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खेलों में भी घुल रहा जातिवाद का जहर, भारतीय ओलिंपिक खिलाडि़यों की जाति हो रही सर्च

खिलाड़ियों को खिलाड़ी ही रहने दें वरना उनको जाति और धर्म के बंधन में बांधने लगेंगे तो देश में खेलों का विकास अवरुद्ध हो जाएगा। हमें पता होना चाहिए कि खिलाड़ी सिर्फ एक खिलाड़ी होता है। हालांकि कुछ शक्तियां ही नहीं चाहतीं कि देश से जातिवाद खत्म हो।

By TilakrajEdited By: Published: Fri, 06 Aug 2021 11:34 AM (IST)Updated: Fri, 06 Aug 2021 12:39 PM (IST)
कुछ शक्तियां ही नहीं चाहतीं देश से खत्म हो जातिवाद

सोनम लववंशी। हाल में गूगल द्वारा जारी किए गए डाटा से पता चला है कि टोक्यो ओलिंपिक में कांस्य पदक जीतने के बाद देश में कुछ लोग पीवी सिंधू के खेल से कहीं ज्यादा उनकी जाति सर्च करने में लगे हुए थे। दूसरे शब्दों में कहें तो ये लोग उनकी मेहनत और खेल के प्रति उनके समर्पण के बारे में चर्चा करने से ज्यादा यह जानने में लगे थे कि वह किस जाति से हैं। चिंता की बात है कि यह किसी एक खिलाड़ी के साथ नहीं हुआ है। इस सूची में ढेरों खिलाड़ियों के नाम हैं।

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चिंता की बात

वैसे देश की राजनीति में जातिवाद का जहर किसी से छिपा नहीं है, लेकिन जब यही खेलों में भी शुरू हो जाए तो कई सवाल खड़े होते हैं। यह कितने दुर्भाग्य की बात है कि जब भी खिलाड़ी अपने बेहतर खेल प्रदर्शन से देश का मान बढ़ाते हैं, तो फिर कुछ लोग उनके प्रदर्शन की चर्चा न करके उनकी जाति जानने में दिलचस्पी लेने लगते हैं।

ऐसी ओछी मानसकिता क्यों?

जब खिलाड़ी आर्थिक तंगी के दौर से गुजर रहे होते हैं, तब कोई उनकी जाति नहीं पूछता, मजहब नहीं जानना चाहता और न ही उनकी सुध लेता है, लेकिन जैसे ही वे पदक जीतते हैं तो फिर उनको जाति-धर्म के सांचे में बंटाने की फितरत जन्म ले लेती है। क्या जातियों में बांटकर हम खेलों में शीर्ष पर पहुंच पाएंगे? आखिर यह जाति जाती क्यों नहीं? वैसे तो हम नारा बुलंद करते हैं संप्रभु भारत का, फिर बीच में जाति-धर्म और राज्य कहां से आ जाते हैं? क्या इन खिलाड़ियों की विदेश में पहचान उनके राज्य से होती है? नहीं न, तो फिर ऐसी ओछी मानसकिता क्यों?

कुछ शक्तियां ही नहीं चाहतीं देश से खत्म हो जातिवाद

सच्चाई तो यह है कि हमारे देश में ऊंच-नीच, अमीर-गरीब, छोटे-बड़े और स्त्री-पुरुष, बल्कि यह कहें कि हर जगह भेदभाव की कभी न मिटने वाली एक लकीर खींच दी गई है। इसकी जड़ें वर्तमान दौर में और गहरी होती जा रही हैं। तमाम दल अपने-अपने सियासी लाभ के लिए जातिवाद को बढ़ावा दे रहे हैं। हमारे संविधान-प्रदत्त अधिकार और कानूनी प्रविधान भी जातीय भेदभाव, उत्पीड़न और अन्याय को खत्म करने में बहुत सफल नहीं होते प्रतीत हो रहे हैं, क्योंकि देश की राजनीति को संचालित करने वाली कुछ शक्तियां ही नहीं चाहतीं कि देश से जातिवाद खत्म हो।

खिलाड़ी सिर्फ एक खिलाड़ी होता है

दुख की बात है कि हाल के कुछ वर्षों में सियासत ने खेलों में भी जातियों की घुसपैठ करा दी है, जो बेहद खतरनाक है। हमें पता होना चाहिए कि खिलाड़ी सिर्फ एक खिलाड़ी होता है। वह अपनी मेहनत, लगन, संघर्ष और अपने खेल के दम पर देश का मान बढ़ाता है। हमारे लिए तो देश का गौरव बढ़ाने वाले हर खिलाड़ी जाति-धर्म से ऊपर होने चाहिए। हम खिलाड़ियों को खिलाड़ी ही रहने दें, वरना उनको जाति और धर्म के बंधन में बांधने लगेंगे तो जिस तरह से जातिवाद में फंसकर देश का विकास अवरुद्ध हो गया है, उसी तरह खेलों का विकास भी बाधित हो जाएगा।

(लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)


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