कितने बदकिस्मत हैं ये लोग, जिंदगी की अंतिम यात्रा में भी नसीब नहीँ हुआ अपनों का साथ

जालंधर में 250 लोग ऐसे हैं जो न केवल गुमनाम मौत मरे बल्कि उनकी इस जहान से आखिरी विदाई भी गुमनामी में ही हुई। अब सिर्फ उनकी लंबाई, ऊंचाई व अनुमानित उम्र ही रिकॉर्ड में दर्ज है।

By Edited By: Publish:Tue, 19 Feb 2019 09:33 PM (IST) Updated:Wed, 20 Feb 2019 04:54 PM (IST)
कितने बदकिस्मत हैं ये लोग, जिंदगी की अंतिम यात्रा में भी नसीब नहीँ हुआ अपनों का साथ
कितने बदकिस्मत हैं ये लोग, जिंदगी की अंतिम यात्रा में भी नसीब नहीँ हुआ अपनों का साथ

जालंधर [मनीष शर्मा]। जान निकल गई, पहचान न मिली तो गुमनामी में ही जीवन की अंतिम यात्रा पूरी हो गई। यह कड़वी हकीकत है उन लोगों की, जिनको जिंदगी के आखिरी पड़ाव में अपनों का साथ न मिला। वो न केवल गुमनाम मौत मरे बल्कि उनकी इस जहान से आखिरी विदाई भी गुमनामी में ही हो गई। अब सिर्फ वो अपनी लंबाई, ऊंचाई व अनुमानित उम्र से रिकॉर्ड में दर्ज हैं। उनके इस दुनिया में कभी होने के सारे सुबूत पुलिस की 'अनक्लेम्ड बॉडीज' वाली फाइल में दफन होकर रह गए हैं। कोई उनके शव पर दावेदारी जताने न आया तो पुलिस ने भी उनका ब्यौरा कागजी फाइलों में दर्ज कर ड्यूटी निभा दी।

जालंधर शहर में पुलिस को बीते दस वर्षों में ऐसे 285 शव मिले, जिनका कोई वारिस न मिला। लावारिसों की तरह उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया। इनमें सौ से ज्यादा ऐसी हैं, जिनका पुलिस को पता तो दूर, नाम तक नहीं मिल सका। इसका नतीजा यह हुआ कि पुलिस ने भी इनकी लावारिस होने की पहेली को सुलझाने में कोई मशक्कत नहीं की। नतीजतन, अब ये सभी मृतक पुलिस की वेबसाइट एक सूची का हिस्सा बनकर रह गए हैं।

ज्यादातर बुजुर्ग, जिनके अपने नहीं मिले

गुमनाम मौत के बाद गुमनामी में ही संसार से विदा हुए इन लोगों में ज्यादातर बुजुर्ग हैं। जिनकी उम्र 55 साल से ऊपर की है। पुलिस ने आखिरी वक्त में उनका हुलिया कागजों में दर्ज किया। संस्कार के बाद भी उनकी पहचान हो सके, इसके लिए शरीर की निशानी भी दर्ज की, लेकिन दावेदारी न जताने वाले शवों की तादाद वाली यह सूची कम नहीं हुई बल्कि साल दर साल बढ़ती ही चली गई।

जो पहचाने गए, उनके अपने न आए

इस सूची में देखें तो लावारिस की तरह दुनिया से रुखसत हुए कई ऐसे भी हैं जिनका नाम-पता तो पुलिस के पास था लेकिन परिवार के लोग शव लेने नहीं आए। अब वो भी पुलिस के इसी रिकॉर्ड में सीमित होकर रह गए हैं। ऐसा ही एक उदाहरण कुछ दिन पहले भी सामने आया था जब बस्ती गुजां में चल रहे स्टेट प्रोटेक्टिव होम में असम की 22 वर्षीय एलीना ने फंदा लगा खुदकुशी कर ली थी। पुलिस ने परिवार वालों से संपर्क किया, लेकिन वे उसका शव लेने नहीं आए। इस कारण पुलिस को ही उसका अंतिम संस्कार करना पड़ा और पुलिस की दावेदारी न जताने वाले शवों की सूची में एक और नाम जुड़ गया।

हत्या का शक हो तभी सक्रिय होती है पुलिस

लावारिस शवों की पहचान व परिजनों के हाथों अंतिम संस्कार करा आखिरी सम्मान देने में पुलिस की ढिलाई भी कम नहीं। अमूमन ऐसे मामलों में पुलिस तभी सक्रिय होती है जब हत्या का शक हो। पुलिस पोस्टमार्टम करवाकर विसरा जरूर लेती है और फिर मौत की जगह के आसपास के लोगों के बयानों से खानापूर्ति कर फाइल बंद कर देती है। हालांकि पुलिस को शव से मिली चीजों के आधार पर दूसरे जिले या राज्य में फोटो, हुलिया आदि सूचना भेजकर पहचान की कोशिश करनी होती है, मगर असलियत में ऐसा होता नहीं है?। वैसे, पुलिस शव को शिनाख्त के लिए 72 घंटे सुरक्षित जरूर रखती है लेकिन कोई कोशिश न होने से यह भी महज एक खानापूर्ति ही है।

पुलिस पूरी कोशिश करती है कि लावारिस मिलने वाले शवों की पहचान हो सके और उन्हें परिजनों को सौंपा जा सके, लेकिन कई मामलों में शिनाख्त नहीं हो पाती। पुलिस पूरी प्रक्रिया अपनाती है, लेकिन जो रह जाते हैं, उनका पूरे रीति-रिवाज से अंतिम संस्कार करा दिया जाता है।

-गुरमीत सिंह, डीसीपी (इन्वेस्टिगेशन)।

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