आपको भी याद होंगे वो पल जब आंगन में पेड़ पर झूला डाले बिना पूरा नहीं होता था सावन
काले-काले मेघ देखते ही मोर जहां अपने पंख फैलाकर खुशी जताता है। वहीं तपती धरती पर बरसती बूंदें वातावरण में सोंधी खुशबू बिखेर देती हैं।
नई दिल्ली (जागरण स्पेशल)। सखी सावन की आई बहार, मेंहदी नीकि लागे... झूला धीरे से झुलाओ सुकुमारी सिया हैं... कैसे खेलन जहिओ सावन में कजरिया, बदरिया घिर आई ननदिया... कुछ ऐसे गीतों के साथ होती है सावन की शुरुआत। सावन के आते ही महिलाओं की जुबां पर ये गीत बरबस ही आ जाते हैं। इस मौसम के जादू से कोई अछूता नहीं रह पाता। सावन की यह बहार अपने संग ले आती है भावनाओं में सराबोर ढेरों अनकही कहानियां...
काले-काले मेघ देखते ही मोर जहां अपने पंख फैलाकर खुशी जताता है। वहीं तपती धरती पर बरसती बूंदें वातावरण में सोंधी खुशबू बिखेर देती हैं। सखियां झूला झूलते हुए कजरी का आनंद लेती हैं तो वहीं अरबी के पत्तों के पकौड़े, दाल भरी पूड़ी, खीर, अनरसा, घेवर जैसे स्वादिष्ट पकवानों का स्वाद इस मौसम का मजा दोगुना कर देता है। जी हां, कुछ ऐसी ही खासियत है सावन की। जिसके आते ही पशु-पक्षी ही नहीं प्रकृति भी खुशी से झूम उठती है। कजरी लोकगीत का जिक्र आते ही पूर्वी उत्तर प्रदेश की परंपराएं और रीति-रिवाज सजीव हो उठते हैं।
छम-छम बरसती बूंदों के बीच झूलों पर ऊंची-ऊंची पींगें, सखियों का हास-परिहास, सास-ननद के उलाहने, पिया से रूठना-मनाना, सब कुछ शामिल होता है इन लोकगीतों में। पति की दीर्घायु, सुख-समृद्धि के लिए रखा जाने वाला हरतालिका तीज व्रत यहीं से शुरू हुआ। हालांकि सावन तो आज भी वही है, पर इसे मनाने के तौर-तरीकों में आधुनिकता के रंग भी शामिल हो गए हैं। फिर भी व्यस्त दिनचर्या के बावजूद महिलाएं इस परंपरा को जीवंत किए हैं। यही वजह है कि सावन भर महिलाएं रंगारंग कार्यक्रमों का आयोजन करती हैं। सावन के इस मौके पर कुछ पुरानी और नई पीढ़ी की महिलाएं साझा कर रही हैं सावन से जुड़ी अपनी यादें...।
आज भी बरकरार है उत्साह
गृहणी हेमलता बोरा कहती हैं, बचपन में सावन आते ही पेड़ों और घरों में झूले पड़ जाया करते थे। सावन में शायद ही कोई हो जो यह कहे कि उसे झूला झूलना पसंद नहीं। मुझे तो आज भी पसंद है। जिंदगी के साठ से ज्यादा सावन देख चुकी हूं। हर बार एक नया उत्साह होता है। बचपन से ज्यादा शादी के बाद मैंने इस ऋतु का आनंद लिया है। पति सेवानिवृत्त पुलिस अधिकारी हैं। रुद्रपुर में मनाया सावन आज भी याद है। डीएम और एसएसपी की पत्नि के साथ सावन भर रोज कजरी गाते हुए इसका आनंद लेते थे। अब तो हम केवल किटी पार्टियों में सावन मनाते हैं, पर उत्साह आज भी वही है। हालांकि किटी मेंबर हर बार सावन की थीम पर नए-नए आयोजन करती हैं।
मायके में रहती थीं नवविवाहिता
