राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के 100 साल: संगठन से समरसता तक छह सरसंघचालक
यह लेख राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) की शताब्दी यात्रा पर प्रकाश डालता है जो छह सरसंघचालकों की साधना का परिणाम है। यह यात्रा हिंदू समाज को एकजुट करने और राष्ट्र को मजबूत करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। हेडगेवार की नींव गुरुजी का विस्तार देवरस की सेवा रज्जू भैया का विदेश विस्तार सुदर्शन का स्वदेशी आग्रह और भागवत का समरसता संदेश इसका आधार हैं।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शताब्दी यात्रा छह सरसंघचालकों की साधना का प्रतिफल है। हेडगेवार की नींव, गुरुजी का विस्तार, देवरस की सेवा, रज्जू भैया का विदेश विस्तार, सुदर्शन का स्वदेशी आग्रह और भागवत का समरसता संदेश इसका आधार हैं।
भांप लिया था भविष्य
डाक्टर केशव बलिराम हेडगेवार
प्रथम सरसंघचालक
(जन्म 1 अप्रैल 1889- निधन 21 जून, 1940)
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डाक्टर केशव बलिराम हेडगेवार इसके प्रथम सरसंघचालक थे। कोलकाता में मेडिकल की पढ़ाई के दौरान वे अनुशीलन समिति के संपर्क में आए। देश को स्वाधीन कराने की क्रांतिकारी भावनाओं से भरे उनके मन को लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने भी पोषित किया। वैचारिक रूप से वे तिलक के निकट थे, परंतु सैद्धांतिक रूप से महात्मा गांधी से प्रभावित। गांधी के ‘सत्य और अहिंसा’ से प्रेरित डा. हेडगेवार कांग्रेस से जुड़े तो सही, लेकिन महात्मा के मुसलमानों के प्रति ‘अतिशय झुकाव’ से शीघ्र ही उनका मोहभंग हो गया। प्रखर बुद्धि के डा. हेडगेवार ने यह तुष्टिकरण देखकर वह भविष्य भांप लिया, जो स्वाधीनता के बाद भारत में हिंदुओं का होने वाला था। हिंदुओं में संगठन की कमी और उदासीनता को देखते हुए वे उनके एकीकरण में लग गए और वर्ष 1925 में विजयदशमी के दिन उन्होंने औपचारिक रूप से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की। डा. हेडगेवार ने ‘शाखा’ का विचार प्रस्तुत किया, जहां सुबह स्वयंसेवक एक नियत स्थान पर मिलते, प्रार्थना, बौद्धिक व व्यायाम करते थे। निश्चित रूप से यह अखाड़ों/व्यायामशालाओं का संचालन करते हुए क्रांतिकारी गतिविधियों को अंजाम देने वाली अनुशीलन समिति से प्रेरित, परंतु उसका सौम्य व सांस्कृतिक संस्करण था। शुरुआत नागपुर और इसके आस-पास से हुई, जहां उन्हें प्रेमपूर्वक नाम मिला ‘डा. साहब’। वर्ष 1930 में जंगल सत्याग्रह में भाग लेने के कारण उन्हें अकोला कारागार में रखा गया। वहां डा. साहब का अनेक देशभक्त नेताओं से घनिष्ठ संबंध बना, जेल में ही शाखा शुरू हो गई और कारागार से मुक्त होने पर संघ की शाखाएं संपूर्ण महाराष्ट्र में प्रारंभ हुई। उनके सरसंघचालकत्व में नागपुर में पांच स्वयंसेवकों से प्रारंभ हिंदू जागृति एवं एकीकरण का यह अभियान वर्ष 1940 तक असम तथा ओड़िसा छोड़कर शेष सभी प्रांतों में पहुंच गया था। 9 जून, 1940 को नागपुर में संघ शिक्षा वर्ग के दीक्षांत समारोह में डा. साहब ने कहा, ‘आज अपने सम्मुख मैं हिंदू राष्ट्र के छोटे स्वरूप को देख रहा हूं।’ जाहिर है कि उनके कार्यकाल में हिंदू समाज में एकात्मता की वह गहरी नींव डाल दी गई थी, जो उसे भविष्य में आने वाली भयानक आंधी के सामने टिके रहने की शक्ति देने वाली थी!
