भारत-तिब्बत व्यापार की यादों को संजोए है उत्‍तराखंड का सेल्कू मेला, पढ़िए पूरी खबर

उत्तरकाशी में हर वर्ष मनाया जाने वाला दो-दिवसीय सेल्कू मेला सबसे निराला है। जो हर वर्ष 16-17 सितंबर को होता है। सेल्कू उत्सव का इतिहास भारत-तिब्बत व्यापार से जुड़ा है।

By Sunil NegiEdited By: Publish:Mon, 16 Sep 2019 08:16 AM (IST) Updated:Mon, 16 Sep 2019 08:38 PM (IST)
भारत-तिब्बत व्यापार की यादों को संजोए है उत्‍तराखंड का सेल्कू मेला, पढ़िए पूरी खबर
भारत-तिब्बत व्यापार की यादों को संजोए है उत्‍तराखंड का सेल्कू मेला, पढ़िए पूरी खबर

उत्‍तरकाशी, शैलेंद्र गोदियाल। जिला मुख्यालय उत्तरकाशी से 85 किमी दूर मां गंगा के शीतकालीन पड़ाव मुखवा में हर वर्ष मनाया जाने वाला दो-दिवसीय सेल्कू मेला सबसे निराला उत्सव है। जो हर वर्ष 16-17 सितंबर को आयोजित होता है। इस बार भी 15 दिन पहले से इसकी तैयारी शुरू हो गई थी। इस दिन ग्रामीण उच्च हिमालयी क्षेत्र से पूजा के लिए ब्रह्मकमल समेत कई तरह के फूल लाते हैं और चीड़ व देवदार की लकड़ियों के छिल्लों से भैलो तैयार किए जाते हैं।

सेल्कू उत्सव का इतिहास भारत-तिब्बत व्यापार से जुड़ा हुआ है। गंगा घाटी की संस्कृति एवं सभ्यता पर पुस्तक लिख चुके स्थानीय इतिहासकार उमा रमण सेमवाल बताते हैं कि 1962 के भारत-चीन युद्ध से पहले गंगा घाटी तिब्बत और भारत के बीच व्यापार का केंद्र हुआ करती थी। तब वर्ष में 15 अप्रैल से लेकर 15 सितंबर तक यह व्यापार चलता था और व्यापार सीजन की समाप्ति पर सेल्कू उत्सव मनाया जाता था। उन्हीं यादों को जिंदा रखने के लिए यह सिलसिला आज भी चला आ रहा है। सेल्कू का अर्थ है 'सोएगा कौन '। इस त्योहार का स्वरूप भी दीपावली जैसा ही है। त्योहार में कई तरह के पकवान बनाए जाते हैं और दीपावली में चीड़ व देवदार की लकड़ियों के छिल्लों से बना भैलो खेला जाता है।

इस तरह से होता था व्यापार

भारत-चीन युद्ध से पहले इस गांव के ग्रामीण तिब्बत के दोरजी (तिब्बती व्यापारी) के साथ व्यापार करते थे। नमक, ऊनी कपड़े, चमड़े के जूते आदि सामान तिब्बती व्यापारी यहां के लोगों से खरीदते थे और बदले में तिब्बती व्यापारियों को झंगोरा, धान, गेहूं, मंडुवा, फाफर, कुट्टू आदि अनाज बेचे जाते थे। इस व्यापार के लिए मुखवा के निकट नागणी, नेलांग व सुमला में मंडियां लगती थी। शीतकाल में तिब्बत से जोड़ने वाले दर्रे (हिमालयी मार्ग) बर्फ से बंद हो जाते थे। इसलिए व्यापार सीजन समाप्त होने पर दो दिन का उत्सव मनाया जाता था। इतिहासकार सेमवाल बताते हैं कि मुखवा गांव के निकट नागणी नामक स्थान है, जहां बाजार लगा करता था। गढ़वाल के प्रसिद्ध लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी के एक गीत में इस नागणी बाजार का जिक्र हुआ है। पहले इसी स्थान पर यह सेल्कू उत्सव मनाया जाता था। लेकिन, अब यह उत्सव गांव में मनाया जाता है और इस दौरान सोमेश्वर देवता की पूजा की जाती है।

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ऐसे मनाया जाता है सेल्कू उत्सव

मुखवा गांव निवासी राजेश सेमवाल बताते हैं कि सेल्कू उत्सव पर ग्रामीण अपने घरों में मक्की के आटे व गुड़ को मिलाकर द्यूड़ा, स्वाले, पकौड़े आदि पकवान बनाते हैं। मुखवा स्थित गंगा मंदिर परिसर में ग्रामीण चीड़ व देवदार की लकड़ी के छिल्लों से बने भैलो खेलते हैं। इसके बाद ब्रह्मकमल, जययाण, केदार पत्ती व गंगा तुलसी से सोमेश्वर देवता की पूजा की जाती है। ग्रामीण पूरी रात रांसो व तांदी नृत्य की छटा बिखेरते हैं।

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