Emergency: प्रत्यक्षदर्शियों ने बयां किए काले अध्याय के अनुभव, लोकतंत्र की बहाली की बात करना था जुर्म

आपातकाल को करीब से देखने वाले सत्याग्रहियों के जेहन में वह वख्फा हमेशा के लिए कैद हो गया। उस वक्त को याद करते ही आपातकाल का गवाह बने लोग असमंजस के दौर में ठिठक कर रह जाते हैं।

By Bhanu Prakash SharmaEdited By: Publish:Thu, 25 Jun 2020 08:24 AM (IST) Updated:Thu, 25 Jun 2020 08:24 AM (IST)
Emergency: प्रत्यक्षदर्शियों ने बयां किए काले अध्याय के अनुभव, लोकतंत्र की बहाली की बात करना था जुर्म
Emergency: प्रत्यक्षदर्शियों ने बयां किए काले अध्याय के अनुभव, लोकतंत्र की बहाली की बात करना था जुर्म

देहरादून, सुमन सेमवाल। जिन लोगों ने आजादी की पहली सांस ली, उनके लिए 25 जून 1975 में लागू किया गया आपातकाल (इमरजेंसी) सांसों पर पहरे के समान था और जो लोग आजादी के बाद जन्मे उनके लिए यह घटना धड़कनों के थम जाने जैसी थी। सड़क से लेकर घर तक जुबां खोलने का जो डर देश के तमाम हिस्सों में था, वही भय अविभाजित उत्तर प्रदेश का हिस्सा रहे उत्तराखंड में भी समान रूप से नजर आया था। 

आपातकाल को करीब से देखने वाले सत्याग्रहियों व अन्य लोगों के जेहन में वह वख्फा हमेशा के लिए कैद हो गया। उस वक्त को याद करते ही आपातकाल का गवाह बने लोग असमंजस के दौर में ठिठक कर रह जाते हैं। हर व्यक्ति इस डर के साथ जी रहा था कि उसका कौन सा कदम न जाने कब उसे दंड का भागी बना डाले। 

हालात के प्रत्यक्षदर्शियों के मुताबिक, जन संघ/आरएसएस, छात्र युवा संघर्ष वाहिनी, सर्वोदय व सरकार के खिलाफ आवाज उठाने वाले तमाम लोगों को ढूंढ-ढूंढकर आंतरिक सुरक्षा कानून (मीसा) के तहत गिरफ्तार किया जा रहा था। लोकतंत्र की पैरवी करने वाले ऐसे तमाम लोगों को न सिर्फ जेल में डाला गया, बल्कि तरह-तरह से यातनाएं भी दी गईं। 

इस समय उत्तराखंड में 80 लोग ही अभी हैं, जिन्होंने उस काले कालखंड की यातना को सहा था। 21 मार्च 1977 को आपातकाल से देश को मुक्ति मिली, मगर यह 21 महीने इतिहास में हमेशा के लिए काले अध्याय के रूप में दर्ज हो गए। आइए आपातकाल के साक्षी बने लोगों से उन्हीं की जुबानी 21 माह के कठिन दौर को महसूस करते हैं। 

तानाशाही को चुनौती देने पर मिली जेल

उत्तरांचल उत्थान परिषद के अध्यक्ष प्रेम बड़ाकोटी के मुताबिक, जब देश में आपातकाल लागू किया गया, तब मेरी उम्र 21 वर्ष की थी। उस समय मुझे सहारनपुर में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) के प्रचारक की जिम्मेदारी मिली थी। हम लोगों को जागरुक कर रहे थे और सरकार के तानाशाही रवैये का विरोध कर रहे थे। 

उसी दौरान हमें जेल में डाल दिया गया। करीब साढ़े तीन माह के बंदी जीवन में 150 लोगों में एक ही छात्र मुझसे उम्र में छोटा था। जेल के भीतर भी हमारी मुहिम जारी रही। दूसरी तरफ जेल के बाहर भी आपातकाल के विरोध में हमारा आंदोलन व्यवस्थित, नियोजित व अनुशासित तरीके से चल रहा था। 

इसके अलावा तमाम लोग भूमिगत होकर भी आंदोलन को धार दे रहे थे। बड़ी संख्या में लोगों का समर्थन भी सत्याग्रहियों को मिलने लगा था। आंदालनों के इतिहास में संघ परिवार का यह आंदोलन भी अहम स्थान रखता है। आज की पीढ़ी ने उस दौर को नहीं देखा, मगर उन्हें आपातकाल (इमरजेंसी) के बारे में जरूर पढऩा चाहिए। ताकि वह जान सकें कि लोकतंत्र की रक्षा करना ही सबसे बड़ा कर्म है। यदि भविष्य में कभी ऐसा दौर लाने की कोशिश की जाए तो भावी पीढ़ी को अपने इतिहास से सीख लेकर उसका डटकर मुकाबला करना चाहिए।

एक वक्त का भोजन, मटकाभर पानी और पुलिस की मार

विश्व हिंदू परिषद के केंद्रीय संयुक्त मंत्री आनंद प्रकाश हरबोला बताते हैं कि तब मैं 19 साल का था और हल्द्वानी में बीएससी का छात्र था। 13 नवंबर 1975 की आधी को मैं अपने एक साथी के साथ लोकतंत्र की बहाली को लेकर वाल पेंटिंग कर अपने कमरे पर लौट रहा था। तभी पुलिस पहुंच गई और हमें हिरासत में ले लिया। 14 नवंबर को हमें गिरफ्तार कर लॉकअप में रख दिया गया। 

