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भगत सिंह की फांसी ही नहीं, इसलिए याद किया जाना चाहिए 23 मार्च

शहीद ए आजम भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को 23 मार्च 1931 को अंग्रेजों ने फांसी पर लटका दिया था। लेकिन इस दिन को सिर्फ इन क्रांतिवीरों के शहीदी दिवस के रूप में नहीं देखना चाहिए।

By Digpal SinghEdited By: Published: Thu, 22 Mar 2018 06:00 PM (IST)Updated: Fri, 23 Mar 2018 01:00 AM (IST)
भगत सिंह की फांसी ही नहीं, इसलिए याद किया जाना चाहिए 23 मार्च
भगत सिंह की फांसी ही नहीं, इसलिए याद किया जाना चाहिए 23 मार्च

नई दिल्ली [स्पेशल डेस्क]। 23 मार्च एक ऐसा दिन है, जो क्रांति के नाम है। 23 मार्च को सिर्फ इसलिए याद नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि इस दिन अंग्रेजों ने भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दी थी। बल्कि इसे इस रूप में याद किया जाना चाहिए कि आजादी के दीवाने तीन मस्तानों ने खुशी-खुशी फांसी के फंदे को चूमा था। इस दिन को इस रूप में याद किया जाना चाहिए कि इन तीनों ने भारत मां को गुलामी की जंजीरों से मुक्ति दिलाने के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। इस दिन को अंग्रेजों के उस डर के रूप में भी याद किया जाना चाहिए, जिसके चलते इन तीनों को 11 घंटे पहले ही फांसी दे दी गई थी। आज इन क्रांतिवीरों के शहीदी दिवस पर जानेंगे उस दिन क्या कुछ हुआ था। पहले भगत सिंह के बारे में चंद पंक्तियां...

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ऐसे थे भगत सिंह
भगत सिंह का जन्म 28 सितंबर 1907 को हुआ था। यह कोई सामान्य दिन नहीं था, बल्कि इसे भारतीय इतिहास में गौरवमयी दिन के रूप में जाना जाता है। अविभाजित भारत की जमीं पर एक ऐसे शख्स का जन्म हुआ जो शायद इतिहास लिखने के लिए ही पैदा हुआ था। जिला लायलपुर (अब पाकिस्तान में) के गांव बावली में क्रांतिकारी भगत सिंह का जन्म एक सामान्य परिवार में हुआ था। भगत सिंह को जब ये समझ में आने लगा कि उनकी आजादी घर की चारदीवारी तक ही सीमित है तो उन्हें दुख हुआ। वो बार-बार कहा करते थे कि अंग्रजों से आजादी पाने के लिए हमें याचना की जगह रण करना होगा।

और भगत सिंह ने सिर पर बांध लिया कफन...
भगत सिंह की सोच उस समय पूरी तरह बदल गई, जिस समय जलियांवाला बाग कांड (13 अप्रैल 1919) हुआ था। बताया जाता है कि अंग्रेजों द्वारा किए गए कत्लेआम से वो इस हद तक व्यथित हो गए कि पीड़ितों का दर्द बांटने के लिए 12 मील पैदल चलकर जलियांवाला पहुंचे। भगत सिंह के बगावती सुरों से अंग्रेजी सरकार में घबराहट थी। अंग्रेजी सरकार भगत सिंह से छुटकारा पाने की जुगत में जुट गई। आखिर अंग्रेजों को सांडर्स हत्याकांड में वो मौका मिल गया। भगत सिंह और उनके साथियों पर मुकदमा चलाकर उन्हें फांसी की सजा सुनाई गई।

फांसी से पहले ऐसे थे भगत सिंह के तेवर
फांसी से कई दिन पहले 3 मार्च को भगत सिंह ने अपने भाई कुलतार को भेजे एक पत्र में अपने क्रांतिकारी विचारों को कुछ इस अंदाज में लिखा कि वे अंग्रेजों की चूलें हिलाने के लिए काफी थे। आप भी पढ़ें...

उन्हें यह फिक्र है हरदम, नयी तर्ज-ए-जफा क्या है?

हमें यह शौक है देखें, सितम की इन्तहा क्या है?

दहर से क्यों खफा रहें, चर्ख का क्या गिला करें।

सारा जहां अदू सही, आओ! मुकाबला करें।।

इन जोशीली पंक्तियों से भगत सिंह के शौर्य का अनुमान लगाया जा सकता है। चन्द्रशेखर आजाद से पहली मुलाकात के समय जलती हुई मोमबती पर हाथ रखकर उन्होंने कसम खायी थी कि उनकी जिन्दगी देश पर ही कुर्बान होगी और उन्होंने अपनी वह कसम पूरी भी की।

क्या हुआ था फांसी वाले दिन...
23 मार्च 1931 को शाम में करीब 7 बजकर 33 मिनट पर भगत सिंह तथा इनके दो साथियों सुखदेव व राजगुरु को लाहौर जेल में फांसी दे दी गई। फांसी दिए जाने से पहले जब उनसे उनकी आखिरी इच्छा पूछी गई तो उन्होंने कहा कि वह लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे और उन्हें वह पूरी करने का समय दिया जाए। कहा जाता है कि जेल के अधिकारियों ने जब उन्हें यह सूचना दी कि उनकी फांसी का वक्त आ गया है तो उन्होंने कहा कि ठहरिये! पहले एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल तो ले, फिर एक मिनट बाद किताब छत की ओर उछालकर बोले कि ठीक है अब चलो...

