देश में 5 करोड़ लोग डिप्रेशन के शिकार, इनके इलाज में कारगर साबित होगी AI तकनीक
भारत में लगभग पांच करोड़ लोग डिप्रेशन के शिकार हैं। आगामी वर्षों में दुनिया के आधे मनोरोगी भारत और चीन में होंगे। कृत्रिम बुद्धिमत्ता से इनका इलाज आसान होने की उम्मीद जताई गई है।
[संजय श्रीवास्तव]। मानसिक विकृतियों में कृत्रिम बुद्धिमत्ता यानी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल कमाल करने वाला है। मशीन तथा मनोचिकित्सक मिलकर डीप लर्निंग यानी गहन शिक्षण के एल्गोरिदम का इस्तेमाल करते हुए वैसा ही परिणाम पा लेते हैं जैसी अपेक्षा की जा रही है तो भारत जैसे मानसिक रोगी प्रधान
देश के लिए यह वरदान साबित होने वाला है। उम्मीद जगी है कि मशीन, मनोचिकित्सक और आंकड़े मिलकर इस बात का निदान कर सकते हैं कि किसी मानसिक रोगी में जो अवसाद या किसी अन्य मानसिक बीमारी से ग्रस्त है तो उसकी तीक्ष्णता, गंभीरता के लक्षण किस कदर बढ़ या घट सकते हैं।
इस तकनीकी निदान के बाद हम एआइ यानी कृत्रिम बुद्धिमत्ता की सहायता उसके उपचार में ले सकते हैं। मानसिक बीमारियों की देखभाल में एआइ और स्मार्ट एल्गोरिदम विकसित हो चुका है। इसका इस्तेमाल मानसिक बीमारियों को आरंभ में ही पता लगाने और उसके इलाज में मनोचिकित्सकों की सहायता के लिए कर सकते हैं। इससे आत्महत्या के मामलों में कमी आएगी। मरीजों की जांच करके उपचार करने में आसानी होगी। मशीनी निदान रोगियों को इलाज के लिए प्रेरित करेगा। अभी भारत में अधिकांश मानसिक रोगी अपने को रोगी ही नहीं मानते।
एक रिपोर्ट बताती है कि देश की अधिकांश जनता जाने अनजाने किसी न किसी तरह के मानसिक विकार की शिकार है। भारत की जनसंख्या का लगभग 14 प्रतिशत हिस्सा सामान्य नहीं है। जबकि इस तरफ न तो समाज का कोई ध्यान है, और न सरकार का, और बाजार भी इसको लेकर उदासीन है। सरकार मानसिक व्याधियों पर स्वास्थ्य बजट का बस 0.006 प्रतिशत खर्चती है। बीमा कंपनियां मानसिक रोगों को स्वास्थ्य बीमा के तहत कवर नहीं करतीं।
नैशविले के वेंडरबिल्ट यूनिवर्सिटी मेडिकल सेंटर में मशीन लर्निंग एल्गोरिदम के जरिये अस्पताल ने 5,000 से अधिक मानसिक मरीजों के आंकड़ों का विश्लेषण किया कि इसमें कितने अगले हफ्ते तक आत्महत्या का प्रयास करेंगे, जिसके 84 प्रतिशत नतीजे सफल रहे। दो वर्ष के भीतर कितनी आत्महत्या की कोशिश करेंगे, इसका अंदाजा भी 80 फीसद सटीक था। अब स्मार्टफोन भी मनोरोग का एक उपकरण बन गया है। उपयोगकर्ता के व्यवहार की निगरानी करने वाले वैयक्तिक आंकड़ों के एलगोरिदम के जरिये रोग के निदान का तरीका भी तलाशा है। टाइपिंग स्पीड, बोलने का टोन, आत्मघाती विचारों या भावों के साथ पोस्ट, स्वराघात, शब्दों का चयन इत्यादि बहुत कुछ बताते हैं। डिप्रेशन के लिए तो स्मार्टफोन बेहतर ‘बायोमार्कर’ हो सकते हैं।
