महाराष्ट्र चुनाव के बाद विपक्ष के आरोपों के दबाव में आयोग ने SIR का फैसला लिया होगा: ओपी रावत
पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त ओपी रावत ने बिहार में मतदाता सूची के विशेष सघन पुनरीक्षण (एसआईआर) पर अपनी राय व्यक्त की। उन्होंने कहा कि आयोग की मंशा पर शक नहीं किया जाना चाहिए लेकिन चुनाव से ठीक पहले एसआईआर का समय उचित नहीं है। रावत ने बताया कि बिहार में चुनाव करवाना अन्य राज्यों की तुलना में अधिक चुनौतीपूर्ण है।

रुमनी घोष, नई दिल्ली। बिहार में विधानसभा चुनाव के चंद महीने पहले भारत निर्वाचन आयोग द्वारा मतदाता सूची के विशेष सघन पुनरीक्षण (एसआइआर) करवाए जाने को लेकर मचा घमासान अभी थमा नहीं है। बेशक, सुप्रीम कोर्ट ने एसआईआर को खारिज नहीं किया है, लेकिन इसके समय पर सवाल उठाकर आयोग को कठघरे में खड़ा कर दिया है।
चुनाव के ठीक पहले इसे करवाए जाने के समय को लेकर तो मुख्य चुनाव आयुक्त रह चुके ओपी रावत भी आयोग से सहमत नहीं हैं। हालांकि उनका मानना है कि इसको लेकर निर्वाचन आयोग की मंशा पर शक नहीं किया जाना चाहिए। वह कहते हैं कि मुझे लगता है कि आयोग ने महाराष्ट्र चुनाव के दौरान विपक्ष द्वारा लगातार लगाए जा रहे आरोपों के दबाव में यह फैसला लिया होगा, ताकि निष्पक्षता पर सवाल न उठे।
उत्तर प्रदेश में जन्मे, बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में पढ़े और मध्य प्रदेश कैडर के आइएएस बनकर भारत सरकार के मुख्य चुनाव आयुक्त पद तक पहुंचे ओपी रावत ने अपने कार्यकाल में पहला चुनाव बिहार में ही करवाया था। वर्ष 2015-18 तक लगभग तीन साल के कार्यकाल में उन्होंने 22 राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों बिहार, तमिलनाडु, केरल, बंगाल, असम, पुडुचेरी, उत्तर प्रदेश, गोवा, पंजाब, उत्तराखंड, मणिपुर, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, मेघालय, नगालैंड, त्रिपुरा, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान, तेलंगाना, छत्तीसगढ़ और मिजोरम में चुनाव करवाए। राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव भी उनके कार्यकाल में हुए।
मध्य प्रदेश में इंदौर और नरसिंहपुर जिला कलेक्टर से लेकर वह मुख्यमंत्री के प्रमुख सचिव पद तक पहुंचे। महिला व बाल विकास, आदिवासी कल्याण विभाग में प्रमुख सचिव, नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण में उपाध्यक्ष व आबकारी आयुक्त के पद पर रहे। वन अधिकार अधिनियम, 2006 के कार्यान्वयन में उत्कृष्ट कार्य के लिए उन्हें प्रधानमंत्री पुरस्कार मिला।
भारत सरकार में रक्षा मंत्रालय में संयुक्त सचिव के रूप में पदस्थ रहे। दैनिक जागरण की समाचार संपादक रुमनी घोष ने उनसे विशेष सघन पुनरीक्षण और विशेष संक्षिप्त पुनरीक्षण को लेकर निर्वाचन आयोग की प्रक्रिया, ईवीएम व मतदाता सूची के जरिये वोट की चोरी का आरोप और दबाव को लेकर उनसे विस्तार से चर्चा की। प्रस्तुत हैं बातचीत के अंशः
निर्वाचन आयोग में पदस्थ होते ही आपने पहला चुनाव बिहार में ही करवाया था। क्या आपने पुनरीक्षण करवाया था?
यह बिल्कुल सही है कि वर्ष 2015 में पदभार संभालते ही सबसे पहले बिहार विधानसभा चुनाव की जिम्मेदारी मिली थी। उस समय भी पुनरीक्षण हुआ था, लेकिन वह विशेष संक्षिप्त पुनरीक्षण यानी स्पेशल समरी रिवीजन था।
हर चुनाव से पहले पुनरीक्षण होता है?
