कांग्रेस को गठबंधन और पार्टी हित की पथरीली राह पर साधना होगा संतुलन, लोकसभा चुनाव के बाद ये पार्टियां ताकतवर होकर उभरी
लोकसभा चुनाव 2024 ( Congress ) के नतीजों के बाद इंडिया गठबंधन की एक नई वापसी हुई है। I.N.D.I गठबंधन में शामिल होने के बाद समाजवादी पार्टी तृणमूल कांग्रेस और द्रमुक जैसे क्षेत्रीय दल पहले से कहीं ज्यादा ताकतवर होकर उभरे हैं। कांग्रेस की चुनौती इन राज्यों में तब आएगी जब कांग्रेस अपनी राजनीतिक सक्रियता बढ़ाने के लिए पहल शुरू करेगी।

संजय मिश्रस, दैनिक जागरण। लोकसभा चुनाव 2024 ने देश की राजनीतिक व्यवस्था को गठबंधन राजनीति के दौर में लौटने की वास्तविकता स्वीकार करने का संदेश दिया है। मौजूदा जनादेश का यह संदेश सबसे प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस के लिए दोहरे रूप में मायने रखती है। पहला गठबंधन के आधार पर ही कांग्रेस की सियासत का भविष्य निर्भर होने का भाजपा का नैरेटिव अब उसके खिलाफ नहीं चल पाएगा क्योंकि उसकी सत्ता भी एनडीए के सहयोगी दलों पर निर्भर है।
ओडिशा में बीजू जनता दल की करारी हार
दूसरा महत्वपूर्ण पहलू है कि गठबंधन के नए दौर की वापसी ने क्षेत्रीय पार्टियों को राष्ट्रीय राजनीति में प्रासंगिक बने रहने को लेकर फिर से सजग कर दिया है। ओडिशा में बीजू जनता दल की करारी हार के बाद नवीन पटनायक की अपने सांसदों को विपक्ष की भूमिका निभाने का सोमवार को दिया गया संदेश चुनाव नतीजों से पैदा हुई इस सजगता का ज्वलंत प्रमाण है।
नवीन बाबू की इस घोषणा में राष्ट्रीय राजनीति की दो ध्रुवों का नेतृत्व कर रही दोनों सबसे बड़ी के लिए चुनौती छिपी हुई है। मगर इसमें ज्यादा पथरीली राह पर चलने की चुनौतियां कांग्रेस के सामने रहेंगी क्योंकि उसे अपने दलीय हित को सुरक्षित रखते हुए विपक्षी गठबंधन आइएनडीआइए के दलों से समन्वय बनाकर चलना होगा।
ये पार्टियां ज्यादा ताकतवर होकर उभरे
आइएनडीआइए गठबंधन में शामिल समाजवादी पार्टी, तृणमूल कांग्रेस और द्रमुक जैसे क्षेत्रीय दल पहले से कहीं ज्यादा ताकतवर होकर उभरे हैं। ऐसे में कांग्रेस को सहयोगी दलों के कई नेताओं के इरादों-महत्वाकांक्षाओं की सियासत से भी रूबरू होना पड़ेगा। चुनौती राज्यों में तब आएगी जब कांग्रेस अपनी राजनीतिक सक्रियता बढ़ाने के लिए पहल शुरू करेगी।
केंद्र की राजनीति में वर्चस्व बनाए रखना संभव नहीं
विशेषकर उन राज्यों में जहां उसके घटक दलों की पैठ मजबूत है। लोकसभा के इस चुनाव ने एक बार फिर यह इस वास्तविकता को स्थापित कर दिया है कि राज्यों में मजबूत हुए बिना केंद्र की राजनीति में वर्चस्व बनाए रखना संभव नहीं है। इस हकीकत को भली भांति समझते हुए मुख्य विपक्षी दल का दर्जा वापस हासिल करने के बाद स्वाभाविक रूप से कांग्रेस के लिए विपक्षी गठबंधन का राष्ट्रीय स्तर पर नेतृत्व करना जितना अहम है उतना ही महत्वपूर्ण है कि वह कई बड़े राज्यों में अपने विस्तार पर फोकस करे।
चार राज्यों के पार्टी नेताओं के साथ रणनीतिक बैठक
