Political Legend: जब बिहार रेलवे स्टेशन पर हुए हमले में बाल-बाल बचे थे ज्योति बसु
ज्योति बसु देश के दूसरे ऐसे नेता रहे हैं जो किसी राज्य में सबसे लंबे समय तक सीएम रहे थे। भारतीय राजनीति के इतिहास में उनका कद काफी बड़ा है।
नई दिल्ली [जागरण स्पेशल]। भारत की राजनीति में ज्योति बसु का कद काफी ऊंचा रहा है। पश्चिम बंगाल तक सिमटे रहने के बावजूद उनकी आवाज राष्ट्रीय राजनीति में भी एक अहम मुकाम रखती थी। ज्योति बसु देश के किसी राज्य में सबसे लंबे समय तक रहने वाले दूसरे मुख्यमंत्री थे। इस फहरिस्त में पहले नंबर पर सिक्किम के मुख्यमंत्री पवन कुमार चामलिंग का नाम है जो 24 वर्ष 165 दिनों तक राज्य के सीएम थे। वहीं बसु 23 साल 137 दिनों तक पश्चिम बंगाल के सीएम रहे थे। वो आजीवन सीपीआई-एम की पोलित ब्यूरो के सदस्य भी रहे।
बसु के बाद कमजोर पड़ा लेफ्ट
बसु ने खराब स्वस्थ्य के चलते नवंबर 2000 में मुख्यमंत्री का पद छोड़कर इस पर बुद्धदेव भट्टाचार्य को बिठाया था।इसके एक दशक बाद राज्य से लाल परचम पूरी तरह से गायब हो गया। 2011 में कांग्रेस से अलग होकर टीएमसी बनाने वाली ममता बनर्जी ने राज्य में सरकार बना ली। तब से लेकर अब तक ममता इस पद पर काबिज हैं और लेफ्ट राज्य में खुद को फिर मजबूत बनाने की कवायद कर रहा है। बसु जब तक राज्य के सीएम रहे उनका कोई विरोधी उनसे आगे नहीं निकल सका। लेकिन जब वह पद से हटे उसके बाद से ही पार्टी की हालत तेजी से खराब हुई कि न सिर्फ पश्चिम बंगाल बल्कि देश में भी कमजोर हो गई।
बड़ी ज्वाइंट फैमिली में हुई परवरिश
ज्योति का जन्म जुलाई 1914 को कोलकाता में एक संपन्न परिवार में हुआ था। उनके पिता डॉक्टर थे। बसु की परवरिश बड़ी ज्वाइंट फैमिली में हुई थी। बाद में बसु के पिता ने हिंदुस्तान रोड पर एक बड़ा घर खरीदा। बेहद कम लोग इस बात को जानते हैं कि 1925 में कोलकाता के प्रसिद्ध सेंट जेवियर स्कूल में एडमिशन कराने के लिए बसु के पिता ने उनका नाम ज्योतिंद्र बसु से ज्योति बसु किया था। इसके बाद वह इसी नाम से पहचाने गए।पश्चिम बंगाल की प्रतिष्ठित प्रेसिडेंसी यूनिवर्सिटी से इंग्लिश लिटरेचर में डिग्री हासिल करने वाले बसु ने 1935 में लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से लॉ की पढ़ाई पूरी की थी।
नेहरू और बोस से मुलाकात
लंदन में पढ़ाई करते हुए वह राजनीति से भी जुड़े रहे। इंडिया लीग समेत लंदन मजलिस के जहां वो खुद सदस्य थे वहीं पंडित नेहरू भी इसके मैंबर थे। बसु इसके महासचिव भी रहे थे। 1938 में जब नेहरू लंदन आए तो बसु के ही ऊपर ये जिम्मेदारी थी कि उनसे एक मीटिंग तय करवाई जा सके। इसके अलावा सुभाष चंद्र बोस के लंदन आने पर भी बसु ने ही संगठन की मीटिंग उनके साथ तय की थी।
स्वदेश वापसी के कुछ दिनों बाद हुई शादी
जनवरी 1940 में जब वह स्वदेश वापस आए तो इससे पहले ही उनके परिजनों ने उनके लिए एक लड़की की तलाश कर रखी थी। लेकिन इसको लेकर बसु का कहना था कि यदि वह लड़की उनके परिवार को स्वीकार करेगी तो वह भी उसको स्वीकार कर लेंगे। 20 जनवरी को बसु की शादी बसंती से कर दी गई थी। उनका वैवाहिक जीवन ज्यादा खुशहाल नहीं था। दो साल बाद ही उनकी पत्नी और इसके कुछ माह बाद उनकी मां का भी देहांत हो गया था।