हां, पुनरीक्षण निर्वाचन आयोग की एक सामान्य प्रक्रिया है। इसमें एक होता है विशेष गहन पुनरीक्षण। विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआइआर) हर 15-20 साल के बाद एक बार करवाया जाता है। इसमें मतदाता की वैधता जांची जाती है। वहीं विशेष संक्षिप्त पुनरीक्षण (एसएसआर) हर चुनाव के पहले और एक जनवरी को होता है। इसमें सिर्फ मतदाता के नाम जोड़ते या हटाते हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने पूछा है कि क्या निर्वाचन आयोग को एसआइआर करवाने का अधिकार है? साथ में इसके समय पर भी सवाल उठाया है। बतौर पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त आपका क्या जवाब है?
बिल्कुल अधिकार है। निर्वाचन आयोग द्वारा ही वर्ष 2003 में विशेष गहन पुनरीक्षण करवाया गया था। उस समय कोई विवाद या आपत्ति नहीं आई थी।
निर्वाचन आयोग ने किसी प्रक्रिया का उल्लंघन नहीं किया है। विशेष गहन परीक्षण के लिए तय अंतराल (15 से 20 साल) भी पूरा हो चुका है। सारा विवाद सिर्फ समय का है। चुनाव के चंद महीने पहले यह प्रक्रिया संतोषजनक ढंग से पूरी हो पाने में संशय है। सुप्रीम कोर्ट ने भी यही कहा है।
यानी आप सहमत हैं कि निर्वाचन आयोग ने विशेष गहन परीक्षण के लिए जो समय चुना है, वह अनुचित और अपर्याप्त है?
हां, 22 राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों में चुनाव करवाने के अनुभव के आधार पर मेरा मानना है कि बिहार चुनाव के ठीक पहले विशेष सघन पुनरीक्षण की घोषणा करना उचित नहीं था, क्योंकि इस प्रक्रिया में जितना समय लगता है, वह न तो बिहार की जनता और न ही आयोग को मिलेगा। देखिए, विशेष सघन पुनरीक्षण के दौरान यदि मतदाता के पास मांगे गए दस्तावेज नहीं होंगे तो उनका नाम मतदाता सूची से काट दिया जाएगा।
ऐसे में मतदाता के पास इतना समय होना चाहिए कि वह अपनी दावेदारी के लिए पर्याप्त दस्तावेज जुटा सके और आयोग को उपलब्ध करवा सके। विशेष गहन पुनरीक्षण की घोषणा आमतौर पर चुनाव से कम से कम एक से डेढ़ साल पहले की जाती है या की जानी चाहिए। ताकि हर दावे-आपत्ति का निराकरण हो और सही सूची तैयार हो सके। वैसे भी एक-एक मतदाता का वोट कीमती है। छोटी-सी असावधानी में यदि एक भी मतदाता अपने मताधिकार से वंचित हो जाता है तो यह निर्वाचन आयोग का उद्देश्य और लक्ष्य पूरा नहीं होगा।
इस प्रक्रिया की जानकारी निर्वाचन आयोग के हर अधिकारी और कर्मचारी को निश्चित रूप होगी। इसमें कितना समय लगेगा, इससे भी सभी भली-भांति परिचित होंगे। फिर निर्वाचन आयोग ने यह फैसला क्यों ले लिया? आपका क्या आकलन है?
मुझे यह लगता है कि आयोग थोड़ा प्रेशर में आ गया। महाराष्ट्र चुनाव के लिए मतदाता सूची में बड़ी संख्या में गलत नाम जोड़ने की विपक्ष ने शिकायतें कीं। यह भी आरोप लगाया गया कि महाराष्ट्र चुनाव में धांधली हुई। 41 लाख वोटर जुड़ गए।
इससे आयोग पर दबाव रहा होगा कि मतदाता सूची को लेकर विपक्ष इतना नाराज है और शिकायतें कर रहा है। तो चलो कुछ एेसा कर लें कि बिहार चुनाव में इस तरह की शिकायतें न आएं। मुझे लगता है कि इस वजह से ही एसआइआर का फैसला लिया होगा।
आप आयोग पर दबाव की बात कर रहे हैं। कितना दबाव रहता है निर्वाचन आयोग के अधिकारियों व कर्मचारियों पर? क्या अन्य राज्यों की तुलना में बिहार में चुनाव करवाना ज्यादा चुनौतीपूर्ण है?
