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    निवेश से पहले समझिए सरकारी बॉन्ड और कॉरपोरेट बॉन्ड में अंतर, आपके लिए इनमें क्या हैं फायदे

    बॉन्ड कंपनी और सरकार के लिए पैसा जुटाने का एक माध्यम होता है। बॉन्ड से जुटाए गया पैसा कर्ज की कैटेगरी में आता है। सरकार आय और खर्च के अंतर को पूरा करने के लिए बॉन्ड के जरिए पैसा उधार लेती है।

    By Siddharth PriyadarshiEdited By: Updated: Tue, 22 Nov 2022 09:08 PM (IST)
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    understand the difference between government bonds and corporate bonds Before investing

    नई दिल्ली, बिजनेस डेस्क। अक्सर बॉन्ड के बारे में सुनते होंगे। इकोनॉमिक जगत में इसका जिक्र बार-बार होता है। हालांकि, यह हमारी सामान्य बातचीत का हिस्सा नहीं बनता है। आइए इस आर्टिकल के माध्यम से जानने की कोशिश करते हैं कि आखिर यह बॉन्ड है क्या? 

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    बॉन्ड कंपनी और सरकार के लिए पैसा जुटाने का एक माध्यम होता है। बॉन्ड से जुटाए गया पैसा कर्ज की कैटेगरी में आता है। सरकार अपनी आय और खर्च के अंतर को पूरा करने के लिए बॉन्ड के जरिए पैसा उधार लेती है। आप यह भी कह सकते हैं कि वह कर्ज लेती है। इस कर्ज को उसे तय समय के बाद लौटना पड़ता है। सरकार कर्ज लेने के लिए जो बॉन्ड जारी करती है, उसे सरकारी बॉन्ड कहा जाता है। कंपनी भी अपने कारोबार के विस्तार के लिए बॉन्ड से पैसा जुटाती है, इसे कॉरपोरेट बॉन्ड कहा जाता है.

    अगर इन्वेस्टर के नजरिए से देखा जाए तो बॉन्ड को बहुत सुरक्षित माना जाता है। हालांकि, सरकारी बॉन्ड को बहुत सुरक्षित माना जाता है। इसकी वजह यह है कि इनमें सरकार की गारंटी होती है। कंपनी का बॉन्ड उसकी फाइनेंशियल स्थिति के हिसाब से सुरक्षित होता है। इसका मतलब यह है कि अगर कंपनी की फाइनेंशियल स्थिति मजबूत है तो उसका बॉन्ड भी सुरक्षित होगा। कंपनी की फाइनेंशियल स्थिति अच्छा नहीं होने पर उसके बॉन्ड को सुरक्षा के लिहाज से अच्छा नहीं माना जाता है।

    हालांकि, बॉन्ड पर पहले से तय दर से ब्याज मिलता है, इसे कूपन कहा जाता है। क्योंकि बॉन्ड की ब्याज दर पहले से तय होती है, इसलिए इसे फिक्स्ड रेट इंस्ट्रूमेंट भी कहते है। बॉन्ड के लिए टर्म भी तय होता है, जिसे मैच्योरिटी पीरियड कहते हैं। बॉन्ड की मैच्योरिटी अवधि एक से 30 साल तक  हो सकती है। बॉन्ड की ब्याज दर निश्चित होती है। इसमें बदलाव नहीं होता है। 

    बॉन्ड से मिलने वाले रिटर्न को यील्ड भी कहा जाता है। बॉन्ड की यील्ड और इसके प्राइस का आपस में विपरीत संबंध होता है। इसका मतलब यह है कि बॉन्ड की प्राइस कम होने पर उसकी यील्ड बढ़ जाती है। बॉन्ड की प्राइस बढ़ने पर यील्ड घट जाती है। जिसे एक उदाहरण के जरिए आसानी से समझा जा सकता है। जैसे आप मान लीजिए एक बॉन्ड की प्राइस 100 रुपये है। उसका कूपन रेट यानी ब्याज दर 10 प्रतिशत है, क्योंकि बॉन्ड की ट्रेडिंग होती है, जिसमें इसका प्राइस घटता और बढ़ता है। 10 फीसदी की दर से 100 रुपये के बॉन्ड पर 10 रुपये ब्याज एक साल में मिलेगा। 

    अब मान लीजिए बाजार में बॉन्ड का प्राइस घटकर 90 रुपये रह जाता है। इस पर आपको 10 रुपये ब्याज दर मिलेगा। वहीं, इस तरह आपको 90 रुपये इन्वेस्टमेंट करने पर 10 रुपये का ब्याज मिलेगा।  इस तरह बॉन्ड का प्राइस घटने पर उसकी यील्ड भी बढ़ जाती है। ठीक इसके विपरीत बॉन्ड की प्राइस बढ़ने पर यील्ड घट जाती है। 

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    नोट: यह आर्टिकल ब्रांड डेस्क द्वारा लिखा गया है।

    लेखक- सुमित रजक