बहुमत परखना राज्यपाल के विवेक पर निर्भर, कर्नाटक से राजस्‍थान तक विवेक पर विवाद

सत्र राज्यपाल ही बुलाते हैं। राज्यपाल मुख्यमंत्री को बहुमत साबित करने का आदेश भी दे सकते हैं लेकिन राज्यपाल स्पीकर को निर्देश नहीं दे सकते।

By Tilak RajEdited By: Publish:Fri, 14 Aug 2020 06:06 AM (IST) Updated:Fri, 14 Aug 2020 06:06 AM (IST)
बहुमत परखना राज्यपाल के विवेक पर निर्भर, कर्नाटक से राजस्‍थान तक विवेक पर विवाद
बहुमत परखना राज्यपाल के विवेक पर निर्भर, कर्नाटक से राजस्‍थान तक विवेक पर विवाद

नई दिल्ली, माला दीक्षित। पिछले एक सवा साल में कर्नाटक, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, राजस्थान जैसे कुछ राज्यों राज्यपाल, विधानसभा अध्यक्ष, नेता सदन के अधिकारों को लेकर भारी विवाद रहा है और गेंद बार बार कोर्ट के खेमे में पहुंचता रहा है। दरअसल, खंडित जनादेश के मामले में संविधान चुप है। संविधान की चुप्पी राज्यपाल को स्थिति के हिसाब से निर्णय लेने का विवेकाधिकार देती है, लेकिन जहां विवेक की बात आती है वहीं विवाद उठता है। ताजा मामला राजस्थान का है जो हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में हिचकोले खा रहा है। विशेषज्ञों का कहना है ऐसे विवादों का एक ही विकल्प है कि संविधान मे संशोधन कर समयसीमा तय कर दी जाए। राजस्थान में सत्र बुलाने को लेकर राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच लंबी खींचतान के बाद अंत में 14 अगस्त से सत्र शुरू होने वाला है।

हाईकोर्ट के सेवानिवृत न्यायाधीश यतीन्द्र सिंह कहते है कि सामान्यतौर पर बहुमत वाली सरकार की राय मानने को राज्यपाल बाध्य हैं और मंत्रिपरिषद की राय पर सत्र बुलाना चाहिए, लेकिन आजकल विश्वव्यापी कोरोना महामारी के चलते सभी जगह लॉकडाउन है ऐसे में राज्यपाल का सत्र बुलाने की अर्जेसी पूछना गलत नहीं कहा जा सकता। समान्य परिस्थितियों में राज्यपाल सत्र बुलाने से इन्कार नहीं कर सकते थे।

राज्यसभा के पूर्व महासचिव योगेन्द्र नारायण कहते है कि सत्र राज्यपाल ही बुलाते हैं। राज्यपाल मुख्यमंत्री को बहुमत साबित करने का आदेश भी दे सकते हैं, लेकिन राज्यपाल स्पीकर को निर्देश नहीं दे सकते। ज्यादा से ज्यादा मुख्यमंत्री के बहुमत न साबित करने पर सरकार को बर्खास्त करने की सिफारिश कर सकते हैं। संविधान मे तय नहीं है कि कितने समय के भीतर सरकार को बहुमत साबित करना होगा। इसी तरह मंत्रिपरिषद की सलाह पर राज्यपाल विधानसभा का सत्र बुलाएंगे, लेकिन समय यहां भी तय नहीं है। स्पीकर सदस्य की अयोग्यता का फैसला करेंगे, लेकिन कितने वक्त मे स्पीकर अयोग्यता की शिकायत निपटा देंगे इस पर संविधान मौन है। राज्यपाल और स्पीकर को परिस्थितियों के मुताबिक निर्णय लेने का विवेकाधिकार है। संविधान में दोनों को दलगत राजनीति से दूर स्वतंत्र संवैधानिक अथारिटी माना गया है।

लेकिन जस्टिस यतींद्र सिंह कहते हैं कि कई बार राज्यपाल राज्यपाल की तरह स्पीकर स्पीकर की तरह व्यवहार नहीं करते। उनके फैसले राजनीति से प्रेरित होते हैं। वे 1998 में उत्तर प्रदेश के राज्यपाल रोमेश भंडारी द्वारा मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को हटाकर जगदंबिका पाल को सरकार बनाने का निमंत्रण देने के मामले का उदाहरण देते हैं। जिसमें कल्याण सिंह ने इसे हाईकोर्ट मे चुनौती दी थी और हाइकोर्ट ने उन्हें बहाल किया था। सुप्रीम कोर्ट कई फैसलों में राज्यपाल को विवेकाधिकार का सावधानी से प्रयोग करने की नसीहत दे चुका है। कोर्ट ने कहा था कि सरकार गठन के बाद भी राज्यपाल बीच में परिस्थितियों को देखते हुए मुख्यमंत्री को विश्वासमत हासिल करने का आदेश दे सकते हैं, लेकिन राज्यपाल को शक्तियों का बहुत ही सावधानी से इस्तेमाल करना चाहिए। राज्यपाल और स्पीकर के विवेकाधिकार से उपजे विवादों को समाप्त करने के लिए स्थाई विकल्प ढूंढने की आवश्यकता है।

योगेन्द्र नारायण कहते हैं कि संविधान संशोधन करके समयसीमा तय की जानी चाहिए जैसे कि अधिकतम 15 दिन के भीतर बहुमत साबित कर दिया जाए। इसी तरह सत्र बुलाने की समय सीमा भी तय की जा सकती है। समयसीमा सुप्रीम कोर्ट भी तय कर सकता है, लेकिन मामला संवैधानिक पदों पर आसीन लोगों के विवेकाधिकार से संबंधित है तो हो सकता है कि हर मामले में आदेश लेने के लिए कोर्ट जाना पड़े ऐसे में संविधान संशोधन करना ही बेहतर होगा। कानून में समय तय कर दिये जाने की बात से जस्टिस यतीन्द्र भी सहमत हैं। वे कहते हैं कि लिखत-पढ़त में चीज आ जाने से स्थिति स्पष्ट रहती है, लेकिन मुश्किल ये है कि जैसे ही विकल्प निकलेगा तो उसके दुरुपयोग का तरीका ढूंढा जाने लगेगा।

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