इस तरह कुल 14 लोगों को वहां रखा गया। सात दिन लॉकअप में ही रखा गया और सिर्फ एक वक्त का भोजन दिया जाता था। पानी व अन्य प्रयोग के लिए मटकाभर पानी ही उपलब्ध कराया जाता था। पुलिस वाले हमें एक-एक कर बुलाते और जानकारी लेने के बहाने पिटाई भी कर देते थे। रोज का यही काम था। फिर हमें हल्द्वानी की सब-जेल में रखा गया। इस दौरान मैं बीमार पड़ गया। मुझे सिविल अस्पताल में भर्ती कराया गया, मगर मेरे हाथ बेड पर हथकड़ियों से ही बंधे रहते। 

करवट बदलने के लिए भी पुलिस की मिन्नतें करनी पड़ती थीं। कुछ दिन बाद नैनीताल और फिर बरेली सेंट्रल जेल भेज दिया गया। यहां से भी चार माह बाद हमें फिर से नैनीताल शिफ्ट कर दिया गया। करीब आठ महीने जेल में रखने के बाद रिहाई की गई। हमारी खता सिर्फ यह थी कि लोकतंत्र की बहाली के लिए शांतिपूर्ण ढंग से आवाज उठा रहे थे। 

17 वर्ष की उम्र में घर से उठाकर ले गई पुलिस

हल्द्वानी निवासी गिरीश चंद्र कांडपाल के अनुसार, वह 19 दिसंबर 1975 की सर्द रात थी। तब मेरी उम्र 17 साल थी और मैं हल्द्वानी के मोतीराम बाबू इंटर कॉलेज में 12वीं का छात्र था। उस रात मैं घर में पढ़ाई कर रहा था। तभी पुलिस धड़धड़ाते हुए घर में घुसी और मुझे जकड़कर एक कोने में बैठा दिया। 

पुलिस वाले घर की तलाशी में जुट गए। दीवार पर लगे केशवराव बलीराम, माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर सहित कई अन्य महापुरुषों के पोस्टर फाड़ दिए गए। मुझसे तरह-तरह के सवाल किए जाने लगे। दरअसल, मेरे पिता जयदत्त कांडपाल को सत्याग्रह आंदोलन के चलते पूर्व में ही 26 जुलाई 1975 को गिरफ्तार किया जा चुका था। 

उस रात हल्द्वानी थाने में बैठाकर मुझे प्रताड़ित किया गया। फिर सब-जेल में डाल दिया गया। बाद में मुझे बरेली के सेंट्रल जेल भेजा गया, जहां 200 राजनैतिक बंदी पहले से रखे गए थे। मेरी अल्पायु को देखते हुए सभी सत्याग्रहियों का मुझसे खासा लगाव रहा। 

गणतंत्र दिवस के उपलक्ष्य पर वहां बड़ी बैठक की गई। तब मैने गेंदे के फूल से भगवा, फूल गोभी से सफेद व हरी घास से हरा रंग शामिल कर राष्ट्रध्वज का स्वरूप दिया। सभी ने राष्टगान व राष्ट्रगीत गाया। कुछ समय बाद मुझे नैनीताल जेल में शिफ्ट कर दिया गया और यहीं से मुझे रिहा किया गया।

सत्याग्रह पर बैठे थे और उठा कर ले गई पुलिस

आरएसएस के सह प्रांत व्यवस्था प्रमुख नीरज कुमार मित्तल बताते हैं कि इतिहास के काले अध्याय के रूप में दर्ज हो चुके आपातकाल की दास्तां भुलाए नहीं भूल पाती है। तब मैं 19 साल का था और देहरादून के डीएवी पीजी कॉलेज में बीएससी में पढ़ता था। संघ परिवार से जुड़े होने के चलते हम लोकतंत्र की बहाली को शांतिपूर्ण ढंग से आंदोलन चला रहे थे। 

एक रोज मैं व मेरे कुछ साथी कचहरी परिसर में सत्याग्रह पर बैठे थे। उस दिन पहले जनता को जागरुक करने के लिए कुछ पर्चे भी बांटे थे। पुलिस आई और हमें उठाकर ले गई। फिर हमें देहरादून की जेल (पुरानी जेल) में बंद कर दिया गया। वहां से हम 75 दिन बाद रिहा हुए। सत्याग्रहियों के रूप में यहां से कुल 14 लोगों को पकड़ा गया था। पुलिस हमें जानती थी तो उनकी यातना से बच गए। कुछ लोगों को जरूर प्रताड़ित किया गया।

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बाहर भी यही आलम नजर आता था। आज हम मजबूत लोकतंत्र में सांस ले रहे हैं, मगर आजादी के बाद गुलामी के उन 21 महीनों की टीस आज भी चुभती रहती है। वर्तमान पीढ़ी को आपातकाल के काले अध्याय के बारे में पूरी जानकारी होनी चाहिए। इतिहास में झांककर ही हम भविष्य की तरफ मजबूत कदम बढ़ाने और अपने वर्तमान व भविष्य में सुधार करने के प्रयास कर सकते हैं।   

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