उत्तराखंड में फाइलों में कैद होकर रह गए ड्रोन, अफीम-डोडा, पोश्त और खसखस की खेती पर रखी जानी थी नजर

देश के सीमांत क्षेत्र में दशकों से अफीम की खेती होती है। सरकार से लेकर प्रशासन व पुलिस अधिकारियों को इसकी जानकारी है। बावजूद इसके इस पर रोक नहीं लग पाई है। कारण राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव है।

By Raksha PanthariEdited By: Publish:Fri, 04 Dec 2020 09:48 AM (IST) Updated:Fri, 04 Dec 2020 01:44 PM (IST)
उत्तराखंड में फाइलों में कैद होकर रह गए ड्रोन, अफीम-डोडा, पोश्त और खसखस की खेती पर रखी जानी थी नजर
उत्तराखंड में फाइलों में कैद होकर रह गए ड्रोन।

विकास गुसाईं, देहरादून। प्रदेश के सीमांत क्षेत्र में दशकों से अफीम की खेती होती है। सरकार से लेकर प्रशासन व पुलिस अधिकारियों को इसकी जानकारी है। बावजूद इसके इस पर रोक नहीं लग पाई है। कारण, राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव। दरअसल, उत्तराखंड में अभी कई जिलों में अफीम, डोडा, पोश्त व खसखस की खेती हो रही है। इसमें देहरादून के चकराता क्षेत्र, उत्तरकाशी व टिहरी के कुछ इलाके शामिल हैं। खुफिया विभाग की रिपोर्ट के अनुसार यहां कई एकड़ जमीन पर अफीम की अवैध पैदावार की जाती है। सीमांत व दुरुह पर्वतीय क्षेत्र होने के कारण पुलिस व नारकोटिक्स महकमा इन तक नहीं पहुंच पाता है। इसे देखते हुए पुलिस ने ड्रोन की मदद से ऐसी खेती पर नजर रखने का निर्णय लिया। बाकायदा 10 ड्रोन खरीदने का प्रस्ताव शासन के जरिये केंद्र को भेजने की बात कही गई। प्रस्ताव तैयार हुआ, लेकिन इसके बाद यह फाइलों में ही कैद होकर रह गया।

आखिर कब अस्तित्व में आएगा मरीन ड्राइव 

पर्वतीय क्षेत्र में मरीन ड्राइव का नजारा। आने जाने वाले पर्यटक अलकनंदा के तट पर घूमते हुए प्राकृतिक सौंदर्य का आनंद लेंगे। सरकार ने योजना की बात कही, तो स्थानीय लोगों के भीतर भी उम्मीद जगी। इस दिशा में कदम उठाए गए, डीपीआर बनाने की बात हुई। दो साल की कवायद के बावजूद अभी इस दिशा में बहुत अधिक काम नहीं हो पाया है। दरअसल, वर्ष 2018 में प्रदेश के उच्च शिक्षा राज्य मंत्री धन सिंह रावत ने लोक निर्माण विभाग को उफल्डा पंचपीपल से श्रीकोट तक अलकनंदा नदी किनारे मरीन ड्राइव का निर्माण करने को कहा। मंत्रीजी के निर्देश पर विभाग हरकत में आया। साढ़े सात किलोमीटर लंबे डबल लेन मार्ग के निर्माण का प्रस्ताव तैयार हुआ, टेंडर आमंत्रित किए गए, तो कोई सामने नहीं आया। दूसरी बार एक कंपनी ने रुचि दिखाई तो उम्मीद जगी। इसके बाद से ही अब मरीन ड्राइव बनने का इंतजार हो रहा है।

क्लीनिकल एस्टेब्लिशमेंट एक्ट पर कब छटेगा कुहासा

स्वास्थ्य सेवाओं में पारदर्शिता व बेहतरी के उद्देश्य से बनाया गया क्लीनिकल एस्टेब्लिशमेंट एक्ट अभी प्रदेश में केवल नाम के लिए ही लागू है। शासन व विभाग के लचर रवैये के कारण अभी तक अस्पतालों में इसका सख्ती से अनुपालन नहीं कराया जा सका है। इससे आमजन को इसका कोई फायदा नहीं मिल पा रहा है। इसे लागू करने से पहले इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आइएमए) इसमें संशोधन चाहता है। इस मसले पर शासन और आइएमए के बीच कई दौर की बातचीत हो चुकी है लेकिन हल नहीं निकल पाया है। दरअसल, केंद्र सरकार ने वर्ष 2010 में क्लीनिकल एस्टेब्लिशमेंट एक्ट पारित किया था। स्वास्थ्य सेवाओं में पारदर्शिता व सिस्टम की बेहतरी के मकसद से बनाए गए एक्ट को लागू करना राज्य सरकारों के लिए भी बाध्यकारी किया गया। इससे आमजन को फायदा मिलना तय है। इससे जहां इलाज की दरें सस्ती होंगी, तो वहीं अस्पतालों की जिम्मेदारी भी निर्धारित होगी।

वाहन में नहीं लगाए जा सके डस्टबिन 

प्रदेश में स्वच्छता की दिशा में कई कदम उठाए जा रहे हैं। इस कड़ी में सरकार ने वाहनों के भीतर भी डस्टबिन लगाने का निर्णय लिया। मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत की अध्यक्षता में हुई बैठक में इस निर्णय को लागू करने की बात हुई। मुख्यमंत्री ने सड़कों को साफ रखने और वाहनों से फेंकी जाने वाली बोतलों व अन्य कूड़े से दुर्घटना की आशंका के मद्देनजर वाहनों के भीतर डस्टबिन रखने के निर्देश दिए। सचिवालय व विधानसभा में कार के भीतर लगाने के लिए डस्टबिन तक बांटे गए। कहा गया कि व्यापक प्रचार-प्रसार करने के साथ ही आमजन को वाहनों के भीतर इन्हें लगाने के लिए प्रेरित किया जाएगा। इसके लिए डस्टबिन बनाने वाली कंपनी को भी तलाशा गया। बात हुई कि इसके लिए परिवहन विभाग एक आदेश भी जारी करेगा। स्वच्छता की यह मुहिम कुछ दिनों तक जोर-शोर से चलने के बाद फाइलों के ढेर में दब गई है।

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