'जाति की राजनीति करने वालों को निराश करेगी जातिवार गणना', खास बातचीत में बोले प्रो. दीपांकर गुप्ता
जातिगत जनगणना पर समाजशास्त्री प्रो. दीपांकर गुप्ता का मानना है कि यह अनावश्यक है। अंग्रेजों ने फूट डालो और राज करो की नीति के तहत इसे शुरू किया था। राजनीतिक दलों को इससे फायदा नहीं होगा क्योंकि किसी भी क्षेत्र में एक जाति का दबदबा नहीं है।उन्होंने कहा कि जाति जनगणना के निष्कर्षों को आरक्षण के अलावा अन्य उपयोगों के लिए रखा जाए ताकि सामाजिक उत्थान हो सके।

रुमनी घोष, नई दिल्ली। जातिवार गणना को लेकर अभी भले ही कोई विशेष हलचल नहीं है, लेकिन सत्ता पक्ष ने संकेत दे दिया है कि आगामी बिहार विधानसभा सहित अन्य चुनावों में ऑपरेशन सिंदूर के अलावा यह भी उसका एक बड़ा मुद्दा होगा।
बेशक, इसकी प्रक्रिया पूरी होने में लंबा वक्त लगेगा, लेकिन सत्ता पक्ष-विपक्ष दोनों के ही राजनेता इससे बहुत उम्मीद लगाए बैठे हैं। हालांकि विशेषज्ञों की राय इससे बिलकुल अलग है।
जातियों पर व्यापक शोध करने वाले जाने-माने समाजशास्त्री प्रो. दीपांकर गुप्ता इसे अनावश्यक मानते हैं और स्पष्ट करते हैं कि अगर कोई दल जातियों के नाम पर सियासी किला मजबूत करने का सोच रहे हैं तो उन्हें निराशा मिलेगी। उन्हें बहुत लंबे समय तक इसका फायदा नहीं मिलेगा। चूंकि इसकी घोषणा हो चुकी है, इसलिए उनकी सलाह है कि जातिवार गणना के निष्कर्षों को आरक्षण के अलावा अन्य उपयोगों के लिए रखा जाए। अगर ऐसा नहीं किया गया तो यह एक बड़ी गलती होगी।
दैनिक जागरण की समाचार संपादक रुमनी घोष ने जातिवार गणना की प्रक्रिया-प्रस्तावना, फायदे-नुकसान, इतिहास-भविष्य और 140 करोड़ से अधिक आबादी वाले इस देश के सामने अपनी पहचान को फिर से परिभाषित करने की चुनौती पर व्यापक चर्चा की। प्रो. गुप्ता लंबे समय तक जेएनयू में सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ द सोशल सिस्टम (सीएसएसएस) के प्रोफेसर रहे। कुछ समय तक वह दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनमिक्स में भी प्रोफेसर रहे। वह भारत में सामाजिक और आर्थिक मुद्दों तथा परंपरा और आधुनिकता के बीच संबंधों पर अपने शोध के लिए जाने जाते हैं।
भारतीय रिजर्व बैंक और राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) के बोर्ड में भी सेवाएं दे चुके हैं। वह राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार परिषद के सदस्य भी रहे। दून स्कूल के निदेशक मंडल में भी थे। वह समाचार पत्रों में अपने स्तंभों के माध्यम से समाज में जाति व्यवस्था की वास्तविकताओं को सामने लाते रहे हैं, लेकिन इन दिनों वह फिक्शन कहानी लिख रहे हैं। उनकी तीन किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। प्रस्तुत हैं बातचीत के मुख्य अंश:
जाति आधारित जनगणना कितनी जरूरी है? आपकी क्या राय है?
अगर आप मेरी राय पूछ रहे हैं तो मुझे तो यह बिल्कुल भी जरूरी नहीं लगती... यह अनावश्यक है।
अनावश्यक क्यों?
क्या आपको पता है कि भारत में अंग्रेजों ने पहली बार जाति आधारित जनगणना इसलिए कराई थी, क्योंकि वे 'फूट डालो और राज करो' की नीति लागू करना चाहते थे। वर्ष 1891- 1901 के बीच इस पर चर्चा शुरू हुई और प्रक्रिया तय हुई।
अंग्रेजों ने वर्ष 1921 और 1931 में जाति आधारित जनगणना कराई। इसके पीछे उनका मकसद 'फूट डालो और राज करो' की नीति लागू करना और पूरे देश को जातियों में बांटना था।
पहले विपक्ष हंगामा करता था और भाजपा मना करती थी। अब भाजपा सरकार कैसे राजी हो गई? क्या इसे न करने से कोई नुकसान हो रहा था?