अखंड भारत के स्वप्नदृष्टा
माधव सदाशिव गोलवलकर ‘गुरुजी’
द्वितीय सरसंघचालक
(जन्म 19 फरवरी 1906- निधन 5 जून 1973)
डा. हेडगेवार की अनुशंसा पर, उनके देहावसान के बाद, माधव सदाशिव गोलवलकर को सरसंघचालक का उत्तरदायित्व प्राप्त हुआ। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक के रूप में सर्वाधिक लंबे कार्यकाल (1940-1973) वाले गोलवलकर जो ‘गुरुजी’ के उपनाम से प्रसिद्ध थे, को संघ के प्रबल विस्तारक के रूप में जाना जाता है। उन्होंने संपूर्ण भारत में शाखाओं के संजाल को सुदृढ़ किया, सनातन गौरव की अवधारणा को सशक्त किया और पूर्णकालिक प्रचारकों की व्यवस्था प्रारंभ की। भारत विभाजन की क्रूर परिस्थितियों में प्राणों की परवाह किए बिना कराची में मुस्लिम उन्मादियों के विरुद्ध हिंदुओं को संगठित करना हो या कश्मीर के भारत में विलय के लिए प्रयास हों, अखंड भारत के स्वप्नदृष्टा के रूप में वे हर अकल्पनीय स्थिति और स्थान पर उल्लेखनीय ढंग से उपस्थित थे। गांधी वध के बाद कांग्रेस सरकार ने 1948 में अनुचित रूप से कार्रवाई करते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगा दिया, दमन चक्र चलाया परंतु वे धैर्य से डटे रहे। अग्निपरीक्षा का यह दौर एक साल में समाप्त भी हो गया, परंतु इस अनुभव ने अभियान को विस्तार देने की उनकी जिजीविषा बढ़ा दी। गुरु जी के लगभग 33 वर्ष के कार्यकाल में विद्यार्थी परिषद्, भारतीय जनसंघ, भारतीय मजदूर संघ, वनवासी कल्याण आश्रम, विश्व हिंदू परिषद, भारतीय शिक्षक मंडल आदि अस्तित्व में आए। भारत विभाजन को कभी स्वीकार न कर सके गुरु जी विदेश में हिंदुओं की दशा से सदैव व्यथित रहे और इसी का परिणाम था संघ का विश्व-विभाग।
सेवा का अथक संकल्प
बालासाहब देवरस
तृतीय सरसंघचालक
( जन्म 11 दिसंबर 1915- निधन 17 जून 1996)
बाल्यकाल से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संपर्क में आए मधुकर दत्तात्रेय देवरस, जो ‘बाला साहेब देवरस’ के नाम से विख्यात हुए, तृतीय सरसंघचालक के रूप में गुरुजी का स्वाभाविक चयन थे। गोलवलकर की मृत्यु के बाद यह उत्तरदायित्व संभालने वाले बालासाहेब देवरस के सामने वर्ष 1973 में उथल-पुथल से भरा हुआ भारत था। जनआक्रोश को कुचलने के लिए इंदिरा गांधी सरकार ने वर्ष 1975 में आपातकाल थोप दिया और संघ को भी प्रतिबंधित कर दिया। एक सांस्कृतिक संगठन होते हुए भी ‘लोकतंत्र के इस काले अध्याय’ के विरुद्ध संघ स्वत: स्फूर्त भाव से खड़ा हुआ। सरसंघचालक सहित हजारों स्वयंसेवक ‘मीसा’ नामक काले कानून का शिकार बनाकर जेल में डाल दिए गए। दो साल उपरांत वह बर्बर कालखंड समाप्त हुआ, निर्वाचन के उपरांत जनता सरकार अस्तित्व में आई तो जनसंघ भी उसका सहयोगी बना। वर्ष 1980 में बालासाहेब देवरस ने जनसंघ को भारतीय जनता पार्टी का रूप दिया। श्रीरामजन्मभूमि आंदोलन के इस प्रथम शिल्पी के 21 वर्ष कार्यकाल को दलितोद्धार के साथ ही ‘सेवा-भारती’ के रूप में सेवाकार्य के एक नवीन आयाम के रूप में भी याद किया जाता है।
विदेश में व्यापक विस्तार
प्रोफेसर राजेन्द्र सिंह 'रज्जू भैया'
चतुर्थ सरसंघचालक
(जन्म 29 जनवरी 1922- निधन 14 जुलाई 2003)
