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    Maharashtra Politics: दोधारी तलवार पर चल रही शिवसेना, स्वयं को हिंदुत्ववादी सिद्ध करने की होड़

    By Sanjay PokhriyalEdited By:
    Updated: Sat, 29 Jan 2022 11:31 AM (IST)

    Maharashtra Politics महाराष्ट्र भाजपा के एक वर्ग का मानना है कि यदि 1995 में भाजपा ने शिवसेना के साथ गठबंधन न किया होता तो संभवत अब से बहुत पहले वह अपने दम पर राज्य में सरकार बना चुकी होती।

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    Maharashtra Politics: 1984 का लोकसभा चुनाव भी शिवसेना ने भाजपा के चुनाव चिह्न् पर लड़ा था। फाइल फोटो

    मुंबई, ओमप्रकाश तिवारी। शिवसेना इन दिनों दोधारी तलवार पर चल रही है। वह कांग्रेस और राकांपा के साथ अपनी महाविकास आघाड़ी सरकार का कार्यकाल भी पूरा करना चाहती है। साथ ही उसे अगले चुनावों में अपने प्रतिबद्ध कैडर को बचाए रखने की चिंता भी सता रही है। यह कैडर शिवसेना से हिंदुत्व की भावभूमि पर ही जुड़ा था। इसलिए गाहे-बगाहे शिवसेना अध्यक्ष एवं महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे अपने कार्यकर्ताओं को यह याद दिलाने की कोशिश करते रहते हैं कि वह आज भी हिंदुत्व से दूर नहीं गए हैं।

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    इस बार भी हिंदू हृदय सम्राट के नाम से विख्यात रहे अपने पिता एवं शिवसेना संस्थापक स्वर्गीय बालासाहब ठाकरे की 96वीं जयंती पर शिवसैनिकों को संबोधित करते हुए उद्धव ठाकरे ने खुद को असली हिंदुत्ववादी और भारतीय जनता पार्टी को नव-हिंदुत्ववादी सिद्ध करने के लिए कई बातें कह डालीं। मसलन, शिवसेना ने भाजपा के साथ गठबंधन किया था, क्योंकि वह हिंदुत्व के लिए सत्ता चाहती थी। शिवसेना ने कभी सत्ता के लिए हिंदुत्व का इस्तेमाल नहीं किया। शिवसेना ने हिंदुत्व को नहीं, भाजपा को छोड़ा है। भाजपा का अवसरवादी हिंदुत्व सिर्फ सत्ता के लिए है।

    दुर्भाग्य देखिए कि उद्धव ठाकरे जब राहुल गांधी शैली में ‘हिंदुत्व’ और ‘हिंदुत्ववादी’ की व्याख्या कर खुद को बड़ा ‘हिंदू’ सिद्ध करने की कोशिश कर रहे थे, उसी दौरान उनके राज्य की राजधानी मुंबई के एक कोने में एक स्पोर्ट्स कांप्लेक्स का नामकरण मैसूर के पूर्व शासक टीपू सुल्तान के नाम पर किए जाने का बोर्ड लगाया जा रहा था। यह स्पोर्ट्स कांप्लेक्स उन्हीं के मंत्रिमंडल में कांग्रेस के कोटे से मंत्री बने असलम शेख ने अपने विधानसभा क्षेत्र मालवणी में बनवाया है, और उसका नाम रखा है कि ‘सदर वीर टीपू सुल्तान क्रीड़ा संकुल’।