यह सिर्फ एक राजनीतिक कदम है।
आपने खुद जाति आधारित जनगणना पर शोध किया है। निष्कर्ष क्या निकला था?
हां, यह 1994 के आसपास की बात होगी...उस समय मैंने अंग्रेजों द्वारा वर्ष 1931 में की गई जाति जनगणना के नक्शे के आधार पर एक सर्वे किया था। स्वतंत्र भारत में वर्ष 1990 में जाति आधारित जनगणना की मांग उस समय पहली बार उठी थी। जाहिर है, यह राजनीतिक दलों ने उठाई थी। तब भी मैं इससे सहमत नहीं था। मुझे डर था कि कहीं कोई राजनीतिक दल जाति की राजनीति से फायदा न उठा ले और यह जानने के लिए मैंने व्यापक शोध किया था।
तो क्या आपकी आशंका सही थी? जाति आधारित जनगणना से राजनीति से किसी राजनीतिक दल को फायदा नहीं होगा?
बिल्कुल। करीब 35 साल पहले की गई रिसर्च में मुझे पूरे देश में सिर्फ दो ही ऐसे क्षेत्र मिले जहां एक जाति का दबदबा था। इनमें से एक तमिलनाडु का तंजावुर है, जहां ब्राह्मणों का दबदबा है और दूसरा महाराष्ट्र के कुछ इलाकों में मराठों का क्षेत्र है।
अगर राज्यों की बात करें तो पंजाब के कुछ हिस्सों को शामिल किया जा सकता है। इसके अलावा किसी भी विधानसभा या लोकसभा क्षेत्र में एक जाति का दबदबा नहीं है। दूसरी जातियों के लोग भी वहां हैं और चुनाव जीतने के लिए उनके वोटों की भी जरूरत होती है। जो नेता अभी जीत रहे हैं, उन्हें भी दूसरी जातियों के वोट मिल रहे हैं। अगर उन्हें जातियों और उपजातियों में बांट दिया गया तो वे सारे वोट मिलना उनके लिए मुश्किल हो जाएगा।
क्या 35 साल में हालात नहीं बदले हैं?
निश्चित रूप से बदले होंगे। मैं यही कहना चाहता हूं कि उस समय भी जाति आधारित जनगणना का फायदा किसी राजनीतिक दल को नहीं दिख रहा था। अब तो हालात और भी बदल गए हैं। लोग तेजी से जगह बदल रहे हैं। डेमोग्राफी बदल रही है। ऐसे में जाति आधारित जनगणना उन्हें और भी निराश करेगी।
मेरा दृढ़ विश्वास है कि जो लोग जाति को लेकर ज्यादा संवेदनशील हैं, वे जाति की राजनीति नहीं कर सकते, क्योंकि उन्हें दूसरी जातियों से वोट मांगने होंगे। यदि जाति की ही राजनीति करनी है तो आदर्श रूप से, उन्हें न तो उनसे वोट मांगना चाहिए और न ही उनके वोट स्वीकार नहीं करना चाहिए।
क्या आप इसे मौजूदा राजनीति के कुछ उदाहरणों से स्थापित कर सकते हैं?
चौधरी चरण सिंह... जाट नेता। क्या आज उनके पोते का अपनी बिरादरी में वही राजनीतिक रुतबा है? क्या मायावती और लालू यादव का अपनी बिरादरी में वही रुतबा है जो पहले था? या उनकी आने वाली पीढ़ी को वह रुतबा मिलेगा? अब जानिए इसके पीछे क्या कारण है... दरअसल, पचास या साठ साल पहले इन बिरादरियों के लोगों में ये कुछ ही ऐसे चेहरे थे जो अपनी बात रख सकते थे।
लोगों को अपनी बात रखने के लिए उनके पास जाना पड़ता था। एक तरह से वे नेता उनके प्रवक्ता थे, लेकिन अब ऐसा नहीं है। आज हर बिरादरी के अलग-अलग क्षेत्रों में कई हीरो हैं। जिनसे वे अपनी बात कह सकते हैं और वे हीरो समाज में उनके लिए जगह बनाते हैं। ऐसे में समाज के लोग अब इन नेताओं की राजनीति का हिस्सा बनने के लिए मजबूर नहीं हैं। इतना ही नहीं, उनके पास राजनीति में नेताओं को चुनने के कई विकल्प भी हैं।
जब जातिवार जनगणना की घोषणा हो गई है, तो सरकार को क्या करना चाहिए?
