कहीं रस्म अदायगी बनकर न रह जाए हिंदी दिवस

हिंदी की सबसे अधिक दुर्दशा हिंदी भाषी क्षेत्र के लोग ही कर रहे हैं। कार्यालयों में भी नहीं हो रहा हिंदी का सम्‍मान। सभी आदेश आते हैं अंग्रेजी में।

By Pradeep SrivastavaEdited By: Publish:Fri, 14 Sep 2018 12:05 PM (IST) Updated:Fri, 14 Sep 2018 02:26 PM (IST)
कहीं रस्म अदायगी बनकर न रह जाए हिंदी दिवस
कहीं रस्म अदायगी बनकर न रह जाए हिंदी दिवस

गोरखपुर, (डा. राकेश राय/क्षितिज पांडेय)। आजादी मिले सात दशक से ऊपर हो गए लेकिन देश में हिंदी को स्थापित करने का मिशन आज भी अधूरा है। भले ही ङ्क्षहदी को राजभाषा का दर्जा दे दिया गया हो लेकिन आज भी वह अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए संघर्ष कर रही है। इस संघर्ष पर विराम क्यों नहीं लग रहा? इस यक्ष प्रश्न के जवाब की तलाश अभी भी जारी है। इसके क्रम में हमें हिंदी को लोकप्रिय बनाने के लिए हो रहे प्रयास पर गौर करना होगा और यह भी देखना होगा कि यह कितना पर्याप्त है। हालांकि गौर करने पर निराशा ही हाथ लगती है। वजह साफ है, हिंदी को लेकर किया जा रहा प्रयास हिंदी दिवस के आसपास तक ही सिमटा नजर आता है।
सितंबर महीने के दस्तक के साथ ही हिंदी को लेकर पखवारा और सप्ताह के आयोजनों का सिलसिला शुरू हो जाता है। भाषणों में हिंदी को लोकप्रिय बनाने को लेकर तमाम योजनाएं बनती हैं। हिंदी के उत्थान को लेकर अंगे्रजी में कसमें खाई जाती हैं। मंच से वादों और दावों का जमकर दौर चलता है। हिंदी के प्रयोग को लेकर तरह-तरह की प्रतियोगिताएं आयोजित होती हैं, विजेताओं को सम्मानित करने का क्रम भी खूब चलता है। लेकिन दुखद यह है कि हिंदी को लेकर यह तेजी और प्रतिबद्धता हिंदी दिवस के आसपास ही दिखती है। जैसे ही हिंदी दिवस की विदाई होती है, हिंदी भी वर्ष भर के लिए विदा कर दी जाती है। एक बार फिर हिंदी दिवस हमारे सामने है और उसकी लोकप्रियता बढ़ाने की चिंता लेकर हम आपके बीच। लेकिन इस बार हमें संकल्पित होना होगा कि हिंदी के विकास और इस्तेमाल को लेकर हो रहे आयोजन महज रस्म अदायगी तक सिमट कर न रह जाए। इसे लेकर प्रयास का सिलसिला हिंदी को मुकाम मिलने तक जारी रहे।

अंग्रेजी में काम और हिंदी का नाम
राजभाषा हिंदी के इस्तेमाल को लेकर कागजों और दीवारों पर चाहे जितने दावे और वादे कर लिए जाएं लेकिन केंद्र सरकार के कार्यालयों में इसकी हकीकत निराश करने वाली है। रेलवे को अगर छोड़ दिया जाए तो किसी भी केंद्र सरकार के कार्यालय या उसके उपक्रमों के कार्यालय में न तो इसे लेकर कोई प्रयास दिख रहा है और न ही चिंता। यह कार्यालय हिंदी दिवस को दायरे में लेकर हिंदी पखवारा या सप्ताह मनाकर ही अपनी जिम्मेदारी की इतिश्री समझ ले रहे हैं। ज्यादातर कार्यालयों में हिंदी का बस नाम ही है, सारे काम अंग्रेजी में ही किए जा रहे हैं। इसे लेकर गुरुवार को की गई पड़ताल के दौरान इन कार्यालयों में वही कर्मचारी हिंदी में कार्य करते दिखे, जिन्हें अंग्रेजी का ज्ञान नहीं है।