    उद्धव ठाकरे के लिए यह सोचने की बात है कि क्या उनके पिता बालासाहब ठाकरे अपने जीवनकाल में अपनी ही सरकार में टीपू सुल्तान के नाम पर किसी परियोजना का नामकरण होने देते? लेकिन यह न सिर्फ हो रहा है, बल्कि शिवसेना इसे होने दे रही है। यह उसी कांग्रेस द्वारा अपने विशेष एजेंडे के तहत किया जा रहा है, जिसके नेता बालासाहब ठाकरे की जयंती पर उनके सम्मान में एक ट्वीट करना भी जरूरी नहीं समझते। ये बदलाव शिवसेना में ऊपर से नीचे तक सबको समझ में आ रहा है। निचले स्तर का कार्यकर्ता तो कांग्रेस-राकांपा के साथ कतई सहज महसूस नहीं कर रहा है। इसका भी एक उदाहरण उद्धव के उक्त हिंदुत्ववादी बयानों के अगले ही दिन देखने को मिल गया, जब औरंगाबाद में एक दुग्ध संघ के चुनाव में शिवसेना-भाजपा के कार्यकर्ताओं ने आपस में हाथ मिलाकर कांग्रेस को बाहर का रास्ता दिखा दिया। संयोग देखिए कि वहां यह सारा खेल शिवसेना कोटे के एकमात्र मुस्लिम मंत्री अब्दुल सत्तार के नेतृत्व में हुआ। यानी उद्धव ठाकरे अपनी कुर्सी बचाने के लिए कांग्रेस-राकांपा के साथ भले दोस्ती का दंभ भरते रहें, लेकिन जमीन पर काम कर रहा शिवसैनिक आज भी 25 साल के भाजपाई गठबंधन से बाहर निकलने की मानसिकता नहीं बना पा रहा है।

    खुद को बड़ा हिंदुत्ववादी सिद्ध करने के साथ-साथ उद्धव के मन से भाजपा का बड़ा भाई होने का दंभ भी नहीं निकल पा रहा है। यही कारण है कि वह बार-बार याद दिलाने की कोशिश करते हैं कि भाजपा उनके कारण ही महाराष्ट्र में इतना आगे बढ़ सकी। लेकिन आंकड़े और इतिहास उनके इस दंभ को भी झुठलाते नजर आते हैं। इस बार तो उनको जवाब देते हुए पूर्व मुख्यमंत्री एवं नेता प्रतिपक्ष देवेंद्र फड़नवीस ने कह ही दिया कि जब शिवसेना पैदा भी नहीं हुई थी, उस समय भी मुंबई में भाजपा के सभासद चुने जाते थे। शिवसेना से पहले महाराष्ट्र के सदन में भाजपा के विधायक पहुंच चुके थे। यहां तक कि 1984 का लोकसभा चुनाव भी शिवसेना ने भाजपा के चुनाव चिह्न् पर लड़ा था।

    इतिहास के दस्तावेज में दर्ज इन तथ्यों को शिवसेना भी नहीं झुठला सकती कि वर्ष 1990 तक चुनाव आयोग के रिकार्ड में शिवसेना उम्मीदवारों का उल्लेख निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में ही होता था। जबकि भाजपा का पूर्व स्वरूप जनसंघ 1957 में ही एक राष्ट्रीय पार्टी के रूप में तब के संयुक्त महाराष्ट्र में 25 सीटों पर विधानसभा चुनाव लड़कर चार सीटें जीतने में सफल रहा था। वर्ष 1980 में दोहरी सदस्यता के मुद्दे पर जनता पार्टी से अलग होकर मुंबई में अपनी स्थापना (जनसंघ का नया रूप) के तुरंत बाद हुए विधानसभा चुनावों में भी भाजपा कांग्रेस का मजबूत गढ़ समझे जानेवाले तब के महाराष्ट्र में 145 सीटों पर चुनाव लड़कर 9.38 प्रतिशत मतों के साथ 14 सीटें जीतने में कामयाब रही थी।

    आज उद्धव ठाकरे दावा कर रहे हैं कि 1992 को विवादित ढांचा ढहाए जाने के बाद शिवसेना की स्थिति इतनी मजबूत थी कि उस समय यदि उसने महाराष्ट्र से बाहर निकलने का प्रयास किया होता तो आज दिल्ली में प्रधानमंत्री उसका होता। जबकि उनके इस दावे की हवा देवेंद्र फड़नवीस बाकायदा आंकड़े देते हुए यह बताकर निकाल चुके हैं कि 1992 के बाद से उत्तर प्रदेश में शिवसेना जब-जब चुनाव लड़ी है, तब-तब एकाध सीट छोड़कर बाकी पर उसकी जमानत ही जब्त हुई है। महाराष्ट्र भाजपा के एक वर्ग का मानना है कि इस बात की पुष्टि पिछले विधानसभा चुनाव के परिणाम भी करते हैं। जब भाजपा के लगभग बराबर सीटों पर लड़ने के बावजूद शिवसेना को उससे करीब आधी सीटें ही प्राप्त हुई हैं।

    [मुंबई ब्यूरो प्रमुख]

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