मैं फिर कहूंगा कि अगर यह नहीं होता तो बेहतर होता, लेकिन अब जब इसकी घोषणा हो गई है तो सरकार को बिना किसी पूर्वाग्रह और राजनीतिक मंशा के व्यापक रूप से डाटा इकट्ठा करना चाहिए। ...और इस डाटा का उपयोग करना सरकार के हाथ में है। सरकार को इस डाटा का उपयोग उन जातियों की पहचान करने के लिए करना चाहिए, जो इतने वर्षों की आजादी के बाद भी पिछड़ी रह गई हैं। खासकर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति पर फोकस करते हुए गरीबी उन्मूलन के कार्यक्रम तैयार करें।
राजनीतिक दलों से लेकर विशिष्ट समुदायों के नेता तक इसी के आधार पर आरक्षण की मांग कर रहे हैं। आपकी राय?
सरकार यह गलती न करें। चाहे जाति के आधार पर आरक्षण हो या गरीबी के आधार पर आरक्षण, जाति आधारित जनगणना के आधार पर कोई आरक्षण नहीं होना चाहिए। सरकार को इसका उपयोग सामाजिक उत्थान के लिए करना चाहिए। बाबा साहेब आंबेडकर की आरक्षण नीतियों को लेकर कई धारणाएं हो सकती हैं, लेकिन वह एक महान राजनीतिक सिद्धांतकार थे। आरक्षण देने के पीछे के उद्देश्य का जिक्र करते हुए उन्होंने बार-बार नागरिकता और भाईचारे के उत्थान की बात की।
अब प्रक्रिया की बात करते हैं... सरकार के पास अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) के लिए बहुत सारा डेटा है, लेकिन ओबीसी की गणना को लेकर काफी भ्रम हैं। क्यों?
यह सच है कि ओबीसी की गणना सबसे कठिन होगी। मंडल आयोग की सूची सामाजिक पिछड़ेपन, शैक्षिक पिछड़ेपन और आर्थिक पिछड़ेपन पर आधारित है। अब, उदाहरण के लिए, यदि हम बंगाल के एक किसान और पंजाब के एक किसान की तुलना करें, तो पंजाब के किसान आर्थिक रूप से बहुत सक्षम हैं। जबकि बंगाल के किसान (जिन्हें वे स्थानीय भाषा में चाशा-बोशा कहते हैं) काफी पिछड़े हुए हैं।
सरकार के सामने चुनौती यह होगी कि वह विभिन्न राज्यों के किसानों को उनकी आर्थिक-सामाजिक-शैक्षिक स्थिति के आधार पर किस श्रेणी में रखे। आरक्षण का क्या और कितना लाभ किसे मिलना चाहिए। राजस्थान में मीणा और गुर्जरों के लिए भी यही स्थिति है। भ्रम की एक बड़ी स्थिति पैदा होगी, जो 'जेड' जाति है। यदि उन्हें आरक्षण का लाभ देना है, तो उन्हें किस श्रेणी में रखा जाएगा।
यह जेड जाति क्या है?
अगर माता-पिता अलग-अलग जाति या समुदाय के हैं तो उनकी संतान (बच्चे) को 'जेड' जाति कहा जाता है। दरअसल, आरक्षण का लाभ लेने के लिए कोई पिता की जाति अपनाएगा, कोई मां की जाति अपनाएगा तो उनकी पहचान कैसे होगी? इसी भ्रम की वजह से मैं बार-बार कह रहा हूं कि जाति आधारित जनगणना और आरक्षण को पूरी तरह से अलग रखा जाए। इसके जरिये आरक्षण निर्धारित नहीं होना चाहिए। आरक्षण सिर्फ सामाजिक उत्थान के लिए होना चाहिए। किसी भी समुदाय की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए सरकारी कल्याणकारी योजनाएं होनी चाहिए।
बिहार में जब जाति जनगणना हुई तो 214 जातियों के कालम बनाए गए। इसके बावजूद राज्य सरकार के पास दो लाख शिकायतें अभी भी लंबित हैं। आरोप है कि कि उनकी जाति का उल्लेख नहीं है। भारत में कितनी जातियां होने का अनुमान है?
इसका कोई अनुमान मेरे पास नहीं है। मेरा मानना है कि हमारी पुरानी व्यवस्था के अनुसार चार जातियां (ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र और वैश्य) थीं। सिर्फ वही मान्य हैं। बाकी उपजातियों का कोई औचित्य नहीं है और होना भी नहीं चाहिए। बिहार के इस मामले से समझा जा सकता है कि यदि जातिवार जनगणना में उपजातियों का उल्लेख करने से आने वाले समय में कितना भ्रम पैदा हो सकता है।
जाति जनगणना का सबसे ज्यादा विरोध सवर्ण समुदाय से आ रहा है? क्या सवर्ण समुदाय को डर सता रहा है कि 50 फीसदी कोटे में उनका हिस्सा कम हो जाएगा?