यह सही है कि अन्य राज्यों की तुलना में बिहार में चुनाव करवाना ज्यादा चुनौतीपूर्ण है। बिहार में चुनाव के दौरान काफी विवाद हुआ करते थे। वर्ष 2015 में जब मैंने बिहार में चुनाव करवाया था, उस दौरान एक भी गोली नहीं चली थी। शांतिपूर्ण मतदान हुआ था और सबकुछ बहुत ही सुचारू व प्रक्रिया के तहत पूरा हुआ था।
बावजूद इसके पोलिंग बूथ पर तैनात हमारे 17 मतदानकर्मियों की मौत हो गई थी। यह सिर्फ तनाव की वजह से था। उसी समय हम लोगों ने यह मुद्दा उठाया था कि जिन तनावपूर्ण स्थितियों में वे काम करते हैं, उसकी तुलना में कर्मचारियों के परिवारों को मिलने वाला मुआवजा (तब लगभग सात लाख रुपये मिलते थे) बहुत कम है। उसके बाद सरकार ने इसे बढ़ाकर बीस लाख रुपये किया था। अभी किसी भी मतदानकर्मी की आन ड्यूटी मृत्यु होने पर उनके परिजन को बीस लाख रुपये मिलते हैं।
यानी आपका कहना है आयोग की मंशा सही है। बस समय गलत है?
बिल्कुल। यही है।
यदि मंशा सही है तो फिर आयोग ने राशन कार्ड और आधार कार्ड को मान्य क्यों नहीं किया था? सुप्रीम कोर्ट ने अब शामिल करने का निर्देश दिया है...
देखिए, आधार कार्ड भारत में रह रहे लोगों की पहचान का प्रमाण है, नागरिकता का नहीं। भारत में रहने वाला कोई पाकिस्तानी या अन्य किसी भी देश का व्यक्ति आधार प्राप्त कर सकता है, लेकिन जिसका जन्म यहां हुआ है, वह जन्मजात भारत का नागरिक है।
जिसने जमीन खरीदी है, वह भारत का नागरिक है, क्यों कोई भी विदेशी हमारे देश में जमीन नहीं खरीद सकता है। मैं ऐसा मानता हूं कि इसी वजह से मतदाता विशेष सघन पुनरीक्षण के दौरान उन्हीं 11 दस्तावेज पर जोर दिया जाता है,
जिससे भारत की नागरिकता साबित हो। निर्वाचन आयोग ने भी यही सोचकर 11 दस्तावेज का उल्लेख किया होगा। सुप्रीम कोर्ट ने तो दोनों को शामिल करने का निर्देश दे दिया है। संभवतः 28 जुलाई को सुनवाई के दौरान आयोग इस मामले में अपना पक्ष रखेगा और स्थिति को और स्पष्ट करेगा।
आरोप लग रहा है कि आयोग बिहार में मतदान प्रतिशत नहीं सुधार पा रहा है, इसलिए बिहार में बाढ़ के प्रकोप के दौरान एसआइआर करवा रहा है। मतदाता दस्तावेज नहीं जुटा पाएंगे और उनके नाम मतदाता सूची से कट जाएंगे और आयोग को मतदान प्रतिशत सुधारने का मौका मिल जाएगा। इस पर आपका क्या कहना है?
नहीं, यह बात तथ्यात्मक रूप से गलत है। बिहार में किसी भी तरह के पुनरीक्षण के लिए यही समय सही है। बिहार में 60-70 लाख प्रवासी मजदूर हैं और अधिकांश इसी समय घर (बिहार) लौटते हैं। खरीफ की फसल के बाद वह रबी की फसल के लिए पंजाब या किसी अन्य राज्य में चले जाते हैं।
इतनी बड़ी आबादी किसी अन्य राज्य से माइग्रेट (काम के लिए एक राज्य से दूसरे राज्य) नहीं होती है। ...और जहां तक बाढ़ की बात है तो यह स्थिति महीनों तक नहीं बल्कि तीन-चार दिन ही रहती है।
विपक्ष आयोग पर पुनरीक्षण के जरिये 'वोटबंदी' या 'वोट चोरी' करने का आरोप लगा रहा है। कहा जा रहा है कि सत्तारूढ़ दल को फायदा पहुंचाने के लिए एसआइआर के जरिये विपक्ष के वोटरों के नाम काटने का षड़यंत्र है ?
