दूसरे प्रदेश में बसने से किसी व्यक्ति की बदल जाति है जाति, हाई कोर्ट ने राज्य शासन से पूछा सवाल
दिल्ली उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार से पूछा है कि क्या दूसरे राज्य में बसने से किसी व्यक्ति की जाति बदल जाती है। यह सवाल एक कर्मचारी के गोंड जनजाति प्रमाण पत्र को रद्द करने के मामले में उठाया गया है। याचिकाकर्ता, जिसका जन्म और पालन-पोषण मध्य प्रदेश में हुआ, को बिहार में जन्म के आधार पर प्रमाण पत्र रद्द करने को चुनौती दी है। याचिका में अंतर-राज्यीय प्रवासियों के अधिकारों का मुद्दा भी उठाया गया है।

हाई कोर्ट का राज्य सरकार से सवाल
डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली। हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश संजीव सचदेवा व न्यायमूर्ति विनय सराफ की युगलपीठ ने राज्य शासन से पूछा है कि क्या दूसरे प्रदेश में बसने से किसी व्यक्ति की जाति बदल जाती है।
दरअसल, हाई कोर्ट में एक याचिका दायर कर एक कर्मचारी के गोंड जनजाति प्रमाण पत्र को अमान्य घोषित किए जाने को चुनौती दी गई है।
कोर्ट ने केंद्र व राज्य सरकार को नोटिस जारी कर जवाब मांगा है। जबलपुर निवासी विश्वनाथ साह का जन्म 1966 में जबलपुर में हुआ था। इसके पूर्व याचिकाकर्ता के माता-पिता बिहार के सिवान जिले से पलायन कर यहां आए थे।
हाई कोर्ट का राज्य सरकार से सवाल
मजदूरी कर के अपने परिवार का पालन पोषण करते थे। वर्ष 1981 में तत्कालीन कलेक्टर जबलपुर ने याचिकाकर्ता को उसके माता पिता की जाति के आधार पर गोंड जनजाति का प्रमाण पत्र जारी किया गया था।
याचिकाकर्ता की ओर से अधिवक्ता विनायक प्रसाद शाह व परमानंद साहू ने बताया कि राज्य स्तरीय उच्च-शक्ति समीक्षा समिति ने पांच अगस्त, 2025 के अपने आदेश में केवल इस आधार पर उनके जनजाति प्रमाण पत्र को रद्द कर दिया कि उनके पिता का जन्म बिहार में हुआ था।
गोंड जनजाति प्रमाण पत्र रद्द
याचिकाकर्ता का जन्म जन्म, शिक्षा और पूरा जीवन जबलपुर, मध्य प्रदेश में ही बीता है और उन्हें 1981 में ही जनजाति प्रमाण पत्र जारी किया गया था।
याचिका में अंतर-राज्यीय प्रवासियों के संबंध में जारी केंद्र और राज्य सरकार की उन अधिसूचनाओं और परिपत्रों की संवैधानिक वैधता को भी चुनौती दी गई है, जिनके अनुसार किसी अन्य राज्य में प्रवास करने वाले अनुसूचित जाति और जनजाति के व्यक्ति को मूल राज्य के स्थान पर प्रवासी राज्य में आरक्षण का लाभ नहीं मिलता।
याचिकाकर्ता का दावा है कि यह प्रविधान संविधान के अनुच्छेद 14, 16, 19(1)(ई) और 21 द्वारा प्रदत्त उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है।

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