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जन्‍मदिन विशेष : भारतेंदु हरिश्‍चंद्र की पांच साल में ही दिख गई थी प्रतिभा, जानिये कैसे

5 वर्ष की अवस्था में ही भारतेंदु ने गद्य से लेकर कविता, नाटक और पत्रकारिता तक हिंदी का पूरा स्वरूप बदलकर रख दिया

By Arun Kumar SinghEdited By: Published: Sun, 09 Sep 2018 06:36 PM (IST)Updated: Sun, 09 Sep 2018 09:57 PM (IST)
जन्‍मदिन विशेष : भारतेंदु हरिश्‍चंद्र की पांच साल में ही दिख गई थी प्रतिभा, जानिये कैसे
जन्‍मदिन विशेष : भारतेंदु हरिश्‍चंद्र की पांच साल में ही दिख गई थी प्रतिभा, जानिये कैसे

नई दिल्‍ली, जागरण स्‍पेशल। हिन्दी साहित्य के माध्यम से नवजागरण का शंखनाद करने वाले भारतेंदु हरिश्‍चंद्र का जन्म काशी में 9 सितम्बर, 1850 को हुआ था। इनके पिता गोपालचंद्र अग्रवाल ब्रजभाषा के अच्छे कवि थे और ‘गिरिधर दास’ उपनाम से भक्ति रचनाएँ लिखते थे। घर के काव्यमय वातावरण का प्रभाव भारतेंदु पर पड़ा और पांच वर्ष की अवस्था में उन्होंने अपना पहला दोहा लिखा।
लै ब्यौड़ा ठाड़े भये, श्री अनिरुद्ध सुजान।
बाणासुर की सैन्य को, हनन लगे भगवान्।।
यह दोहा सुनकर पिताजी बहुत प्रसन्न हुए और आशीर्वाद दिया कि तुम निश्चित रूप से मेरा नाम बढ़ाओगे। भारतेंदु जब 5 वर्ष के हुए तो मां का साया सर से उठ गया और जब 10 वर्ष के हुए तो पिता का भी निधन हो गया। भारतेंदु के परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी थी। उन्होंने देश के विभिन्न भागों की यात्रा की और वहां समाज की स्थिति और रीति-नीतियों को गहराई से देखा। इस यात्रा का उनके जीवन पर बहुत प्रभाव पड़ा। वे जनता के हृदय में उतरकर उनकी आत्मा तक पहुँचे। इसी कारण वह ऐसा साहित्य निर्माण करने में सफल हुए, जिससे उन्हें युग-निर्माता कहा जाता है।

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16 वर्ष की अवस्था में उन्हें कुछ ऐसी अनुभति हुई, कि उन्हें अपना जीवन हिन्दी की सेवा में अर्पण करना है। आगे चलकर यही उनके जीवन का केन्द्रीय विचार बन गया। उन्होंने लिखा है -
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा ज्ञान कै, मिटे न हिय को सूल।।

कई भाषाओं के थे जानकार
तेज याददाश्त और स्वतंत्र सोच रखने वाले भारतेंदु कई भारतीय भाषाओं के जानकार थे। उन्होंने अपनी मेहनत से संस्कृत, पंजाबी, मराठी, उर्दू, बांग्ला, गुजराती भाषाएँ सीखीं। हालांकि, अंग्रेज़ी उन्होंने बनारस में उस दौर के मशहूर लेखक राजा शिवप्रसाद सितारे हिंद से सीखी।

वे गद्यकार, कवि, नाटककार, व्यंग्यकार और पत्रकार थे। भारतेंदु ने हिन्दी में ‘कवि वचन सुधा’ पत्रिका का प्रकाशन किया। वे अंग्रेजों की खुशामद के विरोधी थे। पत्रिका में प्रकाशित उनके लेखों में सरकार को राजद्रोह की गंध आयी। इससे उस पत्र को मिलने वाली शासकीय सहायता बंद हो गयी; पर वे अपने विचारों पर दृढ़ रहे। वे समझ गये कि सरकार की दया पर निर्भर रहकर हिंदी और हिंदू की सेवा नहीं हो सकती।
हिंदी में नाटकों की शुरुआत भारतेंदु हरिश्चंद्र से मानी जाती है। नाटक भारतेंदु के समय से पहले भी लिखे जाते थे, लेकिन बाकायदा तौर पर खड़ी बोली में नाटक लिखकर भारतेंदु ने हिंदी नाटकों को नया आयाम दिया। भारतेन्दु के नाटक लिखने की शुरुआत बांग्ला के विद्यासुंदर (1867) नाटक के अनुवाद से हुई। भारतेंदु की राष्ट्रीय भावना का स्वर ‘नील देवी’और ‘भारत दुर्दशा’ नाटकों में दिखाई देता है। कई साहित्यकार तो 'भारत दुर्दशा' नाटक से ही राष्ट्र भावना के जागरण का प्रारम्भ मानते हैं। भारतेंदु हरिश्‍चंद्र ने अनेक विधाओं में साहित्य की रचना की। उनके साहित्यिक व्यक्तित्व से प्रभावित होकर पण्डित रामेश्वर दत्त व्यास ने उन्हें ‘भारतेंदु’ की उपाधि से विभूषित किया।

