गुप्तकाल में अविमुक्तेश्वर के नाम से पूजित हुए विश्वेश्वर, चीनी यात्री युवांग च्यांग ने पूजा का किया उल्लेख

सन 1940 में नगर के राजघाट क्षेत्र में हुए पुरातात्विक उत्खनन के दौरान मिली प्रतिमाओं व मुद्राओं के जरिए खुोदाई में कुषाण कालीन सामग्रीयों की बहुलता के चलते इतिहासवीरों ने माना है कि तपस्या प्रधान होने के कारण पूर्व के कुछ अनुष्ठान सार्वजनिक नहीं रह गए थे।

By Abhishek SharmaEdited By: Publish:Thu, 02 Dec 2021 10:04 AM (IST) Updated:Thu, 02 Dec 2021 10:04 AM (IST)
गुप्तकाल में अविमुक्तेश्वर के नाम से पूजित हुए विश्वेश्वर, चीनी यात्री युवांग च्यांग ने पूजा का किया उल्लेख
इसी काल खंड में शुरु हुआ शिवलिंगों के साथ शैव प्रतिमाओं के गढ़न का भी चलन।

वाराणसी, जागरण संवाददाता। प्रथम शती से तृतीय शती तक बौद्ध धर्म के प्राबल्य के चलते काशी में शिवपूजा घरों की चहार दिवारी के अंदर तक ही सिमट कर रह गई थी। बाद में गुप्त काल में एक बार फिर शैव मत पूरे प्रभाव के साथ काशी में स्थापित हुआ। इस तथ्य की पुष्टि होती है सन 1940 में नगर के राजघाट क्षेत्र में हुए पुरातात्विक उत्खनन के दौरान मिली प्रतिमाओं व मुद्राओं के जरिए खुोदाई में कुषाण कालीन सामग्रीयों की बहुलता के चलते इतिहासवीरों ने माना है कि तपस्या प्रधान होने के कारण पूर्व के कुछ कालखंडों में शैव धर्म यज्ञ व पूजा के अन्य अनुष्ठान सार्वजनिक नहीं रह गए थे।

तत्कालीन ग्रंथों से प्राप्त आख्याओं के अनुसार गुप्त साम्राज्य के स्वर्णिम युग में काशी में एक बार फिर शैव धर्म का प्रभाव पुर्न प्रतिष्ठित हुआ। एक बार फिर शिवलिंगों की स्थापनाएं होने लगी यज्ञादि अनुष्ठानों का चलन भी पुर्नप्रतिष्ठित हुआ। इसी दौर में पौराणिक काल में भी विश्वेश्वर के नाम से पूजित देवाधिदेव महादेव अविमुक्तेश्वर नाम व वाराणसी पूरपति की उपाधि संग वंदित हुए। राजघाट की खोदाई के दौरान मिली मुद्राओं से यह तथ्य भी मजबूती के साथ स्थापित होता है कि मत्स्य पुराण में काशी के जिन आठ प्रमुख शिवलिंगों का वर्णन आया है वे सभी कई सदियों पूर्व काशी में पूजित थे। मत्स्य पुराण में आमरात केश्वर हरिश्चंद्र जालेश्वर श्रीपर्वत महालय कमिचंडेश्वर केदारेश्वर और अविमुक्तेश्वर का वर्णन आया है। ये सभी किसी न किसी रूप में काशी में हमेशा अवस्थित रहे। राजघाट के उत्खनन में आमरात केश्वर और अविमुक्तेश्वर की मुद्राएं भी प्राप्त हुई हैं। इन मुद्राओं पर गुप्तकालीन लिपी से लेकर आठवीं नौवीं शती में प्रचलित लीपियों के अक्षर अंकित हैं।

ये मुद्राएं प्रमाणित करती हैं कि गुप्तकाल से लगायत नौवीं शताब्दी तक अविमुक्तेश्वर की पूजा काशी में प्रचलित थी। मुद्राओं पर अविमुक्तेश्वर के जो लक्षण मुद्रित हैं। उनमें त्रिशुल, परशु व वृषभ (बैल) स्पष्ट हैं। इससे यह तथ्य भी पुष्ट होता है कि एक और उपाधि श्रीदेव-देव स्वामिन से अलंकृत इस देवता का कोई एक मंदिर भी काशी में जरूर रहा होगा। राजघाट से जो एक और मुद्रा प्राप्त हुई है जिस पर आरंभिक गुप्त युग के अक्षरों में श्रीदेव-देव स्वामिन उकेरा गया है। डा. मोतीचंद्र ने अपने ग्रंथ काशी का इतिहास में इसका संबंध काशी के सबसे विशाल शैव मंदिर अविमुक्तेश्वर देवालय से जोड़ा है। चीनी यात्री युवांग च्यांग ने भी अपने यात्रा वृतांत में काशी में देव-देव की पूजा परंपरा का उल्लेख किया है। इतिहास विद डा. कमल गिरी के अध्ययन के अनुसार राजघाट के उत्खनन से प्राप्त इन मुद्राओं के जरिए गुप्तकाल या उससे थोड़े आगे के समय काल के जिन और शिवलिंगों और मंदिरों का पता चलता है उनमें श्रीसारशत्व योगेश्वर भृंगेश्वर प्रीतिकेश्वर भोगकेश्वर प्रागेश्वर हस्तिश्वर गंगेश्वर व गभटीश्वर के नाम प्रमुख हैं। उल्लेखनीय यह भी कि इन सभी मुद्राओं पर भगवान शिव के सभी लक्षण उकेरे गए हैं।

गुप्तकाल में ही शुरु हुआ शिवप्रतिमाओं के गढ़न का सिलसिला : गुप्तकाल में ही शिवलिंगों के साथ शिव प्रतिमाओं के गढ़न का चलन भी प्रारंभ हुआ। डा. कमल गिरी ने इसका जिक्र करते हुए उत्खनन में ही प्राप्त गुप्त काल की एक प्रतिमा के मस्तक की सुंदरता का विशद वर्णन किया है। भगवान शिव की इस प्रतिमा का मस्तक अर्धचंद्र व त्रिनेत्र से सुशोेभित है। उन्होंने कला की दृष्टि से इसकी तुलना भुमरा व खोह में प्राप्त प्रतिमाओं के शिल्प से की है।

वन पर्व में अविमुक्तेश्वर के दर्शन लाभ का वर्णन

इसी काल खंड के वन पर्व नामक एक ग्रंथ में काशी के तीर्थ यात्रा महात्म का वर्णन करते हुए लिखा गया है।

अविमुक्तं समासाद्य तीर्थ सेवी कुरुद्वन

दर्शनाद देव-देवस्य मुच्यते ब्रह्महत्यया

अर्थात अविमुक्त तीर्थ क्षेत्र में पहुंचकर भगवान देव-देव स्वामिन (अविमुक्तेशवर) के दर्शन मात्र से श्रद्धालु सभी पाप-तापों से मुक्त हो जाता है।

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