इसमें संदेह नहीं कि पार्टी ऐसा प्रयास भी करेगी और कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने अगले चार महीनों में चुनाव होने जा रहे चार राज्यों के पार्टी नेताओं के साथ रणनीतिक बैठकों का सिलसिला शुरू कर इसका आगाज भी कर दिया है। मगर कई बड़े राज्यों के राजनीतिक समीकरण ऐसे हैं कि कांग्रेस के लिए अपने विस्तार के प्रयासों को आगे बढ़ना इतना सहज भी नहीं।
राजनीतिक आधार को विस्तार देने की पहली परीक्षा
लोकसभा चुनाव के बाद महाराष्ट्र विधानसभा का चुनाव इस लिहाज से पार्टी के लिए गठबंधन की चुनौतियों के बीच अपने राजनीतिक आधार को विस्तार देने की पहली परीक्षा होगी। विशेषकर यह देखते हुए कि महाराष्ट्र में लोकसभा में सबसे अधिक सीटें जीतकर कांग्रेस लंबे अर्से बाद एक बार फिर सबसे बड़ी पार्टी बन गई है।इस कसौटी पर महाविकास अघाड़ी गठबंधन का विधानसभा चुनाव में नेतृत्व करने से लेकर सबसे ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ने का उसका दावा बनता है।
शरद पवार की एनसीपी के साथ ढाई दशक का भरोसा
शरद पवार की एनसीपी के साथ ढाई दशक से भरोसे का उसका एक रिश्ता है इसलिए राज्य में कांग्रेस की बड़े भाई की भूमिका से उन्हें कोई दिक्कत नहीं होगी। मगर बात जब शिवसेना यूबीटी की आएगी तो फिर वह गठबंधन का नेतृत्व कांग्रेस को देने के लिए तैयार नहीं होगी। महाविकास अघाड़ी गठबंधन का नेतृत्व उद्धव ठाकरे के हाथों में ही रहना चाहिए इसको लेकर शिवसेना यूबीटी में किसी तरह की दुविधा नहीं है।
लोकसभा चुनाव के दौरान सीट बंटवारे पर हुई कसरत
लोकसभा चुनाव के दौरान सीट बंटवारे पर हुई कसरत में कांग्रेस को इसका अहसास भी हो गया था जब उद्धव ठाकरे ने मुंबई की एक सीट समेत तीन ऐसी सीटें उसे देने से इन्कार कर दिया था जिस पर कांग्रेस का दावा मजबूत था। शिवसेना यूबीटी के इस रूख के कारण ही संजय निरूपम जैसे नेता को कांग्रेस छोड़ने को बाध्य होना पड़ा। महाराष्ट्र में भाजपा तोड़फोड़ की राजनीति के अपने ही चक्रव्यूह की चुनौती में फंसी नजर आ रही है जहां कांग्रेस के लिए मौका है।
उद्धव की रणनीति से साफ है कि
उद्धव की रणनीति से साफ है कि राष्ट्रीय स्तर पर राहुल गांधी का मुखर समर्थन करते हुए कांग्रेस के साथ मजबूती से खड़े जरूर रहेंगे मगर महाराष्ट्र में उसे बड़े भाई की भूमिका में आने की गुंजाइश नहीं देंगे।इसी तरह सपा से गठबंधन के कारण लोकसभा चुनाव में हुए फायदे के बाद कांग्रेस की नजर अब उत्तरप्रदेश में अपना जमीनी आधार बढ़ाने पर होगी। राज्य में 2014 तथा 2019 की दो लोकसभा चुनावों में बड़ी सफलता के बाद 2024 के तीसरे चुनाव में भाजपा का ग्राफ नीचे आया है।
विधानसभा के अगले चुनाव में भाजपा की क्या तैयारी
