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उत्तराखंड में भी विकास और जैविक दबाव से जूझ रहे जंगल

उत्तराखंड में कोई योजना अथवा परियोजना बगैर वन भूमि के संभव नहीं है। अब तक की तस्वीर तो यही बयां कर रही है। विभिन्न योजनाओं परियोजनाओं के लिए प्रतिवर्ष ढाई से तीन हजार हेक्टेयर वन भूमि का हस्तांतरण हो रहा है और 30 से 40 हजार पेड़ कट रहे हैं।

By Sunil NegiEdited By: Published: Thu, 03 Dec 2020 06:45 AM (IST)Updated: Thu, 03 Dec 2020 06:45 AM (IST)
उत्तराखंड में भी विकास और जैविक दबाव से जूझ रहे जंगल
उत्तराखंड में कोई भी योजना अथवा परियोजना बगैर वन भूमि के संभव नहीं है।

राज्य ब्यूरो, देहरादून: विषम भूगोल और 71.05 फीसद वन भूभाग वाले उत्तराखंड में कोई भी योजना अथवा परियोजना बगैर वन भूमि के संभव नहीं है। अब तक की तस्वीर तो यही बयां कर रही है। विभिन्न योजनाओं, परियोजनाओं के लिए प्रतिवर्ष ढाई से तीन हजार हेक्टेयर वन भूमि का हस्तांतरण हो रहा है और 30 से 40 हजार पेड़ कट रहे हैं। इसके अलावा फायर सीजन के दरम्यान आग से वन संपदा को भारी क्षति पहुंच रही है। बावजूद इसके आग से वन संपदा को पहुंचने वाली क्षति के मानक और क्षतिपूरक वनीकरण की तस्वीर हैरत में डालने वाली है। स्थिति ये है कि क्षतिपूरक वनीकरण के लिए भूमि नहीं मिल पा रही है। हालांकि, विशेषज्ञों का कहना है कि विकास और जंगल में सामंजस्य जरूरी है, लेकिन इसमें एक सीमा तक ही समझौता होना चाहिए। साथ ही क्षतिपूरक वनीकरण को प्रभावी नीति बनाने की आवश्यकता है।

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यह किसी से छिपा नहीं है कि पर्यावरण संरक्षण में उत्तराखंड के जंगल महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। कुछ समय पहले राज्य सरकार ने आकलन कराया तो बात सामने आई कि उत्तराखंड प्रतिवर्ष करीब तीन लाख करोड़ की पर्यावरणीय सेवाएं देश को दे रहा है। इनमें अकेले वनों की भागीदारी 98 हजार करोड़ रुपये की है। साफ है कि वनों को बचाए रखने से ही यह संभव हो पाया है, लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू भी है। वह है जंगलों पर निरंतर बढ़ता विकास और जैविक दबाव।

राज्य में छोटी अथवा बड़ी कोई भी विकास योजना तब तक अस्तित्व में नहीं आ पाती, जब तक उसके लिए वन भूमि का हस्तांतरण न हो। परिणामस्वरूप प्रति वर्ष बड़े पैमाने पर जंगल की जमीन विकास योजनाओं के लिए दिए जाने से वहां पेड़ों का कटान भी हो रहा है। हालांकि, इसके लिए विकासकर्ता अथवा विभाग नेट प्रजेंट वेल्यू के आधार पर वन भूमि की लागत चुकाते हैं। साथ ही हस्तांतरित भूमि पर खड़े एक पेड़ के एवज में 10 पौधे लगाने का प्रविधान है। ये बात अलग है कि वन भूमि हस्तांतरण में सिविल सोयम की भूमि पर अधिक फोकस होता है, लेकिन इस पर खड़े पेड़ों के एवज में क्षतिपूरक वनीकरण के लिए भूमि मिलना मुश्किल होने लगा है।

उत्तराखंड प्रतिकरात्मक वन रोपण निधि योजना एवं प्रबंधन प्राधिकरण को दो साल में तीन हजार हेक्टेयर क्षेत्र में वनीकरण करना है, लेकिन उसे इसके लिए भूमि नहीं मिल पा रही है। फॉरेस्ट फायर के दरम्यान तबाह होने वाली वन संपदा के मामले में भी तस्वीर चौंकाती है। क्षति का सरसरी तौर पर आकलन होता है, लेकिन पर्यावरण तंत्र को पहुंचने वाली क्षति के आकलन का कोई प्रविधान ही नहीं है।

बोले विशेषज्ञ

  • पद्मभूषण डॉ अनिल प्रकाश जोशी (संस्थापक हेस्को संगठन) ने कहा कि पर्यावरण संरक्षण में पेड़ों के योगदान से हर कोई वाकिफ है। यदि कोई पेड़ कटता है तो उसके सापेक्ष पर्यावरणीय सेवाएं देने में नए पौधे को वर्षों लगेंगे। लिहाजा, वन विभाग के वर्किंग प्लान में व्यवस्था होनी चाहिए कि सूख चुके या सूखने के कगार पर पहुंचे पेड़ ही कटें। साथ ही जो पेड़ कटते हैं, उसी की प्रजाति का रोपण किया जाना चाहिए। क्षतिपूरक वनीकरण के लिए ठोस एवं प्रभावी नीति बनाई जानी आवश्यक है।
  • डॉ आरबीएस रावत (अध्यक्ष पीपुल्स बायोडायवर्सिटी रजिस्टर मॉनीटरिंग कमेटी, उत्तर भारत) ने कहा कि विकास कार्यों में पर्यावरण संरक्षण को हर हाल में प्राथमिकता देनी होगी। जहां भी पेड़ों को काटने की बात करते हैं, उसे उस स्थिति में लाने में 50 से 100 साल लग जाते हैं। ऐसी योजनाओं पर ध्यान देना चाहिए, जिसमें पर्यावरण की क्षति न के बराबर हो। क्षतिपूरक वनीकरण के तहत रोपे जाने वाले पौधों के लिए पर्वतीय क्षेत्र में छह से सात साल तक और मैदानी क्षेत्र में कम से से कम पांच साल तक देखभाल की व्यवस्था होनी चाहिए।

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