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    नई ऊंचाई छूती विद्या बालन द डर्टी पिक्चर

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    गांव से भाग कर मद्रास आई रेशमा की ख्वाहिश है कि वह भी फिल्मों में काम करे। यह किसी भी सामान्य किशोरी की ख्वाहिश हो सकती है। फर्क यह है कि निरंतर छंटनी से रेशमा की समझ में आ जाता है कि पुरुषों की इस

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    गांव से भाग कर मद्रास आई रेशमा की ख्वाहिश है कि वह भी फिल्मों में काम करे। यह किसी भी सामान्य किशोरी की ख्वाहिश हो सकती है। फर्क यह है कि निरंतर छंटनी से रेशमा की समझ में आ जाता है कि पुरुषों की इस दुनिया में कामयाब होने के लिए उसके पास एक अस्त्र है..उसकी अपनी देह। इसके बाद रेशमा से सिल्क बनने में उसे समय नहीं लगता। पुरुषों में अंतर्निहित तन और धन की लोलुपता को वह खूब समझती है। सफलता की सीढि़या चढ़ती हुई फिल्मों का अनिवार्य हिस्सा बन जाती है। निर्माता, निर्देशक, स्टार और दर्शक सभी की चहेती सिल्क अपनी कामयाबी के यथार्थ को भी समझती है। उसके अंदर कोई अपराध बोध नहीं है, लेकिन जब मा उसके मुंह पर दरवाजा बद कर देती है और उसका प्रेमी स्टार अचानक बीवी के आ टपकने पर उसे बाथरूम में भेज देता है तो उसे अपने दोयम दर्जे का भी एहसास होता है। सिल्क के बहाने 'द डर्टी पिक्चर' फिल्म इंडस्ट्री के एक दौर के पाखड को उजागर करती है। साथ ही डासिग गर्ल में मौजूद औरत के दर्द को भी जाहिर करती है।

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    विद्या बालन ने सिल्क के किरदार में खुद को ढाल दिया है। अंग प्रदर्शन और कामुक भाव मुद्राओं के बावजूद विद्या अश्लील नहीं लगतीं। विद्या की सवेदनशीलता और सलग्नता से अश्लील उद्देश्य से रचे गए दृश्यों में भी स्त्री देह का सौंदर्य दिखता है। दरअसल, निर्देशक की मशा देह दर्शन और प्रदर्शन की नहीं है। वह उस देह में मौजूद औरत को उसके सदर्भो के साथ चित्रित करने में लीन है। विद्या बालन ने निर्देशक मिलन लुथरिया के साथ मिलकर पर्दे पर उस औरत को जीवत कर दिया है।

    निर्देशक मिलन व लेखक रजत अरोड़ा की परस्पर समझदारी और सहयोग ने फिल्म को मजबूत आधार दिया है। इसके सवाद बहुत कुछ कह जाते हैं। फिल्म के सवाद अलग मायने में द्विअर्थी हैं। इसका दूसरा अर्थ मारक है जो सीधे चोट करता है और पाखड की कलई खोल देता है। उन सवादों को विद्या ने सार्थक ढंग से उचित ठहराव, जोर और भाव के साथ अभिव्यक्त किया है।

    'द डर्टी पिक्चर' में विद्या बालन के बराबर में नसीरुद्दीन शाह, इमरान हाशमी, तुषार कपूर हैं। निश्चित ही नसीरुद्दीन शाह ने सूर्यकात के सटीक चित्रण से सिल्क के किरदार को और मजबूती दी है। इमरान हाशमी और तुषार कपूर अपेक्षाकृत कमजोर लगे हैं। सहयोगी कलाकारों की सहजता से फिल्म को विश्वसनीयता मिली है।

    मिलन की इस पीरियड फिल्म में किरदारों के साथ हम तीस साल पहले के परिवेश में जाते हैं। गीत-सगीत में भी मिलन ने उस दौर की प्रवृत्तियों को ध्यान में रखा है। इमरान और विद्या पर फिल्माया गया गीत इश्क सूफियाना ठूंसा हुआ लगता है। फिल्म यहीं थोड़ी कमजोर भी पड़ती है, जब दो विरोधी चरित्रों को लेखक-निर्देशक जोड़ने की कोशिश करते हैं। इस फिल्म की खूबी है कि आम और खास दर्शकों को अलग-अलग कारणों से एंटरटेन कर सकती है।

    [अजय ब्रह्मात्मज]

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