ऐसे में कांग्रेस उम्मीद कर रही कि विधानसभा के अगले चुनाव में भी भाजपा तीसरी पारी की दावेदारी में ढ़लान पर रहेगी और बेरोजगारी, महंगाई, पेपर लीक से लेकर संवैधानिक हकों के प्रति जागरूक एक बड़े वर्ग का उससे मोहभंग होगा जिससे पार्टी अपने साथ जोड़ सकती है क्योंकि सपा या बसपा की तुलना में कांग्रेस उनके लिए ज्यादा सहज विकल्प है। केरल की वायनाड सीट से इस्तीफा देते हुए राहुल गांधी ने उत्तरप्रदेश में पार्टी को मजबूत करने के इरादे जाहिर भी कर दिए थे क्योंकि पार्टी नेतृत्व को बखूबी जानता है कि केंद्र में सत्ता की बागडोर संभालने के लिए उसकी झोली में कम से कम 150-200 सीटों का आंकड़ा होना जरूरी है।
इस लक्ष्य तक पहुंचने के लिए उत्तरप्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, झारखंड जैसे राज्यों में आधार बढ़ाना पार्टी के लिए जरूरी है और यहां उसके लिए मौका भी है।मगर इस लोकसभा चुनाव में उत्तरप्रदेश से 37 सीटें जीतकर भाजपा और कांग्रेस के बाद देश के तीसरे सबसे बड़े दल के रूप में उभरे सपा प्रमुख अखिलेश यादव कांग्रेस को राजनीतिक आधार बढ़ाने के लिए इतनी गुंजाइश देंगे इसकी संभावना कम ही है। गठबंधन की राजनीति में पार्टियों के प्रभाव की कसौटी उसकी जमीनी ताकत और संख्या बल से तय होती है।
सपा के सियासी आधार को संकुचित करेगा क्योंकि..
उत्तरप्रदेश में कांग्रेस का विस्तार कहीं न कहीं सपा के सियासी आधार को संकुचित करेगा क्योंकि दोनों पार्टियों के वोट बैंक का सामाजिक आधार लगभग एक ही है। ऐसे में गठबंधन का सामंजस्य तथा राजनीतिक हितों के टकराव से जुड़े मुद्दों की चुनौतियां बनी रहेंगी। बिहार इसका उदाहरण है जहां राजद इस ¨चता के कारण कांग्रेस को आधार बढ़ाने की की गुंजाइश नहीं देता कि पार्टी की पैठ मजबूत होगी तो उसकी सियासी प्रासंगिकता कमजोर होती चली जाएगी। हालांकि राजद जैसे सहयोगी दलों की इस रणनीति को जानते हुए भी गठबंधन की जरूरत को देखते हुए कांग्रेस को कई बार राजनीतिक कुर्बानी देनी पड़ती है।
गठबंधन चलाने के लिए सहयोगी दलों नेताओं के इरादों और महत्वाकांक्षाओं से समन्वय बनाने में कोई बुराई नहीं है मगर कांग्रेस के नए शिखर नेतृत्व राहुल गांधी को पार्टी हित के लिए भी एक सीमा रेखा तो खींचनी ही होगी। यूपीए के गठबंधन के दौर में सोनिया गांधी द्वारा ऐसी सीमा रेखा खींचे जाने का उदाहरण भी पार्टी के पास है।
लालू प्रसाद ने कांग्रेस को केवल तीन-चार सीटें दी तो...
2009 के लोकसभा चुनाव में 22 सीटों के सियासी पराक्रम के बल पर लालू प्रसाद ने कांग्रेस को केवल तीन-चार सीटें दी तो सोनिया गांधी ने राजद से गठबंधन तोड़ अपने उम्मीदवार मैदान में उतार दिए। परिणाम यह हुआ कि सियासी प्रभाव और पराक्रम के बावजूद राजद केवल चार सीटें जीत पायी तो कांग्रेस ने भी अपने बूते चार सीटें बिहार में हासिल कर ली। राज्यों में क्षेत्रीय दलों के प्रभाव के बीच आइएनडीआइए की साझी ताकत के सहारे एनडीए सरकार को राजनीतिक बैकफुट पर रखना कांग्रेस के जितना सहज होगा उससे कहीं ज्यादा चुनौती पार्टी के सियासी आधार को बढ़ाने में आएगी।

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