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विश्वसनीयता और लोकप्रियता के एसिड टेस्ट में फिर खरे उतरे नरेंद्र मोदी

यह मानकर चलिए कि गुजरात में जिस तरह कांग्रेस ने सॉफ्ट हिंदुत्व को साधने की कोशिश की है वह आगे भी कायम रहेगी।

By Tilak RajEdited By: Published: Tue, 19 Dec 2017 09:59 AM (IST)Updated: Tue, 19 Dec 2017 01:21 PM (IST)
विश्वसनीयता और लोकप्रियता के एसिड टेस्ट में फिर खरे उतरे नरेंद्र मोदी
विश्वसनीयता और लोकप्रियता के एसिड टेस्ट में फिर खरे उतरे नरेंद्र मोदी

नई दिल्‍ली, प्रशांत मिश्र। गुजरात और हिमाचल प्रदेश का नतीजा भी वही आया जो लोकसभा चुनाव के बाद से ज्यादातर दिखता रहा था। जनता ने भाजपा को ही सिर-आंखों पर बिठाया। गुजरात मॉडल बरकरार रह गया। चेहरा, मुद्दा और प्रबंधन के मापदंड पर भाजपा अन्य दलों की तुलना में जहां खड़ी है, उसमें यह आश्चर्य की बात भी नहीं है। फिर से स्थापित हो गया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विश्वसनीयता और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के प्रबंधन की काट विपक्ष के पास नहीं है।

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लेकिन सवाल यह खड़ा हो गया है कि विपक्षी पार्टियां और खासकर कांग्रेस क्या जनता और जमीन के मूड का आकलन करने में पूरी तरह अक्षम हो गई है? यह सच है कि कांग्रेस की कुछ सीटें बढ़ी हैं, लेकिन क्या यह सचमुच में कांग्रेस के लिए संजीवनी है, खास तौर पर तब, जबकि इसका श्रेय गुजरात के कुछ युवा तुर्कों को दिया जा रहा है।

गुजरात विधानसभा चुनाव जाहिर तौर पर हाल के कुछ मुश्किल चुनावों में गिना जाएगा। कारण भी है- हरियाणा, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड से अलग भाजपा उस गुजरात में चुनाव लड़ रही थी, जहां वह 22 वर्षों से सत्ता में थी। लंबे अरसे बाद मुख्यमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी का चेहरा नहीं था। पाटीदार बिदके हुए थे और जीएसटी जैसे मुद्दों को हवा देकर कांग्रेस ने व्यापारियों की नाराजगी को भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। इससे इनकार करना संभव नहीं होगा कि खुद मोदी और शाह इन कारणों के असर को भी समझ रहे थे।

यही वजह थी कि दूसरी ओर से भी कोई कसर नहीं छोड़ी गई। खुद मोदी ने जहां लगभग ढाई दर्जन रैलियां कीं, वहीं बदजुबानी करने वाले मणिशंकर अय्यर से लेकर पाकिस्तान और अफजल तक हर मुद्दे को धार देने में कोई चूक नहीं हुई। अब युद्ध में तो सब कुछ जायज होता है और गुजरात चुनाव सियासी युद्ध से कम भी नहीं था।

राहुल गांधी ने अभी-अभी औपचारिक रूप से कांग्रेस की कमान संभाली है और हिमाचल के रूप में एक और राज्य हाथ से निकल गया। गुजरात के नतीजों ने मलहम का काम किया होगा और उधार के कांधों के सहारे ही सही यह कहने का अवसर भी दिया कि वह मोदी के गृह राज्य में भाजपा को टक्कर देने की स्थिति तक पहुंची। शायद यह भविष्य के लिए जोश जगाने में सफल हो और विपक्षी एकजुटता के लिए कुछ गोंद का काम भी करे। लेकिन यह सवाल बरकरार है कि मुद्दे और समीकरण अनुकूल होते हुए भी कांग्रेस सत्ता की दौड़ में पीछे छूट गई तो फिर आगे का रास्ता आसान कैसे माना जाए। ध्यान रहे कि भाजपा अध्यक्ष अमित शाह अगले लंबे वक्त तक केंद्र में भाजपा सरकार का दावा कर रहे हैं। इसका कारण भी है और गुजरात चुनाव ने उसे पुष्ट भी किया है। कारण है जनता और कार्यकर्ता से कांग्रेस का कटाव व वर्तमान राजनीति की कम समझ।

कांग्रेस ने उस विकास को पागल करार दे दिया जो अब चुनावी मुद्दा बनने लगा है। जब तक बात समझ में आती और उसे वापस लेते, जनता ने दूरी बना ली। कांग्रेस में खुद की पार्टी और नेताओं पर भरोसे का आलम तो यह रहा कि तीन बाहरी युवाओं को सिर पर चढ़ा लिया और अपने बेगाने हो गए। ऐसे में कार्यकर्ता कितने सधेंगे यह किसी से छिपा नहीं है। लेकिन सबसे बड़ी भूल तो यह हो गई कि राज्य में जिस कांग्रेस के पास 37-38 फीसदी वोट है, उसने भी खुद को नाजुक कर दिया। यानी अब किसी भी राज्य में कोई भी नया अपरिपक्व युवा कोई संवेदनशील मुद्दा लेकर खड़ा हो सकता है और दावा कर सकता है कि कांग्रेस उसकी मुट्ठी में है। सत्ता की हताशा में ऐसी राजनीति न तो जनता को पसंद है और न ही किसी भी पुराने कार्यकर्ता को रास आएगी।

हिमाचल प्रदेश तो और भी अनूठा उदाहरण है, जहां कांग्रेस लड़ ही नहीं रही थी। सही मायने में तो वीरभद्र सिंह के रूप में एक बागी मैदान में था जो कांग्रेस आलाकमान के आदेश-निर्देश से परे था। कांग्रेस उनकी जिद मानने को मजबूर थी। ज्यादा अहम यह है कि कांग्रेस क्या जनता की भावना और अपेक्षाओं से भी दूर है? हाल की बात करते हैं, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब समेत कुछ अन्य राज्यों के चुनाव में कांग्रेस ने नोटबंदी और सर्जिकल स्ट्राइक को मुद्दा बनाया। मुंह की खानी पड़ी। विकास का मुद्दा वहां उठाया जो देश के तीन-चार विकसित राज्यों की सूची में है और जहां विकास दर राष्ट्रीय विकास दर से ऊपर रही है।

हां, यह मानकर चलिए कि गुजरात में जिस तरह कांग्रेस ने सॉफ्ट हिंदुत्व को साधने की कोशिश की है वह आगे भी कायम रहेगी। यह और बात है कि इसके कारण विपक्षी गठजोड़ कितना बचेगा यह कहना भी मुश्किल है। आज राहुल सीना फाड़कर शिवभक्त होने का दावा जरूर कर लें, लेकिन यह भी सत्य है कि उनकी पार्टी की सरकार ने ही एफिडेविट देकर सुप्रीम कोर्ट में कहा था कि भगवान राम और रामसेतु ऐतिहासिक सत्य नहीं हैं। वाम दल और ममता बनर्जी सरीखी नेताओं को कांग्रेस का बदला हुआ चोला कितना रास आता है यह देखना भी रोचक होगा।

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