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गुमनाम नायक: बस्तर में आदिवासी समाज के आंदोलन ‘भूमकाल’ के नायक रहे गुंडाधुर

Bastar Bhumkal Andolan आजादी के गुमनाम नायकों में से एक रहे बस्तर के गुंडाधुर ने आदिवासियों की धरती को बचाने के लिए अंग्रेजों के विरुद्ध ‘भूमकाल’ आंदोलन का नेतृत्व किया और अंग्रेजों द्वारा तमाम छल-बल अपनाने के बावजूद वे कभी पकड़े नहीं गए।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Sat, 04 Sep 2021 01:28 PM (IST)Updated: Sat, 04 Sep 2021 01:28 PM (IST)
गुमनाम नायक: बस्तर में आदिवासी समाज के आंदोलन ‘भूमकाल’ के नायक रहे गुंडाधुर
स्वतंत्रता आंदोलन के एक गुमनाम नायक: गुंडाधुर। चित्रत्मक तस्वीर

पीयूष द्विवेदी। Bastar Bhumkal Andolan भारत अपनी स्वतंत्रता के 74 वर्ष पूरे कर स्वतंत्रता का ‘अमृत महोत्सव’ मना रहा है। ऐसे में देश के उन अमर सपूतों को याद किया जाना चाहिए जो प्राण हथेली पर लेकर स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े थे। इतिहास में स्वतंत्रता के अनेक नायकों का वर्णन मिलता है, परंतु बहुत से ऐसे नायक भी हैं, जिनके साथ इतिहास न्याय नहीं कर सका है। मुख्य रूप से 20वीं सदी के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास पर कांग्रेस के नेताओं का इतना अधिक प्रभाव है कि उसके आवरण में देश के विविध हिस्सों में स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने वाले बहुत से नायक गुमनामी में धकेल दिए गए। वर्ष 1910 में बस्तर में आदिवासी समाज के आंदोलन ‘भूमकाल’ का नेतृत्व करने वाले गुंडाधुर इतिहास के ऐसे ही गुमनाम नायक हैं।

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भूमकाल आंदोलन की बुनियाद वर्ष 1891 में पड़ी जब अंग्रेजों ने बस्तर के तत्कालीन राजा रूद्र प्रताप देव के चाचा कालेंद्र सिंह को दीवान पद से हटा दिया। रूद्र प्रताप देव अंग्रेजों के प्रति समíपत राजा थे, लेकिन दीवान के रूप में प्रशासन का जिम्मा उनके चाचा कालेंद्र सिंह के पास था और वे इसे बेहतर ढंग से निभाते भी थे। आदिवासी समाज में उनकी अच्छी लोकप्रियता थी। ऐसे में कालेंद्र सिंह को दीवान पद से हटाकर पंडा बैजनाथ को बस्तर का प्रशासन सौंपा जाना आदिवासियों को पसंद नहीं आया। अति तब हो गई जब बैजनाथ के काल में अंग्रेजों द्वारा आदिवासियों पर अत्याचार शुरू कर दिए गए। जंगल बचाने के नाम पर आदिवासियों को उनके ही जंगलों से दूर किया जाने लगा। साथ ही उनके मतांतरण का प्रयास भी किया जाने लगा। ऐसी स्थिति में, कालेंद्र सिंह ने सूत्रधार की भूमिका निभाते हुए आदिवासियों को संगठित किया और गुंडाधुर के नेतृत्व में अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र भूमकाल आंदोलन की तैयारी शुरू हो गई।

उस दौर में गुंडाधुर की अधिकतम लोगों तक ऐसी पहुंच थी कि उनके विषय में अनेक किंवदंतियां फैलने लगीं। कोई कहता कि गुंडाधुर को उड़ने की शक्ति प्राप्त है तो कोई कहता कि वह लड़ाई के समय अपने जादू से अंग्रेजों की गोलियों को पानी बना देगा। इन किंवदंतियों से इतर गुंडाधुर की जमीनी योजना-रचना ऐसी थी कि आंदोलन शुरू होने से पूर्व अंग्रेजों को इसकी कोई भनक तक नहीं लगी। लाल मिर्च लिपटी आम की डाल जिसे ‘डारा मिरी’ कहा जाता था, उसके माध्यम से पूरे क्षेत्र में भूमकाल का संदेश प्रसारित किया गया।