गोंडा निवासी कवियत्री, वाटिका कंवल कहती हैं, मेरे बचपन में दादी गुलमोहर के पेड़ पर झूला डालती थीं। हम सब सखियां सावन के गीत गाते हुए झूला झूलते थे। सावन को लेकर बहुत से गीतों की रचना हुई है। इनमें कभी नायिका को खुश होते दिखाया गया है तो कभी विरह का गीत गाते हुए प्रेमी या पति से विछोह का वर्णन किया गया है। पहले परंपरा थी कि सावन भर नवविवाहित बेटियां मायके में रहती थीं। अब लाइफ स्टाइल बदल चुकी है। अब तो परंपरा निभाने के लिए इसे मनाया जाता है। कवियत्री और आकाशवाणी एंकर के साथ ही मैं एक महिला संगठन की सदस्य भी हूं। हम महिलाएं मीटिंग करके सावन सेलिब्रेट करते हैं। इसी बहाने आज भी इस परंपरा को जीवित करने की ओर अग्रसर हैं।
गिर पड़ी झूले से नीचे
योगा टीचर सीमा सिंह कहती हैं, झूला देखकर मैं खुद को रोक नहीं पाती थी। चाहे स्कूल हो या पार्क जहां भी झूला दिखता बस झूलने लगती थी। सावन में झूला झूलने का आनंद ही कुछ और है। मुझे आज भी सावन का वह दिन याद करके हंसी आती है। पापा रेलवे में इंजीनियर थे। उस वक्त हम सब गोंडा में रहते थे। मैं तब चौथी कक्षा में पढ़ रही थी। स्कूल से आते ही सहेलियों के साथ बाग में पड़े झूले की तरफ दौड़ पड़ती थी। उस दिन भी मैं झूले पर पींगें मारकर उसे और तेज कर रही थी। अचानक मेरा बैलेंस बिगड़ा और मैं धम्म से नीचे गिर गई। सारी सहेलियां हंसने लगीं। मैंने कपड़ों की मिट्टी झाड़ी और फिर से झूले पर चढ़ गई। आज भी किसी पार्क में झूला देखती हूं तो खुद को रोक नहीं पाती हूं।
मम्मी से सीखा कजरी गायन
शास्त्रीय व लोकगीत गायिका सीमा वर्मा कहती हैं, पापा आइटीआइ में प्रिंसिपल थे और मम्मी सिंगर हैं। तीन साल की थी तब से सावन आने का बेसब्री से इंतजार करती थी। घर के आंगन में लगे लोहे के जाल में पापा झूला डाल देते थे। स्कूल से आते ही मैं और मेरा भाई झूले की ओर दौड़ पड़ते थे। मैं झूला झूलती, भाई झूला झुलाता और मां सावन के गीत गाती थीं। स्कूल में दिए गए पाठ भी मैं झूले पर ही याद करती थी और झूला झूलते हुए मम्मी को सुनाती भी रहती थी। जब मैं झूले का आनंद लेती तो मम्मी कजरी गाने लगती थीं। उनके साथ मैं भी गुनगुनाती थी। सावन के बहाने मां से कजरी सीखने का मौका भी मिला। आकाशवाणी-दूरदर्शन में कजरी गाती हूं। इस परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए गरीब बच्चों को संगीत की नि:शुल्क शिक्षा देती हूं।
पहाड़ों में मनाते हैं हरेला पर्व
टीचर पूनम कनवाल कहती हैं, श्रावण मास शुरू होने से दस दिन पहले उत्तराखंड में हरेला पर्व मनाया जाता है। उसी दिन से हमारा सावन शुरू होता है। हरेला में पांच या सात प्रकार का अनाज मिट्टी के बर्तन में बोकर पहाड़ों के ईष्ट देवता के सामने रखते हैं। दसवें दिन हम उसे काटते हैं। इस दिन पूड़ी, खीर, हलवा आदि बनाया जाता है। बेटियों को घर बुलाकर तिलक करने के बाद शगुन देने की परंपरा है। मुझे याद है पापा मेरे लिए आम के पेड़ पर झूला डालते थे। एक बार बचपन में झूला झूलते समय वह मेरे सिर में लग गया था। कुछ दिन तक झूले से डरती रही, मगर सखियों को झूला झूलते देख खुद को रोक भी नहीं पाती थी। समय के साथ मेरा डर भी खत्म हो गया। अब तो नया दौर है। लोग व्यस्त हैं, पर हम हरेला पर्व उसी उत्साह से मनाते हैं।
कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।