सबसे बड़ा सवाल यह कि क्या भावनात्मक स्तर पर आंके जाने वाले मानसिक रोगों का आकलन मात्रात्मक स्तर पर किया जा सकता है। क्या मानसिक स्वास्थ्य मात्रात्मक भी हो सकता है? अन्य शारीरिक विकारों की तरह इसकी भी आंकिक प्रस्तुति की जा सकती है? अगर हां, तो किस तरह के आंकड़ों और मात्रकों में। असल में एआइ पर अधारित मशीन लर्निंग और डीप लर्निंग एल्गोरिदम ‘हार्ड कोर’ भौतिक डेटासेट पर आधारित होते हैं। ये डेटासेट तस्वीरों, लिखे या बोले गए, किताबों से मिले और क्लस्टरिंग डाटा जैसे आंकड़ों के विशाल ढेर में पैटर्न ढूंढकर निर्मित होते हैं। एआइ द्वारा मानसिक विकारों की ‘शारीरिक’ अभिव्यक्तियों का भी बारीकी से अध्ययन किया जा सकता है। आंकड़ों का यह पैटर्न या एल्गोरिदम मस्तिष्क में परिवर्तन अपनी भाषा में कहता है जिसका अर्थ अत्यंत सूक्ष्मता और सटीकता से विश्लेषित किया जा सकता है।
उम्मीद है कि वैज्ञानिक जल्द ही लार और रक्त के नमूने को भी इस एल्गोरिदम के समीकरण से जोड़ सकते हैं। मानसिक स्वास्थ्य विकारों को और अधिक शारीरिक बनाकर, इस तरह यह पद्धति उन पैटर्नों की पहचान कर सकती है जिन्हें चिकित्सक केवल मस्तिष्क के माध्यम से नोटिस नहीं कर सकते हैं या उन कारकों, लक्षणों तक पहुंच नहीं सकते हैं। यह तरीका बहुत सफल हो रहा है, इसीलिए मानसिक स्वास्थ्य विकारों के निदान के लिए स्मार्ट एल्गोरिदम के इस्तेमाल पर मनोरोगियों के मामले में ऊंचा स्थान रखने वाले भारत के अलावा दूसरे देशों में ढेरों शोध चल रहे हैं।
कृत्रिम बुद्धिमत्तायुक्त किसी चैट बोट द्वारा किसी मानसिक रोगी का साक्षात्कार और उससे मिले आंकड़ों का एलगोरिदम भी मानसिक चिकित्सा के निदान में बेहतर सहायता कर सकता है। अगर इस तरह की मशीन जिसमें पहले से आंकड़ों और एलगोरिदम की कसौटी विद्यमान हो तो वह रोगी के बोलने, जवाब देने के तरीके उसके शारीरिक भाषा जैसे किसी दिशा विशेष में देखना, नीची नजर या फिर व्यवहार का एक पैटर्न विशेष का विश्लेषण कर रोग और रोग की गंभीरता का पता लगा सकती है। किसी वर्चुअल मानव या मशीन से रोगी के साक्षात्कार के दौरान उसके भावनात्मक संकट के चलते उसके बोलने के गड़बड़ाए पैटर्न, स्वर के उतार चढ़ाव को परख लेगा। मशीन रोगी के डिप्रेस या उदास होने की आशंका बता देगी।
भारत में मानसिक रोगियों की संख्या निरंतर बढ़ रही है, लेकिन इसके समाधान की दिशा में काम कम हो रहा है। भारत में एक लाख की आबादी पर 0.3 मनोचिकित्सक, मात्र 0.07 मनोवैज्ञानिक और महज 0.07 सामाजिक कार्यकर्ता हैं। विकसित देशों में एक लाख की आबादी पर तकरीबन 0.04 अस्पताल और सात मनोचिकित्सक हैं। वैश्विक स्तर पर करीब 45 करोड़ लोग मानसिक रोगों से पीड़ित हैं।
बावजूद इसके विश्व के 40 प्रतिशत से ज्यादा देशों में मानसिक स्वास्थ्य से संबंधित नीति नहीं है और 30 प्रतिशत से अधिक देशों का इससे संबंधित कोई कार्यक्रम नहीं है। करीब 25 प्रतिशत देशों में मानसिक स्वास्थ्य से संबंधित कोई कानून नहीं है। विश्व के करीब 33 प्रतिशत देश अपने स्वास्थ्य व्यय का एक प्रतिशत से भी कम मानसिक स्वास्थ्य पर खर्च करते हैं। इन विकट परिस्थितियों में अगर कृत्रिम बुद्धिमत्ता की सहायता इस क्षेत्र में मिल जाए और सरकार इस दिशा में सहयोग करे तो स्थितियां सुधर सकती हैं।
(इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर)
[स्वतंत्र पत्रकार]
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