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    जागरण संपादकीय: कानूनी दस्तावेजों में भाषा की गलतियां, न्याय और संचार में बाधा, निकलना ही होगा भाषायी बिहड़ से

    लेख में हिमाचल प्रदेश में पुलिस रिपोर्टों और अन्य कानूनी दस्तावेजों में भाषा की गलतियों और जटिलताओं पर प्रकाश डाला गया है। उर्दू शब्दों के अत्यधिक प्रयोग और शुद्ध हिंदी के अभाव के कारण आम लोगों को इन दस्तावेजों को समझने में कठिनाई होती है। लेख में इस समस्या के समाधान के लिए पुलिस प्रशिक्षण कॉलेज डरोह द्वारा भाषा प्रशिक्षण कार्यक्रम शुरू करने का सुझाव दिया गया है।

    By Jagran News Edited By: Prince Sharma Updated: Thu, 06 Feb 2025 06:00 AM (IST)
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    अब निकलना ही होगा इस भाषायी बिहड़ से (जागरण फाइल फोटो)

    नवनीत शर्मा। आप यह बताइए कि जिस समय दुर्घटना हुई, उस समय तो आप को अपने स्कूल में इतिहास की कक्षा में पढ़ा रहे होना चाहिए था। यही स्कूल का रिकॉर्ड भी है। फिर आप समोसे की दुकान पर कैसे खड़े थे?’ गवाह से यह प्रश्न था बचाव पक्ष के वकील का। मामला था सड़क दुर्घटना का।

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    जब बार-बार पूछा गया तो गवाह से रहा नहीं गया और वह बोला, ‘सर, मैं वास्तव में उस समय स्कूल में था, कक्षा में था। मैंने यह सब पुलिस को बताया था पर पुलिस का कहना था कि आपका बयान लिख दिया है। आप बस हस्ताक्षर कर दें… और मैंने कर दिए।'

    फिर हुआ यह कि जिस बस चालक पर किसी को टक्कर मारने का आरोप था, वह बच गया। यह इसलिए हुआ कि इतिहास के प्रवक्ता से उसके ही जिस बयान पर हस्ताक्षर करवाए गए, वह पुलिस कर्मचारी ने हाथ से लिखा था और दूसरा यह कि उसकी भाषा फारसी की कड़ाही में पकी थी, जिसे उर्दू का तड़का लगा था।

    तड़का ही लगा था, पूरी उर्दू भी नहीं थी। कुछ सबसे अलग, सबसे जुदा वाला स्वाद था... यानी एक बड़ा भाग न समझ आने वाला था। इसी सब में 'स्कूल में क्लास ले रहा था' से बात 'समोसे की दुकान पर खड़ा था' तक चली गई।

    हिमाचल प्रदेश में चिट्टा यानी खतरनाक केमिकल ड्रग का आतंक है। आए दिन कई रपटें दर्ज होती हैं। कुछ अंग्रेजी में, कुछ हिंदी में लेकिन अधिसंख्य ऐसी, जिन्हें समझने की परीक्षा में दो ही पक्ष उत्तीर्ण हो सकते हैं।

    लिखने वाला स्वयं या फिर सर्वज्ञाता ईश्वर। उदाहरण के लिए, ‘मन हेड कॉन्स्टेबल मय मुलाजमानों के करने गस्त व सुराग ईलाका हदूद का रवाना था...’ इसके आगे उन्होंने बताया है कि कैसे स्कूटी से चिट्टा बरामद हुआ।

    प्रश्न यह नहीं कि यह कौन सी भाषा है। भाषा सरल या कठिन नहीं होती, उसका प्रयोग शुद्ध या अशुद्ध होता है। उपरोक्त पंक्ति में इलाका, गश्त, बराय आदि शब्द गलत हैं। न हिंदी है, न उर्दू है। ब और व, स और श का भेद सिरे से नदारद है।

    बरामद की गई वस्तु को वरामदा वस्तु लिखा जाता है। जिस प्रदेश में अंग्रेजों के पुलिस अधिनियम से 2007 में अपना पुलिस एक्ट बना कर मुक्ति पा ली गई हो, जिस देश में भारतीय न्याय संहिता, नागरिक सुरक्षा अधिनियम या साक्ष्य अधिनियम से स्वदेशी की गंध आती हो, वहां कभी न्यायालय की भाषा रही अभिव्यक्ति से इतना मोह क्यों? जिन्हें हिंदी कलिष्ट और संश्लिष्ट लगती है, क्या उन्हें जा-ए-बकूआ यानी आपराधिक घटनास्थल का पता है?

    उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम में ऐसा कुछ नहीं है। यह ऐसे ही स्वीकार है, क्योंकि इसे ग्राहक तहफ्फुज कानून कहने की आवश्यकता नहीं पड़ी।

    हिमाचल प्रदेश पुलिस के एक आला अधिकारी मानते हैं कि पहले सारी रपट हाथ से लिखी जाती थी और उर्दू में चंद शब्दों से काम चल जाता था इसलिए, यह बनी बनाई भाषा अपनाई जाती रही। वह मानते हैं कि इसमें सुधार होना चाहिए। उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों ने इस दिशा में अच्छा काम किया है।

    हिमाचल प्रदेश में पुलिस महानिरीक्षक रहे हिमांशु मिश्रा कहते हैं, ‘ऐसा नहीं है कि भाषा के सरलीकरण के प्रयास नहीं किए गए लेकिन ये फलीभूत न हो पाए l थाना स्तर पर अभी भी उर्दू शब्दों का प्रचलन है जिन्हें समझने में आम आदमी को परेशानी होती है I

    एक साधारण सी रिपोर्ट लिखवाने में ही ढेर सारे ऐसे शब्दों का प्रयोग कर दिया जाता है जो शिकायतकर्ता की समझ से परे हैंl लगभग यही हाल राजस्व विभाग का भी है l यथास्थिति कायम रखने की इच्छा काफी प्रबल है इसलिए परिवर्तन और सुधार का विरोध है l’

    दोष पुलिस कर्मचारियों का नहीं, वे ढर्रे में ढाल दिए गए हैं। यही हाल राजस्व और न्यायालय की भाषा का भी है। इंटरनेट मीडिया पर कई न्यायालयों में सुनवाई के वीडियो आते हैं।

    अच्छी हिंदी या अंग्रेजी गूंजे तो अच्छी लगती है। लेकिन किसी भूमि देने वाले को प्रदाता कहने के स्थान पर अब भी 'दहिंदागण' ही लिखना है तो बात अलग है। भाषा को बोलचाल की भाषा बनाने और दिखाने में ऐसा ही मिश्रण भ्रम उत्पन्न करता है।

    यदि 'स्कूल' लिखे हुए को 'समोसा' लिखा जा सकता है तो ‘दहिंदा’ के ‘दरिंदा’ बनने में कितना समय लगेगा। यह सब उस प्रदेश में है जिसने हिंदीभाषी होने में गर्व अनुभव किया है। शहरों के नाम बदलने के अभ्यास के बीच लोगों और कचहरियों, थानों के मध्य डरावना पर्दा खींचती आ रही भाषा को भी बदलने में इतना समय?

    जहां तक पुलिस की बात है, यह कार्य पुलिस ट्रेनिंग कॉलेज डरोह कर सकता है। यदि यह कालेज अपनी दक्षता के बल पर पंजाब पुलिस के अन्वेषण अधिकारियों को प्रशिक्षण दे सकता है तो भाषा का प्रशिक्षण अपने लोगों को भी दे सकता है ताकि बयान समझ आने वाली भाषा में लिखे जाएं।

    राजस्व और न्यायालय का तो पता नहीं, पुलिस यह अभियान भाषा के जानकारों की सहायता लेकर शुरू कर सकती है। समस्या यह है कि यदि उर्दू शब्दों का आधिक्य है तो उर्दू भी शुद्ध नहीं लिखा जा रहा। ऐसे में भाषा के स्थान पर उसके अवशेष मिलते हैं। हम इस अभिव्यक्ति के बीहड़ में उन अवशेषों को कब तक ढोएंगे?