस पर पुनर्विचार करने पर जोर दिया है।
सरकार ने शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट में दाखिल अपने हलफनामे में यह बात कही है। अदालत ने मुस्लिम महिलाओं के हक पर स्वत: संज्ञान लेते हुए तीन तलाक, भरण-पोषण आदि मुद्दों पर सुनवाई शुरू की थी। बाद में कुछ पीडि़त महिलाओं ने भी तीन तलाक, हलाला निकाह और बहुविवाह के खिलाफ याचिकाएं दाखिल कर दीं। कोर्ट ने इस पर केंद्र सरकार को नोटिस जारी कर उसका नजरिया पूछा था।
कानून मंत्रालय की ओर से दाखिल हलफनामे में कहा गया है कि इस्लाम को राज्य का धर्म मानने वाले बहुत से देशों ने शादी और तलाक से जुड़े कानूनों को नियमित किया है। जब मुस्लिम देश तीन तलाक के नियमों को नियमित कर सकते हैं तो धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र वाला भारत महिलाओं को बराबरी और सम्मान से जीवन जीने के हक से कैसे इन्कार कर सकता है। संविधान में सभी नागरिकों को आर्थिक, सामाजिक और लैंगिक समानता का अधिकार मिला हुआ है।
सरकार ने अंतरराष्ट्रीय समझौतों का हवाला देते हुए कहा कि भारत उन पर हस्ताक्षर कर चुका है। वह उसमें कही गई महिलाओं के बराबरी के हक को मानने के लिए बाध्य है। सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 13 का हवाला देते हुए कहा कि पर्सनल लॉ इसके तहत आता है। इस अनुच्छेद में कहा गया है कि जो कानून संविधान में दिए गए मौलिक अधिकार के खिलाफ है वह शून्य माना जाएगा।
कहा गया है कि पर्सनल लॉ को संरक्षण देने का मकसद देश की बहुलता को बनाए रखना था। लेकिन क्या ऐसे किसी संरक्षण के नाम पर महिलाओं को बराबरी के अधिकार से वंचित किया जा सकता है।
कोर्ट के पूर्व के फैसलों का हवाला देते हुए सरकार ने कहा कि मुस्लिम समुदाय में सुधार की जरूरत है। मुस्लिम महिलाएं सामाजिक और आर्थिक रूप से कमजोर हैं। हालांकि, तीन तलाक और बहु विवाह का असर बहुत कम महिलाओं पर पड़ता होगा। लेकिन प्रत्येक महिला जिस पर यह कानून लागू होता है, हमेशा इसके भय में जीती है। इससे उसकी गरिमा और स्तर पर प्रभाव पड़ता है।
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