ममता के निर्मल आंचल में खिलखिलाते 'विशेष बच्चे'

इस मां का आंचल भी कितना निर्मल है। भेदभाव का एक रेशा तक नहीं कि कौन अपना और कौन पराया। सेवा को जीवन का मकसद बना चुकी यह ममतामयी महिला बस्तियों में घूमकर ऐसे बच्चों को तलाश करती हैं, जो दूसरों से अलग हैं। वह ऐसे 'विशेष बच्चे' हैं, जो भावनाओं की भाषा समझ जाएं, प्यार पाएं तो उनकी जिंदगी भी सज-संवर जाती है। निर्मला ऐसे ही बच्चों को जीवन की मुख्यधारा में आने के लिए प्रशिक्षित करती हैं।

By JagranEdited By: Publish:Sun, 17 Jun 2018 10:23 AM (IST) Updated:Sun, 17 Jun 2018 10:23 AM (IST)
ममता के निर्मल आंचल में खिलखिलाते 'विशेष बच्चे'
ममता के निर्मल आंचल में खिलखिलाते 'विशेष बच्चे'

जागरण संवाददाता, कानपुर : इस मां का आंचल भी कितना निर्मल है। भेदभाव का एक रेशा तक नहीं कि कौन अपना और कौन पराया। सेवा को जीवन का मकसद बना चुकी यह ममतामयी महिला बस्तियों में घूमकर ऐसे बच्चों को तलाश करती हैं, जो दूसरों से अलग हैं। वह ऐसे 'विशेष बच्चे' हैं, जो भावनाओं की भाषा समझ जाएं, प्यार पाएं तो उनकी जिंदगी भी सज-संवर जाती है। निर्मला ऐसे ही बच्चों को जीवन की मुख्यधारा में आने के लिए प्रशिक्षित करती हैं।

कोलकाता में जन्मीं निर्मला का परिवार मूल रूप से बिहार का रहने वाला है। बाद में सभी कानपुर आ गए। समाजसेवा की ओर झुकाव होने की वजह से उन्होंने ¨हदी में एमए करने के बाद भी मास्टर इन सोशल वर्क (एमएसडब्ल्यू) की डिग्री हासिल की। शादी के बाद दो बेटियां हुई और जब वे स्कूल जाने लगीं तो निर्मला खुद को खाली महसूस करने लगीं। उसी समय में वे समाजसेवा के क्षेत्र में जाने के लिए सोसाइटी फॉर एम्पावरमेंट वूमेन यूथ एंड चिल्ड्रेन फॉर एक्शन (सेविका) से जुड़ गई। महिला उत्पीड़न के साथ, दिव्यांग, विशेष बच्चों की समस्याओं की जिम्मेदारी उन्हें सौंपी गई। उसी समय से उनका झुकाव बच्चों की तरफ होता चला गया। विशेष बच्चों को बस्तियों में तलाशना, उन्हें जिंदगी की राह पर लाने के लिए उनके माता-पिता को समझाना ही उनकी दिनचर्या बन गई। उनके मुताबिक, ऐसे बच्चों के माता-पिता को समझाना ही सबसे मुश्किल काम होता है। विशेष बच्चों को अगर ट्रेनिंग न दी जाए तो ज्यादातर बच्चे खुद कुछ भी करने में असमर्थ होते हैं। माता-पिता को समझाया जाता है कि बच्चों को अगर कुछ समय की ट्रेनिंग दे दी जाए और फिजियोथेरेपी के विशेषज्ञ उन्हें एक्सरसाइज करा देंगे तो वे बहुत से कार्य खुद कर सकेंगे। खुद निर्मला के मुताबिक, कई-कई माह समझाने के बाद भी मुश्किल से 30 फीसद माता-पिता बच्चों की ट्रेनिंग और एक्सरसाइज के लिए भेजते हैं। उनके अनुसार छह माह में बच्चों में प्रभाव दिखने लगता है। उनकी पहचान शक्ति बढ़ जाती है और हंसने लगते हैं।

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मां को बच्चे के साथ बुलाते

विशेष बच्चों के मामले में मां को बच्चे के साथ जरूर बुलाया जाता है। साथ ही मां को ही तमाम एक्सरसाइज सिखा दी जाती हैं, ताकि वे बच्चों की करा सकें। इसका लाभ उन्हें तब भी मिलता है, जब वे आना बंद कर देते हैं।

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अभी 48 विशेष बच्चे

इस समय संस्था में 48 विशेष बच्चे नियमित रूप से लाए जा रहे हैं। 15 बच्चे ऐसे हैं, जिनके परिजनों की निर्मला और उनके 10 सहयोगी नियमित रूप से काउंसिलिंग कर रहे हैं। एक बच्चे के इस माह के अंदर तक आने की उम्मीद है।

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बच्चों को पढ़ाया भी जाता

विशेष बच्चों के संस्था में पढ़ा कर भी उनका विकास किया जाता है। इसके लिए भी टीम लगी हुई है।

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दिव्यांग बच्चों का भी प्रशिक्षण

संस्था में वह दिव्यांग बच्चों को भी प्रशिक्षित करती हैं। उन्हें जानकारियां देना, ट्रेनिंग देना व एक्सरसाइज देने का काम भी किया जाता है।

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