यूं चढ़ता गया पॉलिटिकल ग्राफ
वक्त कैसा भी रहा बसु ने राजनीति का साथ कभी नहीं छोड़ा। बसंती की मौत के बाद वह कुछ समय तक वकालत करते रहे। 1948 में उनका दूसरा विवाह कमला से हुआ। 1951 में कमला ने एक बेटी को जन्म दिया जो कुछ ही दिन के बाद चल बसी थी। इसके बाद उनके एक बेटे का जन्म उस वक्त हुआ जब बसु जेल में थे। 1944 बंगाल-असम रेल रोड यूनियन के वह पहले सचिव और फिर महासचिव चुने गए। उन्होंने इसके तहत जुड़े मजदूरों के मुकदमों को भी लड़ा। 1946 में वह बंगाल प्रोवेंशियल असेंबली के लिए चुने गए और यहां से उनका कद राजनीति में लगातार बढ़ता ही गया। 1946-47 के दौरान हुए तेभागा मूवमेंट में उन्होंने बढ़चढ़कर योगदान दिया था। 1964 के बाद से वह लगातार पार्टी की पोलित ब्यूरो के सदस्य रहे।
कई बार हुए गिरफ्तार
भारत के आजाद होने के बाद वह पश्चिम बंगाल विधानसभा के लिए 1952, 1957, 1962, 1967, 1969, 1971, 1977, 1982, 1987, 1991 और 1996 में चुने गए। इस दौरान कई बार ऐसा भी हुआ जब उन्हें सरकार विरोधी गतिविधियों के लिए गिरफ्तार तक किया गया। कई बार इससे बचने के लिए वह लंबे समय तक अंडरग्राउंड भी रहे। आपको यहां पर ये भी बता दें कि बसु पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बीसी रॉय की नीतियों के घोर विरोधी होने के बावजूद रॉय के बेहद चहेते भी थे। 1967 और 1969 में वो राज्य के उप मुख्यमंत्री भी रहे थे।
जब हमले में बाल-बाल बचे थे बसु
970 में पटना रेलवे स्टेशन पर हुए एक हमले में वह बाल-बाल बचे थे। इसके बाद 1971 में जब पश्चिम बंगाल में चुनाव हुए तो सीपीआई-एम सबसे बड़ी पार्टी बनकर सामने आई। हालांकि उन्होंने इसके बाद भी उन्होंने सरकार बनाने से इनकार कर दिया और राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया। 1972 के चुनाव में राज्य में कांग्रेस ने सरकार बनाई थी। 1977 के चुनाव में बसु की पार्टी को राज्य में एकतरफा जीत हासिल हुई और वो राज्य की सत्ता के शीर्ष पर काबिज हुए। बसु के पूरे राजनीतिक जीवन में उनके आलोचक तो कई नेता रहे लेकिन उनके मुरीद भी कम नहीं थे। देश की राजनीति में बसु का नाम हमेशा ही सम्मान के साथ लिया जाता रहा है।
नहीं होने दिए दंगे
बसु की प्रशासनिक क्षमता का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद जब देश के कई हिस्सों में दंगे भड़के हुए थे तो पश्चिम बंगाल शांत था। वहीं 1992 में भी बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद हुए दंगों में भी उनका राज्य काफी हद तक शांत था। 1 जनवरी 2010 को उन्हें खराब हालत की वजह से अस्पताल में भर्ती कराया गया था। 17 जनवरी 2010 को उनके शरीर के कई अंगों ने काम करना बंद कर दिया था, जिसके बाद उनका निधन हो गया। बसु ने भले ही वर्ष 2000 में सक्रिय राजनीति से सन्यास ले लिया था इसके बाद भी राज्य या देश की राजनीति में उनकी कही बात को कभी हल्के में नहीं लिया गया।