Trending

    Move to Jagran APP
    pixelcheck
    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    Aligarh Muslim University: 'एएमयू ने अपनी मर्जी से छोड़ा था अल्पसंख्यक दर्जा', केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में रखा अपना पक्ष

    Updated: Tue, 23 Jan 2024 08:26 PM (IST)

    SC की सात न्यायाधीशों की संविधान पीठ आजकल अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के अल्पसंख्यक दर्जे पर सुनवाई कर रही है। एएमयू व अन्य याचिकाकर्ताओं ने इलाहाबाद HC के 2006 के फैसले को SC में चुनौती दी है जिसमे HC ने अजीज बाशा फैसले पर भरोसा करते हुए कहा था कि एएमयू अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है और पोस्ट ग्रेजुएट में मुस्लिम छात्रों के लिए लागू 50 फीसद आरक्षण रद कर दिया था।

    Hero Image
    अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (AMU) ( फाइल फोटो )

    जागरण ब्यूरो, नई दिल्ली। केंद्र सरकार ने मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) के अल्पसंख्यक दर्जे का विरोध करते हुए कहा कि 1920 में गठन के समय एएमयू ने अपनी मर्जी से अल्पसंख्यक दर्जा छोड़ा था। केंद्र ने कहा कि एएमयू अगर चाहता तो अपना अल्पसंख्यक दर्जा बनाए रखता और इम्पीरियल एक्ट (ब्रिटिश संसद के कानून ) के तहत शर्तें स्वीकार करके कानून के जरिये अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय न बनता।

    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    केंद्र सरकार की ओर से पक्ष रखते हुए सालिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि बहुत से संस्थानों ने ऐसा किया था और अपना अल्पसंख्यक दर्जा बरकरार रखा था जैसे कि दिल्ली का सेंट स्टीफन कालेज और जामिया मिल्लिया इस्लामिया है।

    '2006 के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी'

    सुप्रीम कोर्ट की सात न्यायाधीशों की संविधान पीठ आजकल अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के अल्पसंख्यक दर्जे पर सुनवाई कर रही है। एएमयू व अन्य याचिकाकर्ताओं ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के 2006 के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है जिसमे हाई कोर्ट ने अजीज बाशा फैसले पर भरोसा करते हुए कहा था कि एएमयू अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है और पोस्ट ग्रेजुएट में मुस्लिम छात्रों के लिए लागू 50 फीसद आरक्षण रद कर दिया था। इतना ही नहीं हाई कोर्ट ने अजीज बाशा फैसले के बाद एएमयू का अल्पसंख्यक दर्जा बहाल करने के लिए एएमयू एक्ट में 1981 में किये गए संशोधन के भी तीन प्रावधान भी यह कह कर रद कर दिये थे कि इसमें कोर्ट के फैसले को निष्प्रभावी किया गया है।

    '1920 में ब्रिटिश काल में कानून के जरिये एएमयू का गठन हुआ'

    मंगलवार को केंद्र की ओर से पक्ष रखते हुए सालिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि 1920 में ब्रिटिश काल में कानून के जरिये एएमयू का गठन हुआ था। ब्रिटिश काल में विश्वविद्यालय की उच्च शिक्षा ब्रिटिश संसदीय नीति के मुताबिक संचालित होती थी। जिसमें किसी भी विश्वविद्यालय के लिए शर्त होती थी कि वह अ- सांप्रदायिक प्रकृति का होगा और उस पर सरकार का पूरा नियंत्रण होगा। मेहता ने कहा उस समय ब्रिटिश कालीन कानून के तहत जो विश्वविद्यालय गठित हुए थे उन्हें इन दोनों शर्तों का पालन करना होता था।

    एएमयू ने अपनी मर्जी से अल्पसंख्यक दर्जा छोड़ा

    ऐसे में किसी भी संस्थान की ब्रिटिश कानून के तहत विश्वविद्यालय बनने के पहले चाहें जो प्रकृति हो कानून के बाद वह प्रकृति बदल जाती है। 1920 में एएमयू ने ब्रिटिश कानून के तहत विश्वविद्यालय बनना स्वीकार किया था और ये दोनों शर्तें भी स्वीकार की थीं इसलिए 1920 के एएमयू कानून के मुताबिक वह अल्पसंख्यक विश्वविद्यालय नहीं था। एएमयू ने अपनी मर्जी से अल्पसंख्यक दर्जा छोड़ा था और ब्रिटिश कानून के तहत विश्विद्यालय बनना और सरकारी मदद लेना स्वीकार किया था। मेहता ने कहा कि अगर एएमयू चाहता तो वह अल्पसंख्यक संस्थान बना रह सकता था जैसे और संस्थान थे।

    इस संबंध में उन्होंने देश भर के उस समय के बहुत से संस्थानों का उदाहरण और सूची पेश की। मेहता ने कहा कि उस समय एएमयू इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संबंध था वह चाहता तो अपना अल्पसंख्यक दर्जा बरकरार रखता और इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संबद्ध बना रहता जैसे सेंट स्टीफन कालेज दिल्ली विश्वविद्यालय से संबद्ध है। कहा याचिकाकर्ताओं की ये दलीलें गलत हैं कि अगर वह कानून के तहत विश्वविद्यालय नही बनते तो उनकी डिग्री को मान्यता नहीं मिलती।

    मेहता ने अपनी दलीलें साबित करने के लिए दिए कई हवाला

    मेहता ने कहा कि ब्रिटिश सरकार मान्यता चाहें न देती लेकिन वैसे अन्य संस्थानों जैसे शांति निकेतन, आइआइटी रुड़की उस समय दूसरे नाम से था, ने भी ब्रिटिश एक्ट के तहत विश्वविद्यालय का दर्जा नहीं लिया था लेकिन उनकी डिग्रियों की बहुत मान्यता थी। मेहता ने अपनी दलीलें साबित करने के लिए एएमयू के गठन के बारे में ऐतिहासिक तथ्य, पत्राचार और 1920 के एक्ट के प्राविधानों का हवाला दिया।

    सुनवाई के दौरान पीठ ने भी किये कई सवाल 

    कहा 1920 का एएमयू कानून देखिये जिसमें नये कानून से नयी संस्था जन्मी और पुरानी संस्था जो सोसाइटी एक्ट में पंजीकृत थी वह खत्म हो गई। मंगलवार को अटार्नी जनरल आर वेंकटरमणी ने भी पक्ष रखा और कोर्ट में अजीज बाशा फैसले में दी व्यवस्था की व्याख्या की। सुनवाई के दौरान पीठ ने भी कई सवाल किये। कोर्ट ने यह भी कहा कि अब कानून की तय व्यवस्था है कि अगर आप सरकारी सहायता चाहते हैं तो आपको अल्पसंख्यक दर्जा नहीं छोड़ना होता।

    यह भी पढ़ें- Ram Mandir: 'राम के विचार हमें निरंतर ऊर्जा देते हैं', PM मोदी ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु के पत्र का दिया जवाब