यह संभव नहीं है। न पुनरीक्षण से वोट काटा जा सकता है और न ही ईवीएम से वोट इधर-उधर किया जा सकता है। मेरे कार्यकाल के दौरान भी यह आरोप लगाया गया था, तब हमने ईवीएम हैक करने का ओपन चैलेंज दिया था।
सात दिन तक सारे ईवीएम ओपन रखे थे और हमने दावा किया था कि यदि एक वोट भी इधर से उधर हो गया तो उस मशीन के सारे वोट रद कर दिए जाएंगे। उस समय भी आरोप लगाने वाले कुछ भी साबित नहीं कर पाए थे।
तो फिर इन आरोपों का कोई स्थायी व समाधानपूर्ण जवाब निर्वाचन आयोग क्यों नहीं दे पा रहा है, जिससे राजनीतिक दलों द्वारा किसी तरह का भ्रम न फैलाया जा सके?
देखिए, इसमें मैं राजनीतिक दलों को दोषी नहीं मानता हूं। दरअसल मैदानी स्तर पर उनके पास ऐसी कोई मशीनरी नहीं है, जिससे वे सही-गलत को जांच सकें। इसकी वजह से उनके कार्यकर्ता उन्हें जो बताते हैं, उसे सुनकर वह मुद्दा उठा देते हैं।
आयोग का यह काम है कि बगैर दबाव के उनके अधिकारी व कर्मचारी उन आरोपों की तथ्यात्मक ढंग से जांच करें और विपक्ष के साथ-साथ जनता को भी बताते रहें। जब बार-बार यह प्रक्रिया होगी तो जनता भी खुद-ब-खुद समझ जाएगी। ...और एक बात।
हार का ठीकरा ईवीएम पर फोड़ना आसान है, क्योंकि वह 'निरीह' है। बोलती नहीं है। किसी नेता या कार्यकर्ता पर हार का ठीकरा फोड़ने से पार्टी में वैमनस्यता व नाराजगी फैल सकती है। बेहतर है, ईवीएम को जिम्मेदार ठहरा दिया जाए।
एक देश, एक चुनाव और एक मतदाता सूची पर आपकी क्या राय है? इसे लागू करने में क्या बाधाएं हैं?
एक देश, एक चुनाव तो बिल्कुल होना ही चाहिए। एक मतदाता सूची हमारे देश में संभव नहीं है। लोकसभा, विधानसभा या नगर निगम तक के चुनाव में तो यह फिर भी संभव है, लेकिन पंचायत स्तर के चुनाव में एक ही मतदाता सूची को लागू करना संभव नहीं है। एक देश, एक चुनाव पर सहमति बनाने को लेकर तेजी से काम कर रहा है।
बिहार में 60-70 लाख प्रवासी मजदूर हैं। एसआइआर के अलावा भी यह मुद्दा उठता रहा है कि इनकी बड़ी आबादी चुनाव प्रक्रिया में भाग नहीं ले पाती है। क्या अपने कार्यकाल में आपने कोई पहल की थी?
निर्वाचन आयोग लगातार चुनाव सुधारों को लेकर काम कर रहा है लेकिन प्रवासी मजदूरों को उन्हीं के कार्यक्षेत्र में मतदान करवाने की सुविधा देने की योजना को अभी तक गति नहीं मिल पाई है। इस योजना के तहत समस्तीपुर का एक श्रमिक मजदूरी के लिए पंजाब जाता है और चुनाव के दौरान वह मतदान की इच्छा जताता है तो आयोग उसके लिए पंजाब में ही मतदान केंद्र बनाकर मतदान करवा सकता है।
बस उसे एक महीने पहले अपना नाम रजिस्टर करवाना पड़ेगा। निर्वाचन आयोग इस पर दस साल से काम कर रहा है। सरकार की ओर से भी सहमति भी है, लेकिन बहुत से राजनीतिक दलों की सहमति नहीं है। मामला सुप्रीम कोर्ट तक भी पहुंचा और आयोग ने पक्ष रखा है कि इस दिशा में सभी दलों से बातचीत कर उनकी शंकाओं का समाधान कर सहमति बनाने की कोशिश की जा रही है।
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