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प्रख्यात साहित्यकार डॉ. श्यामसुन्दर व्यास ने लिखा है - 'जिस दिन से भारतेंदु हरिश्‍चंद्र ने अपने 'भारत दुर्दशा' नाटक के प्रारम्भ में समस्त देशवासियों को सम्बोधित कर देश की गिरी हुई अवस्था पर आंसू बहाने को आमंत्रित किया, इस देश और यहां के साहित्य के इतिहास में वह दिन किसी अन्य महापुरुष के जन्म-दिवस से किसी प्रकार कम महत्वपूर्ण नहीं है'।
खड़ी बोली के सरल रूप को स्थापित किया
आलोचकों की नजर में भारतेंदु हरिश्चंद्र का प्रमुख योगदान हिंदी भाषा को नई चाल में ढालने का माना जाता है। उनसे पहले हिंदी भाषा में दो तरह के ‘स्कूल’ चलते थे। एक राजा लक्ष्मण सिंह की संस्कृ​तनिष्ठ हिंदी और दूसरा राजा शिवप्रसाद ‘सितारेहिंद’ की फारसीनिष्ठ शैली का। दोनों ही शैलियां अपनी अति को छू रही थीं। एक हिंदी भाषा में संस्कृत के शब्दों को चुन-चुनकर डाल रही थी तो दूसरा फारसी के शब्दों को। हरिश्चंद्र बाबू ने इन दोनों प्रवृत्तियों का मिलन कराया।
उन्होंने अपनी पत्रिका ‘हरिश्चंद्र मैगजीन’ में 1873 से हिंदी की नई भाषा को गढ़ना शुरू किया। इसके लिए उन्होंने खड़ी बोली का आवरण लेकर उसमें उर्दू के प्रचलित शब्दों का प्रयोग किया। वहीं तत्सम और उससे निकले तद्भव शब्दों को भी पर्याप्त महत्व दिया। इसके साथ ही उन्होंने कठिन और अबूझ शब्दों का प्रयोग वर्जित कर दिया। भाषा के इस रूप को हिंदुस्तानी शैली कहा गया, जिसे बाद में प्रेमचंद जैसे साहित्यकारों ने आगे और परिष्कृत किया। हालांकि कविता में वे खड़ी बोली के बजाय ब्रज का ही इस्तेमाल करते रहे।


वे एक श्रेष्ठ पत्रकार भी थे
भारतेंदु एक श्रेष्ठ पत्रकार भी थे। उन्होंने बालाबोधनी, कविवचन सुधा और हरिश्चंद्र मैगजीन (बाद में हरिश्चंद्र पत्रिका) जैसी पत्रिकाओं का प्रकाशन और संपादन कर साहित्य से अलग विषयों और समस्याओं पर लिखा। इन पत्रिकाओं के जरिए उन्होंने न केवल नई किस्म की भाषा का विकास किया बल्कि आधुनिक भारत की समस्याओं पर भी खुलकर चिंतन किया। वे इन पत्रिकाओं के जरिए अक्सर देशप्रेम विकसित करने की कोशिश किया करते थे। हरिश्चंद्र बाबू ने इन पत्रिकाओं के लिए ढेरों निबंध, आलोचना और रिपोर्ताज लिखे।
आलोचकों के अनुसार इन विधाओं की स्थापना भारतेंदु और इनके साथियों के प्रयासों से ही हुई। अपनी पत्रिकाओं में विविध विषयों पर लिखे अपने लेखों से उन्होंने अन्य लेखकों को भी प्रेरित किया। आलोचकों के अनुसार उनके साथी बालकृष्ण भट्ट और प्रताप नारायण मिश्र की लेखनी पर भारतेंदु का स्पष्ट प्रभाव दिखता था. उन्होंने दिखाया कि कैसे साहित्य से इतर विधाओं में भी आम-जीवन से जुड़े विषयों पर लिखा जा सकता है। इन वजहों से उनकी पत्रिका लोगों में हिंदी के प्रति अभिरुचि विकसित करने में कामयाब हुई।

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सामाजिक सरोकारों से भी जुड़े रहे 
साहित्य निर्माण में डूबे रहने के बाद भी वे सामाजिक सरोकारों से अछूते नहीं थे। उन्होंने स्त्री शिक्षा का सदा पक्ष लिया। 17 वर्ष की अवस्था में उन्होंने एक पाठशाला खोली, जो अब हरिश्‍चंद्र डिग्री कॉलेज बन गया है। यह हमारे देश, धर्म और भाषा का दुर्भाग्य रहा कि इतना प्रतिभाशाली साहित्यकार मात्र 35 वर्ष की अवस्था में ही 1885 में काल के गाल में समा गया। इस अवधि में ही उन्होंने 75 से अधिक ग्रंथों की रचना की, जो हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि हैं। इतने ही समय में उन्होंने गद्य से लेकर कविता, नाटक और पत्रकारिता तक हिंदी का पूरा स्वरूप बदलकर रख दिया
भारतेंदु की कृतियां
मौलिक नाटक- वैदेही हिंसा हिंसा न भवति (1873), सत्य हरिश्चन्द्र (1817), श्रीचंद्रावली (1876), विषस्य निषमौषधम (1876), भारत दुर्दशा (1880), नीलदेवी (1881), अंधेरी नगरी (1881) |
काव्य कृतियां- भक्त सर्वस्व, प्रेम मालिका (1871), प्रेम माधुरी (1875), प्रेम तरंग (1877), प्रेम प्रलाप (1877), होली (1879), मधुमुकुल (1881), प्रेम फुलवारी (1883), सुमनांजलि, फूलों का गुच्छा (1882), कृष्ण चरित्र (1883) |
यात्रा वृत्तान्त – सरयू पार की यात्रा, लखनऊ की यात्रा |
जीवनी – सूरदास, जयदेव, महात्मा मोहम्मद |
इतिहास- अग्रवालों की उत्पत्ति, महाराष्ट्र देश का इतिहास तथा कश्मीर कुसुम | 


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