निश्चित तौर पर। अगर सवर्णों का हिस्सा कुल आबादी का 20 फीसदी है तो कोटा निश्चित तौर पर कम होगा।
क्या असर होगा? क्या मंडल आयोग के समय हुए विरोध प्रदर्शन जैसी स्थिति होगी?
नहीं, मंडल आयोग के समय हुए देशव्यापी विरोध प्रदर्शन जैसी स्थिति की कोई संभावना नहीं है। हां, इसका सबसे ज्यादा असर सरकारी क्षेत्र में दिखेगा और उस स्थिति में सवर्णों को निजी क्षेत्र में अवसर तलाशने होंगे।
इन तमाम परिस्थितियों के बावजूद जब सरकार जाति जनगणना कराए तो किन बातों का ध्यान रखना चाहिए?
अगर जनगणना करानी है, तो सरकार को इसे विस्तार से और वैज्ञानिक तरीके से करना चाहिए। मेरी राय में इसमें दस साल लग सकते हैं। और सरकार को इसमें जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। मुख्य रूप से तीन बिंदुओं पर ध्यान देना चाहिए - समान नागरिकता, गरीबी उन्मूलन योजनाएं और अस्पृश्यता।
अगर पायलट प्रोजेक्ट शुरू करना है तो किन राज्यों को चुनना चाहिए?
इसकी शुरुआत छत्तीसगढ़ या झारखंड से हो सकती है। यह आदिवासी बहुल क्षेत्र है। यहां विविधता ज्यादा होगी और तनाव कम होगा। किसी भी काम की शुरुआत में अगर तनाव या विवाद होता है तो उसे पूरा करना मुश्किल हो जाता है।
विपक्ष बार-बार तेलंगाना माडल लागू करने की बात कर रहा है। यह क्या है?
चाहे तेलंगाना हो या कर्नाटक माडल... सभी में विवाद की स्थिति है। सरकार के पास दो विकल्प हैं। जाति जनगणना का उपयोग आरक्षण देने के लिए करें या विकास के लिए। मेरा सुझाव है कि सिर्फ जाति का पता लगाने के बजाय पिछड़े वर्गों के उत्थान के लिए सरकारी धन का उपयोग किया जाना चाहिए।
जो लोग जाति की राजनीति करना चाहते हैं, उन्हें अपना शोध खुद करना चाहिए। सरकार लोगों द्वारा दिए गए टैक्स की राशि से उनका काम क्यों करें, जो अपने फायदे के लिए यह जनगणना करवाना चाहते हैं।
शायद दुनिया में उतनी जातियां नहीं हैं जितनी भारत में हैं? इसके बावजूद क्या कहीं ऐसी जनगणना का कोई माडल है?
जातियों के आधार पर नहीं, लेकिन भाषा के आधार पर कई देशों में ऐसा विभाजन है। जैसे कनाडा, स्पेन। कनाडा में फ्रेंच और कनाडाई भाषाओं को लेकर संघर्ष और विभाजन दोनों हैं। स्पेन के एक हिस्से में स्पेनिश के अलावा बास्क स्पेनिश बोली जाती है। उनके बीच बहुत विरोध और संघर्ष है।
लोग कहते हैं कि भारत में इतनी जातियां हैं, इसलिए हम लड़ते रहते हैं। यह सच नहीं है। लड़ना मानवीय प्रवृत्ति है। अगर उनके बीच कोई अंतर (विरोध) है, तो लोग उस पर लड़ना शुरू कर देंगे। हर कोई अपना अलग प्रभुत्व चाहता है।
ख्यातनाम जर्मन लेखक और नाटककार बर्टोल्ट ब्रेख्त कहते थे कि "कला को वास्तविकता का दर्पण नहीं होना चाहिए, बल्कि उस दर्पण को तोड़ना चाहिए। यानी जो वास्तव में है, उसे प्रतिबिंबित करने का कोई मतलब नहीं है। वास्तविकता को बदलने की जरूरत है। मुझे लगता है कि जातिवार जनगणना का उपयोग भी वास्तविकता को बदलने और एक नई तस्वीर बनाने के लिए किया जाना चाहिए।
प्रो. दीपांकर गुप्ता, समाजशास्त्री

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