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के चतुर्थ सरसंघचालक प्रोफेसर राजेन्द्र सिंह ‘रज्जू भैया’ का इस दायित्व के लिए चयन दो रूपों में ऐतिहासिक था। प्रथमत: खराब स्वास्थ्य के कारण बालासाहेब देवरस ने अपने जीवनकाल में ही उत्तराधिकारी की घोषणा कर दी थी, द्वितीय वे पहली बार नागपुर से बाहर से चुने गए सरसंघचालक थे। भौतिकी के मेधावी छात्र और तदुपरांत इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्राध्यापक नियुक्त हुए रज्जू भैया स्वेच्छा से पदमुक्त होकर उत्तर प्रदेश में संघकार्य को विस्तार दे रहे थे। वर्ष 1978-1987 तक संघ के सरकार्यवाह रहे रज्जू भैया को 11 मार्च, 1994 को बालासाहेब देवरस ने चतुर्थ सरसंघचालक का दायित्व सौंपा। वे ऐसे पहले सरसंघचालक थे जिन्होंने विदेश जाकर हिंदू स्वयंसेवक संघ को दिशा दी, जिनके कार्यकाल में केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की पहली सरकार बनी और पोखरण में 'आपरेशन शक्ति' से बुद़ध फिर मुस्कुराए। परमाणु भौतिकी में रुचि रखने वाले रज्जू भैया के कार्यकाल में हुई यह तीसरी घटना सुविचारित थी अथवा संयोग, इसपर आज तक कयास हैं!
स्वदेशी के कट्टर समर्थक
के.सी. सुदर्शन
पंचम सरसंघचालक
( जन्म 18 जून 1931- निधन 15 सितंबर 2012)
प्रोफेसर राजेंन्द्र सिंह के देहावसान के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पांचवें सरसंघचालक का उत्तरदायित्व कुपहल्ली सीतारमैया सुदर्शन के कंधों पर आया। इंजीनियरिंग की पृष्ठभूमि वाले सुदर्शन जी के कार्यकाल (2000-2009) को उनकी सोशल इंजीनियरिंग के रूप में याद किया जाता है। स्वदेशी के कट्टर समर्थक और आर्थिक संप्रभुता के प्रबल पक्षधर के.एस. सुदर्शन मजहबी-मिशनरी मतांतरण के विरुद्ध भी मुखर रहे। गोलवलकर की वैचारिक प्रतिबद़्धता के अनुपालन में किसी भी विरोध का प्रतिकार करने वाले के.एस. सुदर्शन ने विदेशी नियंत्रण से सर्वथा मुक्त भारतीय इसाइयों का स्वदेशी चर्च बनाने का क्रांतिकारी आह्वान किया। वे हिंदू समाज की कुरीतियों से भी उसी दृढ़ता से टकराए और खर्चीले विवाह समारोहों तथा कन्या भ्रूण हत्या पर मुखरता से बात रखी।
समरसता का संदेश
मोहन भागवत
वर्तमान सरसंघचालक
आपातकाल में पशु चिकित्सा विज्ञान का अपना स्नातकोत्तर अध्ययन अधूरा छोड़कर संघ के प्रचारक बनने वाले विनम्र और मृदुभाषी मोहनराव भागवत इसके छठवें तथा वर्तमान सरसंघचालक हैं। वर्ष 2009 में यह उत्तरदायित्व संभालने वाले भागवत के कार्यकाल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपनी स्थापना का शताब्दी वर्ष आयोजित कर रहा है। यह वह कालखंड है, जब अनुच्छेद 370 के उन्मूलन से लेकर श्रीरामजन्मभूमि जीर्णोद्धार तक, भारतीय जनता पार्टी ने संघ के कई स्वप्नों को पूरा किया है। समरसता और समावेशी समाज के पक्षधर भागवत हिंदुत्व को धार्मिक पहचान से कहीं ज्यादा सांस्कृतिक राष्ट़्रवाद के रूप में देखते हैं। उनका आग्रह देश-समाज के सभी वर्गों, मतों, पंथों को साथ लेकर चलना है परंतु बहुमत के साथ संतुलन की बड़ी चुनौती भी सामने है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और इससे प्रेरित संगठनों की शक्ति के अपार विस्तार के वर्तमान समय को उन्हें शांत-सुदृढ़ और अनुशासित भविष्य में ढालना सुनिश्चित करना होगा!
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