फरवरी 1910 में पूरे बस्तर में एक साथ भूमकाल का आगाज गुंडाधुर के संगठन कौशल और पक्की योजना का ही परिणाम था। आंदोलन की शुरुआत पुलिस चौकियों और सरकारी कार्यालयों पर हमले व बाजारों की लूट के रूप में हुई। देखते ही देखते, आंदोलनकारियों ने बस्तर के प्रमुख शहर जगदलपुर को छोड़ शेष बस्तर के अधिकांश क्षेत्रों पर अधिकार जमा लिया। अंग्रेज सिपाहियों और आजादी के मतवालों के बीच कई बार मुठभेड़ हुई, जिसमें तीर-धनुष और फरसा-भाला से लड़ने वाले आदिवासियों ने ब्रिटिश शासक के बंदूकधारी सिपाहियों को भागने पर मजबूर कर दिया।

जगदलपुर के लिए चली अंग्रेज सेना को रास्ते में कड़े संघर्ष का सामना करना पड़ा, तब जाकर वो जगदलपुर पहुंच पाई। इस बीच अंग्रेजों को आभास हो गया था कि गुंडाधुर के कुशल नेतृत्व में लड़ रहे आंदोलनकारियों से सीधे लड़कर पार पाना आसान नहीं है, इसलिए उन्होंने छल की रणनीति अपनाते हुए आदिवासियों से बातचीत का नाटक किया। अंग्रेज सेना के कप्तान ने हाथ में मिट्टी लेकर कसम खाई कि आदिवासी लड़ाई जीत गए हैं और शासन का कामकाज उनके अनुसार ही चलेगा। भोले-भाले आदिवासी कुटिल अंग्रेजों की चाल नहीं समझ पाए और मिट्टी की कसम के झांसे में आ गए।

आंदोलनकारी अलनार में एकत्रित होकर अपनी विजय का जश्न मना रहे थे तभी रात में अंग्रेजों ने उन पर अचानक हमला कर दिया। इस हमले में बहुत आदिवासी हताहत हुए। लेकिन गुंडाधुर को पकड़ना तो दूर अंग्रेज उनकी शक्ल भी नहीं देख पाए। हालांकि बाद में सोनू माझी नामक एक आंदोलनकारी लोभवश अग्रेजों से मिल गया जिस कारण गुंडाधुर के कुछ साथी पकड़ लिए गए। लेकिन तब भी अंग्रेज सरकार गुंडाधुर को नहीं पकड़ सकी। गुंडाधुर अंग्रेजों के लिए एक रहस्य ही बनकर रह गए। अंतत: अंग्रेजों को गुंडाधुर की फाइल इस टिप्पणी के साथ बंद करनी पड़ी कि ‘कोई यह बताने में समर्थ नहीं है कि गुंडाधुर कौन था।’

गुंडाधुर के अस्तित्व को लेकर अंग्रेजों की कोई भी राय रही हो, लेकिन बस्तर का आदिवासी समाज पूरी आस्था के साथ आज भी उन्हें अपना नायक मानता है। बस्तरवासी गुंडाधुर की याद में भूमकाल दिवस मनाते हैं। वर्ष 2014 में गणतंत्र दिवस के अवसर पर राजपथ पर निकली छत्तीसगढ़ की झांकी के केंद्र में गुंडाधुर को रखा गया था। यह उनके महत्व को दर्शाता है। लेकिन दुर्भाग्य कि देश के ऐसे नायक से आज देश की बड़ी आबादी परिचित नहीं है। भूमकाल 20वीं सदी का आंदोलन है, लेकिन इस दौर के आंदोलनों के इतिहास में इसकी चर्चा शायद ही कहीं हुई हो। भूमकाल और गुंडाधुर का इतिहास देश के हर व्यक्ति को जानना चाहिए, जिससे देश की युवा पीढ़ी न केवल स्वाधीनता आंदोलन में आदिवासी नायकों के योगदान से परिचित हो सके अपितु जल, जंगल और जमीन से जुड़ाव की प्रेरणा भी ले सके।

[भारतीय संस्कृति के जानकार]


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