विरासत सहेज लेते तो न सूखते गले

जागरण संवाददाता, महोबा : गर्मी आते ही सबसे ज्यादा प्यास बुझाने की चिंता सताने लगती है, और बा

By JagranEdited By: Publish:Wed, 21 Mar 2018 06:00 PM (IST) Updated:Wed, 21 Mar 2018 06:05 PM (IST)
विरासत सहेज लेते तो न सूखते गले
विरासत सहेज लेते तो न सूखते गले

जागरण संवाददाता, महोबा : गर्मी आते ही सबसे ज्यादा प्यास बुझाने की चिंता सताने लगती है, और बात जब बुंदेलखंड की हो तो ये लाजिमी भी है क्योंकि यहां पेयजल संकट से निपटना आसान नहीं है। एक समय यहां का एक कुआं पूरे मोहल्ले का हलक तर करता था तो तालाब जानवरों व अन्य कामों के लिए संजीवनी का काम करते थे। तालाबों की सुरक्षा साफ सफाई की जिम्मेदारी गांव के हर एक सदस्य की होती थी। वैसे घरों के अंदर भी कुएं थे जो पूरी तरह ढके रहते थे पर आज ये सूख चुके हैं या ग्रामीणों ने इन्हें पाट दिया है। हालांकि पुराने किले और महलों के खंडहर इनका सबूत अब भी दे रहे हैं। इन तालाबों के चारो ओर विशाल शिलाएं मौजूद हैं जहां लोग बैठकर स्नान, कपड़ा धोने का काम करते थे। हालात ये हैं कि चंदेल शासन काल की इन धरोहरों को संजोने के स्थान पर मिटाया जा रहा है।

स्वयं बढ़ा दीं समस्याएं

तीन साल पहले तक श्रीनगर कस्बे के जमींदार मोहल्ले के कुएं से आधा गांव पानी का उपयोग करता था। यहीं के विष्णु स्वरूप शुक्ला कहते हैं कि लोगों को जैसे-जैसे सुविधाएं मिलती गईं अपनी विरासतों को भूल गए। अब उस कुएं का पानी कम ही नहीं बल्कि गंदा भी हो गया है। कस्बा के महेन्द्र तिवारी कहते हैं, कस्बे में पुराने किले में सौ फीट से भी गहरी बहेर बनी हैं। यदि इन्हें सुरक्षित कर लिया जाता तो कस्बा ही नहीं आसपास के कई गांव पानी का उपयोग करते। बीस साल पहले पानी की समस्या इतनी नहीं थी। तब हाईटेक संसाधन भी नहीं थे पर लोग पानी को सुरक्षित रखने को लेकर गंभीर रहते थे। घरों के अंदर बने कुएं ढक कर रखे जाते थे।

तालाबों की होती थी पूजा

लाखों रुपये खर्च करने के बाद भी अब वैसे तालाब नहीं बनते। पहले गांव में तालाब तैयार करने के लिए पूजा होती थी। बिलरही के रामेश्वर गुप्ता कहते हैं कि भूमि की पूजा करने के बाद गांव के लोग वहां एकत्र होते थे और तालाब तैयार करने के लिए योजना बनाई जाती। तालाब खोदाई के लिए हर घर से लोग फावड़ा, कुदाल आदि लेकर पहुंचते थे। मिट्टी की जांच भी होती थी। चरखारी के नैपुरा में सुरई कुएं का पानी पांच साल पहले तक मीठा और ठंडा हुआ करता था। लोगों को जैसे-जैसे सुविधाएं मिलीं तो इसे भूल गए। पानी न निकलने से यह बेकार हो चुका है। पानी भी खारा हो गया है।

गोरखगिरि पर्वत पर है सरोवर

महोबा के गोरखगिरि पर्वत पर अब भी सिद्धबाबा मंदिर के सामने सरोवर है। इसमें साल के आठ माह तक पानी बना रहता है। कई कुएं भी हैं जहां पानी पूरे साल रहता है और पहाड़ में विचरने वाले जीवजंतु उसी पर आश्रित रहते हैं। वहां प्रतिदिन पूजा करने वाले तारा पाटकर कहते हैं कि यह सरोवर पूरी तरह से प्राकृतिक हैं। इसी तरह चरखारी के मंगलगढ़ दुर्ग में सरोवर बना है। इसे बुंदेली राजा ने बनवाया था। इसमें पानी पूरे साल बना रहता है। कस्बे के नूर खां, मुकुंद किशोर गोस्वामी, दीनदयाल सक्सेना कहते हैं कि जो प्राचीन पानी संजोने की पद्धति हैं उन्हें अपना कर जल संरक्षण किया जा सकता है।

बुंदेली कश्मीर के सप्त सरोवर

चरखारी को बुंदेलखंड का कश्मीर इसलिए कहा जाता है क्योंकि यहां चंदेल काल से पानी संजोने के लिए बेहतर संसाधन थे। यह आज भी हैं। यहां सात सरोवर बने हुए हैं। सभी एक दूसरे से जुड़े हैं। पूरे साल सभी सरोवरों में भरपूर पानी रहता है। इस वजह से कस्बा भी हराभरा नजर आता है। पानी होने से पेड़ पौधे भी हैं।

विलुप्त हो रहे सागर नुमा तालाब

महोबा शहर में मदनसागर, रहेलिया सागर, कीरत सागर, कल्याण सागर विशाल तालाब हैं। इन तालाबों में पांच साल पहले तक पानी था और इनकी सीमाएं भी विस्तृत थीं लेकिन अब अतिक्रमण के कारण तालाब सिमटते जा रहे हैं। पानी भी काफी कम हो गया है।

संरक्षण को आगे आना होगा

इतिहासकार डा. एलसी अनुरागी कहते हैं कि पानी की समस्या उसे संरक्षित न करने के कारण ही बढ़ रही है। पहले इतने हाईटेक साधन नहीं थे तब भी पानी की ऐसी किल्लत नहीं थी। लोग पानी को बचाने के प्रति गंभीर रहते थे। विशाल तालाबों के संरक्षण को लेकर प्रशासन को आगे आना चाहिए।

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