मुहल्लानामा : आठवीं पीढ़ी गरीब होगी इस डर से छुपा दिया था खजाना Bareilly News

नवाब शहामत अली खां से जुड़ा यह किस्सा 400 साल पहले का है। उनके वालिद जिन बुजुर्ग को जंगल से लाए थे वह गरीब शाह मियां थे। उनकी मजार कोठी बारादरी के ठीक सामने है।

By Abhishek PandeyEdited By: Publish:Mon, 05 Aug 2019 01:03 PM (IST) Updated:Tue, 06 Aug 2019 09:28 AM (IST)
मुहल्लानामा : आठवीं पीढ़ी गरीब होगी इस डर से छुपा दिया था खजाना Bareilly News
मुहल्लानामा : आठवीं पीढ़ी गरीब होगी इस डर से छुपा दिया था खजाना Bareilly News

बरेली, जेएनएन : घोड़े पर बैठकर शिकार करने को जंगल में घूम रहे थे। देखते हैं कि एक पेड़ के नीचे बुजुर्ग बैठे हैं। दूर तक आबादी के निशान नहीं हैं। पूछा, आप यहां क्या कर रहे हैं। न आपके पास खाने के लिए कुछ है और न पीने को पानी है। अनुरोध किया, हमारे साथ चलिए। जवाब में बुजुर्ग ने मना कर दिया लेकिन नवाब शहामत अली खां के वालिद उन्हें अपने साथ ले आए। कोठी के सामने ही रहने के लिए मकान दिया। एक दिन इन्हीं बुजुर्ग ने पेशनगोई (भविष्यवाणी) की। बताया कि तुम्हारी आठवीं पीढ़ी गरीब हो जाएगी। इससे बचने के लिए खजाना अपने महल से निकालकर एक दूसरी कोठी के तहखाने में रख दिया लेकिन कुदरत का लिखा, आखिर सच होकर रहा।

नवाब शहामत अली खां से जुड़ा यह किस्सा 400 साल पहले का है। उनके वालिद जिन बुजुर्ग को जंगल से लाए थे, वह गरीब शाह मियां थे। उनकी मजार कोठी बारादरी के ठीक सामने है। उससे सटी हुई मस्जिद चांद है। इसमें पौने 400 साल पुरानी तख्ती भी लगी है।

मुहल्ले में किस्सा मशहूर है, जब आठवीं पीढ़ी के गरीब होने की बात वालिद ने शहामत अली खां को बताई तो उन्होंने खजाने का बड़ा हिस्सा एक दूसरी कोठी के तहखाने में रखवा दिया। वसीयत भी कर दी। ताकि उनके बाद उनके बेटे और अगली पीढ़ियों तक पता रहे कि खजाना एक कोठी में सुरक्षित है, उसे बुरा वक्त आने पर ही इस्तेमाल किया जाएगा।

 

श्यामगंज चौराहे का मौजूदा स्वरूप। जागरण 

जब ह‍िंदुस्तान का बंटवारा हुआ तो आठवीं पीढ़ी के ज्यादातर लोग पाकिस्तान चले गए। हालांकि वहां दिल नहीं लगने पर वे वापस भी लौट आए लेकिन तब तक सब खत्म हो चुका था। वह कोठी बिक चुकी थी, जिसके तहखाने में खजाना दफन था। पेशनगोई सच साबित हुई। आठवीं पीढ़ी गरीब हो गई और फिर से खड़ा होने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है।

शहामतगंज बनाम श्यामगंज
मुहल्ले का बड़ा हिस्सा अब भी शहामतगंज कहलाता है। पुल से इस पार ज्यादातर लोग शहामतगंज कहते हैं। उस पार श्यामगंज लिखा जाता है। सबसे पहले पुलिस चौकी का नाम श्यामगंज हुआ। उसके पीछे पुराना डाकघर शहामतगंज के नाम से है। पुल बना तो उसका नाम भी श्यामगंज रखा गया। साहू रामस्वरूप डिग्री कॉलेज के पास श्यामगंज नाम से भी डाकघर है। इस इलाके में सबसे बड़ी जायदाद सेठ गिरधारी लाल की है। उनके बेटे अशोक अशोक अग्रवाल बताते हैं कि श्याम उनके परिवार में किसी का नाम नहीं रहा। श्यामगंज नाम यहां के रहने वालों ने ही दिया है। जायदाद के मुकदमे शहामतगंज के नाम से चल रहे हैं। नगर निगम से बिल जुल्फिकारगंज के नाम से आते हैं।

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बाजार में घोड़ों पर लदकर आता था गुड़
यहां सबसे पुरानी दुकान रामा पंसारी की बताई जाती है। दुकान पर बैठने वाले श्याम बताते हैं कि बाजार में पहले बहुत कम दुकानें थीं। शुरूआत में गुड़ बिका करता था, जो घोड़ों पर लदकर आता था। अब यहां पैदल गुजरने वालों के लिए पर्याप्त जगह नहीं। पहले जगह बहुत थी और लोग नहीं दिखते थे।

कोठी में दफन हैं उस दौर के कई राज
पुराना शहर में सैलानी से पहले स्थित शहामत अली खां की कोठी कला का बेहतरीन नमूना थी। उन्हीं की नवीं पीढ़ी से ताल्लुक रखने वाले नवाब अयूब हसन खां बताते हैं कि दरों पर बेहतरीन नक्काशी थी। अदालतें बनी थीं। जहां कभी मुकदमे सुने जाते होंगे। गोशमहल के नाम से तहखाना था, वहां इतनी ठंडक थी, एसी का मजा आता था। कोठी का गेट गिर चुका है। डर की वजह से कोई अंदर नहीं जाता। कहा जाता है कि 1857 में अंग्रेजों ने कोठी में आग लगवा दी थी। कुछ महिलाओं ने कुओं में कूदकर जान दे दी थी। कोठी अब वक्फ मुर्तजाई बेगम का हिस्सा है।

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