इन्हें भी लोग गांधी कहते थे, नाम था बाचा खान

भारत की आजादी की लड़ाई में महात्मा गांधी के अहिंसा आंदोलन का बड़ा योगदान था। ऐसे ही एक और नेता थे, जिन्हें लोग फ्रंटियर गांधी के नाम से जानते थे।

By Digpal SinghEdited By: Publish:Sat, 20 Jan 2018 03:55 PM (IST) Updated:Sat, 20 Jan 2018 06:15 PM (IST)
इन्हें भी लोग गांधी कहते थे, नाम था बाचा खान
इन्हें भी लोग गांधी कहते थे, नाम था बाचा खान

नई दिल्ली, [स्पेशल डेस्क]। भारत की आजादी की लड़ाई में महात्मा गांधी के अहिंसा आंदोलन का बड़ा योगदान था। लेकिन यह भी सच है कि देश में कई और वीर सपूतों ने भी अंग्रेजों से लोहा लेने में कोई कसर नहीं छोड़ी। फिर चाहे वह शहीद-ए-आजम भगत सिंह हों या चंद्रशेखर आजाद, सुभाषचंद्र बोस और अन्य क्रांतिकारी नेता। ऐसे ही एक अन्य नेता खान अब्दुल गफ्फार खां (बाचा खान) भी थे, जिन्हें गांधी जी के एक दोस्त ने फ्रंटियर गांधी का नाम दिया था।

कौन थे फ्रंटियर गांधी

फ्रंटियर गांधी यानि खान अब्दुल गफ्फार खान का जन्म 6 फरवरी 1890 को हुआ था, जबकि 20 जनवर 1988 को उनका निधन हुआ। वे एक पश्तून नेता थे और भारत की आजादी के लिए कई दूसरे आजादी के मतवालों के साथ अंग्रेजों के खिलाफ उन्होंने भी यह जंग लड़ी। उन्होंने एक धार्मिक और राजनीतिक नेता के रूप में पहचान बनाई। महात्मा गांधी की तरह ही वह भी अहिंसा के जरिए विरोध के रास्ते को सर्वोच्च मानते थे, शायद यही कारण रहा होगा कि महात्मा गांधी के एक दोस्त ने उन्हें फ्रंटियर गांधी का उपनाम दिया था।

खुदाई खिदमतगार आंदोलन

खान अब्दुल गफ्फार खां ने साल 1929 में खुदाई खिदमतगार (सर्वेंट ऑफ गॉड) आंदोलन शुरू किया। आम लोगों की भाषा में वे सुर्ख पोश थे। खुदाई खिदमतागर, गांधी जी के अहिंसात्मक आंदोलन से प्रेरित था। इस आंदोलन की सफलता से अंग्रेज शासक तिलमिला उठे और उन्होंने बाचा खान और उनके समर्थकों पर जमकर जुल्म ढाए। 

किस्सा ख्वानी नरसंहार

महात्मा गांधी के नमक सत्याग्रह में शामिल होने वाले बाचा खान को 23 अप्रैल 1923 को अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर लिया। खुदाई खिदमतगार के समर्थन में बड़ी संख्या में लोग पेशावर के किस्सा ख्वानी बाजार में इकट्ठा हो गए। अंग्रेजों ने इन निहत्थे लोगों पर मशीन गन से गोली चलाने का आदेश दे दिया। इस नर संहार में 200-250 लोगों की शहादत हुई। चंद्र सिंह गढ़वाली के नेतृत्व में उस समय गढ़वाल राइफल्स रेजिमेंट की तो पल्टून भी वहां मौजूद थीं, लेकिन उन्होंने अहिंसक प्रदर्शन कर रहे लोगों पर गोली चलाने से इनकार कर दिया। बाद में चंद्र सिंह गढ़वाली और उनके सैनिकों को कोर्ट मार्शल की कार्रवाई झेलनी पड़ी और उनमें से कईयों को उम्र कैद की सजा हुई।

बंटवारे के विरोधी रहे फ्रंटियर गांधी

खान अब्दुल गफ्फार खान देश के बंटवारे के बिल्कुल खिलाफ थे। उन्होंने ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के अलग पाकिस्तान की मांग का विरोध किया था और जब कांग्रेस ने मुस्लिम लीग की मांग को स्वीकार कर लिया तो इस फ्रंटियर गांधी ने दुख में कहा था - 'आपने तो हमें भेड़ियों के सामने फेंक दिया है।' जून 1947 में खान साहब और उनका खुदाई खिदमतगार एक बन्नू रेजोल्यूशन लेकर आया, जिसमें मांग की गई कि पाकिस्तान के साथ मिलाए जाने की बजाय पश्तूनों के लिए अलग देश पश्तूनिस्तान बनाया जाए। हालांकि अंग्रेजों ने उनकी इस मांग को खारिज कर दिया।

पाकिस्तान में बड़े दुख झेले

देश के बंटवारे के बाद जब भारत और पाकिस्तान अलग-अलग हुए तो खान अब्दुल गफ्फार खान पाकिस्तान चले गए। लेकिन साल 1948 से 1956 के बीच पाकिस्तान सरकार ने उन्हें कई बार गिरफ्तार किया। साल 1956 में पाकिस्तान सरकार पश्चिमी पाकिस्तान के सभी प्रोविंस को जोड़कर एक बड़ा राज्य बनाने का काम कर रही थी और खान साहब सरकार के इस कदम के खिलाफ खड़े हो गए। इसके बाद उन्हें गिरफ्तार कर लिया। 1960-70 के दशकों में उन्होंने ज्यादातर वक्त जेल या फिर निर्वासन में गुजारा। 1988 में जब उनका निधन हुआ उस समय भी वह पेशावर के हाउस अरेस्ट थे। उनकी इच्छा के अनुसार मृत्यु के बाद उन्हें अफगानिस्तान के जलालाबाद में दफनाया गया।

सुपुर्द-ए-खाक का वो दिन

खान अब्दुल गफ्फार खान की मृत देह को पेशावर में खैबर पास के जरिए जलालाबाद ले जाया गया। उन्हें अंतिम विदायी देने के लिए हजारों लोग इकट्ठा थे, लेकिन दो बम विस्फोटों ने गमगीन माहौल को और भी गमगीन बना दिया। इन बम धमाकों में 15 लोगों की जान चली गई थी। यह भी गौर करने वाली बात है कि अफगानिस्तान में उस वक्त सोवियत संघ की कम्यूनिस्ट आर्मी और मुजाहिद्दीनों के बीच जंग चल रही थी। लेकिन फ्रंटियर गांधी को सुपुर्द के खाक किए जाने के दौरान दोनों तरफ से सीज फायर की घोषणा की गई थी।

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