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    Jyotiraditya Scindia: सिंधिया पर दिग्विजय सिंह का नया निशाना महाराष्ट्र के राजनीतिक घटनाक्रम पर आधारित

    By Sanjay PokhriyalEdited By:
    Updated: Thu, 07 Jul 2022 11:18 AM (IST)

    भाजपा के साथ सिंधिया की ट्यूनिंग अच्छी है। शायद कांग्रेस नेताओं को यही बात चुभती रहती है इसलिए वे मौका मिलते ही व्यंग्य-बाण छोड़ने से नहीं चूकते। वक्त की मांग है कि कांग्रेस नेतृत्व अपने कार्यकर्ताओं की अपेक्षाओं और ज्योतिरादित्य की चिंता छोड़कर अपनी पार्टी की सेहत की फिक्र करे।

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    मध्य प्रदेश वरिष्ठ नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया। फाइल

    इंदौर, सद्गुरु शरण। कांग्रेस के लिए मध्य प्रदेश अब उन कुछेक दुर्लभ प्रदेशों में शामिल है, जहां पार्टी की स्थिति किसी हद तक सम्मानजनक है। इसकी एक वजह यह भी है कि यहां अब तक किसी क्षेत्रीय दल की जड़ें नहीं जम पाई हैं, लिहाजा सरकार न बना पाने पर भी कांग्रेस को मुख्य विपक्षी दल का दर्जा तो मिल ही जाता है। पिछले विधानसभा चुनाव में मतदाताओं ने कांग्रेस की बातों-वादों पर भरोसा जताकर सरकार चलाने का मौका दिया था, यद्यपि अपने अंतर्विरोधों के चलते कांग्रेस ने केवल 15 महीने में अपनी सरकार गंवा दी। वरिष्ठ नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ विधायकों की बगावत के बाद कमल नाथ सरकार का पतन हो गया था और सिंधिया समर्थक विधायकों की मदद से भाजपा ने शिवराज सिंह के नेतृत्व में सरकार बना ली थी।

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    इस घटना को भले दो वर्ष से अधिक वक्त गुजर गया है, परंतु कांग्रेस इसके सदमे से अब तक नहीं उबर पाई है। सिंधिया अब भाजपा में रम-बस चुके हैं, पर कांग्रेस उन्हें व्यक्तिगत रूप से निशाना बनाने का कोई अवसर नहीं चूकती। मध्य प्रदेश कांग्रेस में कमल नाथ और दिग्विजय सिंह जैसे वरिष्ठ नेता हैं, यद्यपि सिंधिया पर निशाना लगाने की जिम्मेदारी अपवाद छोड़कर खुद दिग्विजय सिंह ने संभाल रखी है। दिग्विजय सिंह परिपक्व नेता हैं, इसलिए असंभव सी कड़ियां जोड़ने में भी माहिर हैं। सिंधिया पर उनका नया निशाना महाराष्ट्र के राजनीतिक घटनाक्रम पर आधारित है। उनके व्यंग्य का आशय यह है कि भाजपा ने महाराष्ट्र में विद्रोह के नायक एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बना दिया, जबकि लगभग वैसे ही घटनाक्रम के बावजूद ज्योतिरादित्य को मुख्यमंत्री नहीं बनाया गया था।

    दिग्विजय सिंह की यह रचना शायद सिंधिया को चिढ़ाने का उपक्रम मात्र है, अन्यथा राजनीतिक घटनाओं के निहितार्थ वह अच्छी तरह समझते हैं। सबको पता है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया के कांग्रेस छोड़ने के बाद पार्टी के कई नेता, जो राहुल गांधी की टीम में शामिल थे, पार्टी छोड़ चुके हैं। ऐसे नेताओं में केवल सचिन पायलट ही कांग्रेस में बचे हैं। उन्हें लेकर भी अक्सर अटकलबाजी चला करती है। मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र की परिस्थिति में यह मूलभूत अंतर भी है कि सिंधिया भाजपा में शामिल हो गए थे, जबकि एकनाथ शिंदे आज भी शिवसेना का ही गुट हैं।

    वैसे दिग्विजय सिंह अवसर का लाभ उठाना जानते हैं, इसलिए उन्होंने सिंधिया को लक्ष्य करके तीर छोड़ने में देर नहीं की। यह अलग बात है कि ज्योतिरादित्य ऐसे प्रसंगों में कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करते। राजनीतिक क्षेत्र में भी दिग्विजय की ऐसी टिप्पणियों को सिंधिया के प्रति उनकी निजी खुन्नस मानकर ज्यादा महत्व नहीं मिलता।

    बहरहाल, मध्य प्रदेश कांग्रेस के आम कार्यकर्ता अक्सर इस बात पर अवश्य आश्चर्य व्यक्त करते हैं कि जिस वक्त पार्टी के दिग्गज नेताओं को दिन-रात मेहनत करके अगले वर्ष प्रस्तावित विधानसभा चुनाव के लिए कार्यकर्ताओं को संगठित करने के अभियान में जुटना चाहिए, उस वक्त दिग्विजय सिंह जैसे बड़े नेता सिंधिया की फिक्र में दुबले हो रहे हैं। सिंधिया प्राय: अपने आचरण से भाजपा की रीति-नीति के प्रति जुड़ाव दर्शाते हैं। पिछले दिनों उन्होंने बड़ी घोषणा की थी कि उनके परिवार से वह अकेले राजनीति में रहेंगे।

    कांग्रेस कार्यकर्ता मानते हैं कि देश का वर्तमान राजनीतिक-सामाजिक परिवेश और वर्तमान कार्यकाल में शिवराज सिंह की सक्रियता को देखते हुए कांग्रेस के लिए अगले वर्ष विधानसभा चुनाव आसान नहीं होगा। भाजपा दावा कर रही है कि अगले चुनाव में उसे अपने परंपरागत वोटबैंक के अलावा एससी-एसटी वर्गो का भी व्यापक समर्थन मिलेगा। कांग्रेस का इस दावे पर असहमति जताना स्वाभाविक है, पर उसे भाजपा के इस दावे को झूठा बताने के बजाय इन वर्गो के बीच अपनी भूमिका के बल पर इसे आधारहीन साबित करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।

    ऐसा माना जाता है कि पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को मिली सफलता में जनजातियों का बड़ा योगदान था। इसे देखते हुए वर्तमान सरकार गठन के बाद भाजपा ने इस वर्ग के बीच बहुत काम किया। भाजपा का यह अभियान जारी है। कांग्रेस को इसे नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। द्रौपदी मुर्मू का राष्ट्रपति बनना लगभग तय है और ऐसा होने के बाद जनजातियों में एक नई राजनीतिक चेतना की उम्मीद जताई जा रही है। उसका प्रभाव मध्य प्रदेश के अगले विधानसभा चुनाव में भी महसूस किए जाने के आसार हैं।

    [संपादक, नई दुनिया, मध्य प्रदेश-छत्तीसगढ़]