फांसी पर जाते समय वे तीनों मस्ती से गा रहे थे...

मेरा रंग दे बसन्ती चोला, मेरा रंग दे

मेरा रंग दे बसन्ती चोला। माय रंग दे बसन्ती चोला।।

अंग्रेजों का डर
भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को जिस लाहौर षड़यंत्र केस में फांसी की सजा हुई थी, उसके अनुसार उन्हें 24 मार्च 1931 को फांसी दी जानी थी। शायद भगत सिंह व उनके क्रांतिकारी साथियों का डर ही था कि अंग्रेजी सरकार ने उन्हें 11 घंटे पहले 23 मार्च 1931 को शाम करीब साढ़े सात बजे ही फांसी पर लटका दिया। रिपोर्ट के अनुसार जिस समय इन तीनों क्रांतिकारियों को फांसी दी गई उस वक्त वहां कोई मजिस्ट्रेट नहीं था, जबकि कानूनन उन्हें मौजूद रहना चाहिए। बताया जाता है कि फांसी देने के बाद जेल के अधिकारी जेल की पिछली दीवार का हिस्सा तोड़कर उनके पार्थिव शरीरों को बाहर ले गए और गंदा सिंह वाला गांव के पास अंधरे में उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया। इसके बाद इन तीनों की अस्थियों को सतलुज नदी में बहा दिया गया।

जब भगत सिंह ने सांडर्स को मारा
काकोरी कांड में राम प्रसाद बिस्मिल समेत 4 क्रांतिकारियों को फांसी और 16 क्रांतिकारियों को जेल की सजा से भगत सिंह काफी परेशान हो गए। चन्द्रशेखर आजाद के साथ उनकी पार्टी हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन से जुड़ गए और संगठन को नया नाम हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन दिया। इस संगठन का मकसद सेवा, त्याग और पीड़ा झेल सकने वाले नवयुवक तैयार करना था। भगत सिंह ने राजगुरु के साथ मिलकर 17 दिसम्बर 1928 को लाहौर में सहायक पुलिस अधीक्षक रहे अंग्रेज अधिकारी सांडर्स को मारा था। इस कार्रवाई में क्रांतिकारी चन्द्रशेखर आजाद ने उनकी पूरी मदद की थी। क्रांतिकारी साथी बटुकेश्वर दत्त के साथ मिलकर भगत सिंह ने वर्तमान में नई दिल्ली स्थित ब्रिटिश भारत की तत्कालीन सेंट्रल एसेम्बली के सभागार संसद भवन में 8 अप्रैल 1929 को अंग्रेज सरकार को जगाने के लिए बम और पर्चे फेंके थे। बम फेंकने के बाद वहीं पर दोनों ने अपनी गिरफ्तारी भी दी।

कॉलेज से ही क्रांतिकारी बनने तक
1923 में भगत सिंह ने लाहौर के नेशनल कॉलेज में दाखिला लिया। कॉलेज के दिनों में उन्होंने कई नाटकों राणा प्रताप, सम्राट चंद्रगुप्त और भारत दुर्दशा में हिस्सा लिया था। वह लोगों में राष्ट्रभक्ति की भावना जगाने के लिए नाटकों का मंचन करते थे। भगत सिंह रूस की बोल्शेविक क्रांति के प्रणेता लेनिन के विचारों से काफी प्रभावित थे। भगत सिंह महान क्रांतिकारी होने के साथ विचारक भी थे। उन्होंने लाहौर की सेंट्रल जेल में ही अपना बहुचर्चित निबंध 'मैं नास्तिक क्यों हूं' लिखा था। इस निबंध में उन्होंने ईश्वर की उपस्थिति, समाज में फैली असमानता, गरीबी और शोषण के मुद्दे पर तीखे सवाल उठाए थे।

स्कूली शिक्षा के दौरान ही भगत सिंह ने यूरोप के कई देशों में तख्ता-पलट और क्रांति के बारे में पढ़ना शुरू किया। उन्होंने नास्तिक क्रांतिकारी विचारकों को पढ़ा और उनका झुकाव क्रांतिकारी विचारधारा की तरफ होने लगा। भगत सिंह ने बहुत कम उम्र में ही देश-विदेश के साहित्य, इतिहास और दर्शन का अध्ययन कर लिया था। इन्हीं विचारों की बदौलत देश में जब हर ओर राजनीतिक स्वतंत्रता की बात हो रही थी, भगत सिंह और उनके साथी आर्थिक स्वतंत्रता और समानता पर भी जोर दे रहे थे।


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