युवाओं को प्रोत्साहित करने वाले साहित्यकार थे अज्ञेय, जिंदादिल शख्स के रूप में थी पहचान
अज्ञेय उन विराट कद वाले साहित्यकारों में थे जिन्हें लोग जिंदादिल इंसान मानते थे। दूसरों की मदद को वे हमेशा तैयार रहते थे फिर चाहे वह कोई अंजान ही क्यों न हो।
स्मिता। सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय के बारे में बचपन से एक ही बात सुनती आई थी- वे क्रांतिकारी थे, लेकिन उम्दा लेखक थे। उन्होंने न सिर्फ देश की आजादी के लिए लड़ाइयां लड़ीं, बल्कि आधुनिक हिंदी साहित्य के आधार स्तंभ भी बने। साहित्य की सभी विधाओं-कविता, कहानी, उपन्यास, निबंध, आलोचना, संस्मरण आदि को उन्होंने शिखर तक पहुंचाया। पर जब तक साहित्य को जानने-समझने लायक हुई, तब तक वे इस दुनिया से कूच कर चुके थे। इसलिए उनसे बातचीत करने तो क्या उन्हें देखने का सपना भी पूरा नहीं हो सका।
उन्हें जितना भी जाना, उनकी रचनात्मक कृतियों से जाना। अन्य लेखको, कवियों से हुई बातचीत के माध्यम से जाना। साहित्य अकादमी के पूर्व अध्यक्ष विश्वनाथ तिवारी के घर अज्ञेय जी का आना-जाना होता था। जब भी वे उनके घर बेतिया हाता (गोरखपुर) आते, पुस्तकें उपहार में देना नहीं भूलते। स्मृतियों को टटोलते हुए विश्वनाथ तिवारी कहते हैं, सुविधाा-असुविधा का उन पर कोई खास फर्क नहीं पड़ता था। एक बार मेरे घर आए, तो श्रोताओं द्वारा उनसे उनकी प्रसिद्ध कविता 'असाध्य वीणा' का पाठ करने की फरमाइश हुई। ऐन वक्त पर बिजली चली गई। फिर उन्होंने मोमबत्ती की रोशनी में अपनी कविता सुनाई।
तिवारी जी आगे बताते हैं, वैसे तो लोग अज्ञेय जी को किसी से भी न घुलने मिलने वाला लेखक मानते थे, लेकिन मैंने जहां तक उन्हें जाना, वे सहृदय, सरल और सबका ख्याल करने वाले व्यक्ति थे। मुझे याद है कि एक बार फणीश्वरनाथ रेणु गंभीर रूप से बीमार पड़ गए, तो वे खबर मिलते ही दिल्ली से पटना उन्हें देखने के लिए रवाना हो गए। उनके व्यक्तित्व की शानदार बात यह थी कि वे किसी भी लेखक की मदद बिना उसे बताए करते थे। उनके करीबी अधिकांश लेखक अब इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन रमेश चंद्र शाह, नंद किशोर आचार्य, उर्दू के शीन काफ निजाम उनके निकट रहे हुए लेखक रहे हैं।
वे नई प्रतिभाओं की पहचान करने वाले लेखक थे। जब उन्होंने दिनमान का प्रकाशन शुरू किया, तो रघुवीर सहाय, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, श्रीकांत वर्मा आदि को अपनी टीम में शामिल किया। नवभारत टाइम्स में मनोहर श्याम जोशी जैसी प्रतिभाओं को स्थान दिया। साहित्यकार प्रयाग शुक्ल उनके काफी निकट रहे हैं। प्रयाग शुक्ल उनके साथ बिताए क्षणों को याद करते हुए भाव-विभोर हो जाते हैं। वे कहते हैं, मैं उस समय सिर्फ 22-23 साल का था, जब मेरा उनसे प्रथम परिचय हुआ था। जब उन्होंने 'तीसरा सप्तक' निकाला तो उसमें सभी युवा कवियों की रचनाओं को ही रखा।
केदारनाथ सिंह जी ने अपने अनुभव में लिखा, एक बार बनारस कवि सम्मेलन में जब वे बिल्कुल युवा थे और कविता पाठ कर रहे थे, तो उनके पास एक पर्ची पहुंची,जिसमें लिखा था- मैं ये कविताएं आपसे चाहता हूं और केदारनाथ जी की कविता तीसरा सप्तक में शामिल हो गईं। प्रयाग आगे बताते हैं- मैंने उनके साथ ही दिल्ली में अपना करियर शुरू किया, दिनमान से। मेरे साथ कई और लोग थे, जिनसे वे लिखवाते थे, असाइनमेंट देते थे। हमलोग कई अलग-अलग तरह की गलतियां करते थे, लेकिन वे कभी डांटते नहीं थे। हमारी कॉपी देखकर उन्होंने कभी नहीं कहा कि तुम बेकार लिख रहे हो। हम प्रतीक्षा करते रहते थे कि कॉपी में किस तरह के चेंजेज होंगे। उनके द्वारा कॉपी में किए गए बदलाव काफी सुंदर होते थे। अक्सर उनके पास युवा व्यक्ति किताब भेज देते थे। वे सभी को पढ़ते और उचित टिप्पणी लिखकर उन्हें वापस करते।
कवि राजेंद्र उपाध्याय ने जब एक बार अपनी कविताएं भेजीं, तो अज्ञेय जी ने बकायदे पेंसिल से निशान लगाकर भेजा। वे यह नहीं कहते थे कि इसे बदल दो। बस निशान लगा देते। वे युवाओं की रचनाओं पर काफी समय देते थे। वे विनोद प्रिय भी थे। लेकिन उनका विनोद कभी कभी कभार ही देखने को मिलता। हंसी-ठिठोली से वे युवाओं को हंसाते रहते थे। वे जिंदादिल थे। लेखक शिविर के दौरान वे खूब बातचीत करते और घूमते-फिरते थे। मुझे आज भी याद है जम्मू के मानसर झील के आसपास उनके साथ घूमना। उनके समर्थन को कभी भूला नहीं जा सकता। आज अज्ञेय जयंती है।
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