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    पहाड़ों पर वक्त रहते मिलेगी भूस्खलन को लेकर चेतावनी, IISER भोपाल के विज्ञानियों ने विकसित की तकनीक

    By Jagran NewsEdited By: Amit Singh
    Updated: Tue, 07 Feb 2023 05:08 PM (IST)

    शोध दल के प्रमुख व पृथ्वी एवं पर्यावरणीय विज्ञान विभाग के एसोसिएट प्रोफेसर डा. ज्योतिर्मय मलिक बताते हैं कि यह जियोफिजिकल तकनीक है। किसी भी जगह पर भूमि में तनाव आता है तो बेहद हल्के फ्रैक्चर बनते हैं।

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    भूस्खलन की वक्त रहते मिलेगी जानकारी तकनीक विकसित

    अंजली राय, भोपालः भारतीय विज्ञान शिक्षा और अनुसंधान संस्थान (आइसर) के विज्ञानियों ने एक ऐसी तकनीक विकसित की है, जो पहले ही बता देगी कि भूस्खलन कहां और कब होने वाला है। पृथ्वी एवं पर्यावरणीय विज्ञान विभाग के शोधकर्ताओं ने दार्जिलिंग के भूस्खलन वाले क्षेत्रों की संवेदनशील पहाड़ियों में चार साल तक शोध किया, जिसका पहला शोधपत्र इंटरनेशनल जर्नल नेचुरल हेजार्ड में प्रकाशित हो चुका है। शोध के कुछ चरण और बाकी हैं।

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    दो वर्ष बाद इस तकनीक का जमीनी स्तर पर उपयोग किया जा सकेगा। इसके उपयोग से भूस्खलन से पहले ही लोगों को खतरे वाले क्षेत्र से बाहर निकाला जा सकेगा। विज्ञानियों के अनुसार इसकी लागत करीब 20 लाख रुपये आएगी, जो भूस्खलन से होने वाले नुकसान के मुकाबले ज्यादा नहीं है। आइसर को प्रोजेक्ट साइंस एंड इंजीनियरिंग रिसर्च बोर्ड, भारत सरकार ने दिया था।

    जियोफिजिकल तकनीक

    शोध दल के प्रमुख व पृथ्वी एवं पर्यावरणीय विज्ञान विभाग के एसोसिएट प्रोफेसर डा. ज्योतिर्मय मलिक बताते हैं कि यह जियोफिजिकल तकनीक है। किसी भी जगह पर भूमि में तनाव आता है तो बेहद हल्के फ्रैक्चर बनते हैं। ये बढ़ते हैं, फिर भूस्लखन होता है। भूस्खलन की भौतिक प्रक्रिया से काफी पहले से तनाव बढ़ने के साथ ही फ्रैक्चर इंड्यूस्ड इलेक्ट्रोमैग्नेटिक रेडिएशन (एफइएमआर) निकलती है। इस तकनीक से अब हम इसे भी माप सकते हैं।

    इस तरह होती है घटनाएं

    विज्ञानियों का कहना है कि हिमालय के क्षेत्र में भूस्खलन की घटनाएं बार-बार होती हैं। चट्टानों का खिसकना वहां आम है। ऐसे में इस तकनीक से काफी मदद मिलेगी। इस तकनीक से जोशीमठ जैसी घटना का पहले ही पता लगाया जा सकता था।

    ऐसे लगाएंगे पता

    शोधकर्ताओं के अनुसार भूस्खलन मानसून सीजन के बाद ज्यादा होते हैं। इसके लिए सबसे पहले एक-एक पोर्टेबल उपकरण एंजेल-एम का प्रयोग किया जाएगा। इसे वाहन के ऊपर लगाया जाता है, वाहन के चलते समय सर्वे होता जाता है। मानसून से पहले और बाद में सर्वे कर स्थिति का पता लगाया जाएगा, जहां भूस्खलन की आशंका होगी। ड्रोन की मदद से भी इस उपकरण को संदिग्ध जगहों पर भेजकर भूस्खलन की स्थिति का पता लगाया जा सकता है।

    रूस में सफल है तकनीक

    डा. मलिक और उनके शोधकर्ताओं की टीम में शामिल दीप दास, श्रीजा दास और गरिमा शुक्ला का कहना है कि रूस की कोयला खदानों में इस तकनीक का प्रयोग किया जा चुका है। वहां इसके परिणाम काफी बेहतर रहे हैं। भारत में वर्तमान में दार्जिलिंग की पहाड़ियों पर चार साल से इस तकनीक से अध्ययन किया जा रहा है।

    पृथ्वी एवं पर्यावरणीय विज्ञान विभाग के डा. ज्योतिर्मय मलिक ने बताया कि, आकलन करीब 80 प्रतिशत तक सटीक पाया गया है। इस तकनीक को केंद्र सरकार को सौंपा जाएगा।