अंग्रेजी में मिलते हैं सभी दिशा निर्देश
हिंदी के प्रयोग को लेकर उनकी सहूलियत तब दिक्कत सबब बन जाती है, जब उच्चाधिकारियों का कोई कागजी दिशा-निर्देश उन्हें अंग्रेजी में मिल जाता है। ऐसे में अगर बहुत जरूरी हुआ तो कर्मचारी अंग्रेजी जानने वाले लोगों का सहारा लेते हैं और यदि जरूरी नहीं है तो वह दिशा-निर्देश आलमारी का हिस्सा बनकर रह जाता है। पड़ताल की शुरुआत बीएसएनएल कार्यालय से हुई। वहां हिंदी के प्रचार-प्रसार का दावा तो बहुत किया जाता रहा है लेकिन कर्मचारियों के टेबल पर फैले कागजात अंग्रेजियत की कहानी बयां करते दिखे। पूछने पर दो-टूक सवाल भरा जवाब मिला, जब कागज कंप्यूटर से निकला है तो वह हिंदी में कैसे हो सकता है? डाक विभाग में भी कुछ ऐसे ही हालात देखने को मिले।

सभी परिपत्र अंग्रेजी में
पता चला कि विभाग में आने वाले सभी परिपत्र अंग्रेजी में होते हैं, जो ज्यादातर कर्मचारियों को समझ में नहीं आते। ऐसे में तमाम प्रपत्र आलमारी की शोभा बन कर जाते हैं। स्टेट बैंक की मुख्य शाखा में तो हिंदी के इस्तेमाल को यह कहकर खारिज कर दिया गया कि फिलहाल तकनीकी विकास के दौर में हिंदी का इस्तेमाल किसी चुनौती से कम नहीं। अगर हिंदी में कार्य करने की प्रतिबद्धता हो जाएगी तो कामकाज ठप हो जाएगा। केवल पूर्वोत्तर रेलवे के कार्यालयों में न केवल हिंदी के इस्तेमाल की जद्दोजहद दिखी बल्कि जिद भी। वहां राजभाषा विभाग हिंदी के इस्तेमाल के इंतजाम के लिए प्रतिबद्ध दिखा।

महज औपचारिकता हैं द्विभाषी फार्म
केंद्र सरकार या उसके उपक्रम वाले संस्थानों में जनता की जरूरत के जो फार्म उपलब्ध कराए जाते हैं, वह कहने को अंग्रेजी और ङ्क्षहदी दोनों भाषाओं में हैं लेकिन उनका द्विभाषी होना महज औपचारिक है। वजह इसमें ङ्क्षहदी के उन कठिन शब्दों का इस्तेमाल है जो आम बोलचाल की भाषा से कोसों दूर है। इसकी वजह जानने के लिए जब तकनीकी विशेषज्ञों से बात की गई तो उन्होंने जो कारण बताया, बेहद अजीब और हिंदी को लेकर गैर-जिम्मेदाराना लगा। विशेषज्ञों के मुताबिक किसी भी फार्म को पहले अंग्रेजी में तैयार किया जाता है और तकनीकी प्रक्रिया से हिंदी में अनुवाद कर दिया जाता है। ऐसे अनुवाद में हिंदी के वह शब्द आ जाते हैं, जो आम बोलचाल में इस्तेमाल नहीं होते। नतीजतन जिसको थोड़ी-बहुत भी अंग्रेजी आती है, फार्म में लिखी ङ्क्षहदी पर नजर तक नहीं डालता।

औपचारिक होता है हिंदी वर्जन फालोड
जानकर अचरज होगा कि केंद्र सरकार से जुड़े, जितने भी परिपत्र या निर्देश उच्च कार्यालयों से अंग्रेजी में आते हैं, उनमें हिंदी वर्जन फालोड तो लिखा होता है लेकिन वह आता कभी नहीं। डाक विभाग के एक सेवानिवृत्त कर्मचारी ने बताया कि शुरुआती दौर में जब यह लिखकर आता था तो सभी उस हिंदी वर्जन का इंतजार करते थे। लेकिन जब वह इंतजार कभी पूरा नहीं हुआ तो अब उसे सरकारी औपचारिकता मान लिया गया है।

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