मखनी और लंगर दाल का देशी तड़का

सिर्फ लंगर वाली दाल ही नहीं भट्टा नंबर दस की दाल का नाम जुबान पर आते ही लोगों के पैर सेक्टर-31 में बंसल रेस्त्रां की ओर खिंचे चले आते हैं।

By Babita kashyapEdited By: Publish:Sat, 24 Sep 2016 04:44 PM (IST) Updated:Sat, 24 Sep 2016 04:49 PM (IST)
मखनी और लंगर दाल का देशी तड़का

औद्योगिक नगरी फरीदाबाद में कुछ रेस्त्रां और ढाबे ऐसे हैं जहां की दाल बेहद मशहूर है। इनका जायका लेने के लिए दिल्ली एनसीआर के लोग यहां पहुंचते हैं। लंगर वाली दाल तो यहां तकरीबन छह दशक से मशहूर है। सिर्फ लंगर वाली दाल ही नहीं भट्टा नंबर दस की दाल का नाम जुबान पर आते ही लोगों के पैर सेक्टर-31 में बंसल रेस्त्रां की ओर खिंचे चले आते हैं।

साबुत उड़द-चने की यह दाल चूल्हे पर पतीला या देग में पकाई जाती है। भारत-पाक विभाजन के समय जब पाक विस्थापित पुरुषार्थी यहां आए तो उनके लिए गुरुद्वारों में लंगर की व्यवस्था की गई। गुरुद्वारों में बनने वाली दाल का स्वाद लोगों की जुबान पर ऐसे चढ़ा कि अब शहर में कई ढाबे वाले तो 'लंगर वाली दाल' के नाम से दाल अलग बनाते हैं। हालांकि इनमें एनआइटी एक नंबर मार्केट के फावड़ सिंह चौक स्थित अशोक भाटिया की दाल दूर-दूर तक प्रसिद्ध है। उड़द तथा चने की दाल तो कई होटलों तथा ढाबों में बनती है, लेकिन जिस विधि और मसालों से अशोक भाटिया लंगर वाली दाल बनाते हैं, इसका कोई सानी नहीं है।

बहुत से लोग भाटिया के यहां लंगर वाली दाल खाने आते हैं तो पैक कराकर भी ले जाना नहीं भूलते। करीब 20 साल से लंगर की दाल बनाने के कारोबार में जुटे अशोक भाटिया बताते हैं कि शुरुआती दौर में उन्होंने दाल की विधि तथा मसालों के बारे में कई गुरुद्वारे के सेवादारों से भी बातचीत की थी। उनका मकसद था की उनकी

दाल में खाने वालों को लंगर वाली दाल का स्वाद महसूस हो।

ओल्ड फरीदाबाद भारत कालोनी निवासी सोहित कहते हैं कि वह जब भी एनआइटी-एक नंबर में आते हैं, तो भाटिया की लंगर वाली दाल जरूर खा कर जाते हैं। सेक्टर-16 निवासी प्रेम धमीजा का कहना है कि दालें तो सभी होटलों और ढाबों में बनती है, जो जायका भाटिया की दाल में है, वहीं कहीं और नहीं है। यह दाल पूरी

तरह घुटी होती है तथा इसे खाने के बाद भूख तो मिटती ही है लेकिन जरा भी ऐसा नहीं लगता कि

घर से बाहर का खाना खाया है।

दस नंबर भट्टे वाली दाल

31 वर्षों से दक्षिणी दिल्ली से लेकर फरीदाबाद और पलवल तक के लोग इस दाल को खाने पहले भट्टा नंबर दस पर आते थे तो अब नौ वर्षों से सेक्टर-31 में बंसल रेस्त्रां पर पहुंचते हैं। सेक्टर-31 में भी यह दाल भट्टा नंबर दस वाली दाल के नाम से ही प्रसिद्ध है। इस दाल का 40 साल से एक जैसा ही स्वाद बरकरार है। यूं तो समय के साथ बंसल रेस्त्रां पर अच्छे से अच्छे पकवान बनाए जाने लगे हैं लेकिन इनका स्वाद भी दाल के आगे फीका हो जाता है। बंसल रेस्त्रां के संचालक संजीव बंसल बताते हैं कि स्वादिष्ट दाल बनाने का सफर 40 वर्षों पहले शुरू हुआ था। वर्ष 1975 में सेक्टर-28 के भट्टा नंबर दस के पास उनके पिता स्वर्गीय रामअवतार बंसल ने ढाबे का काम शुरू किया था। थोड़े दिनों में ही उनकी स्वादिष्ट दाल के चर्चे आसपास में होने लगे। वर्ष 2007 में ढाबे की जगह तो बदल गई,

लेकिन उनके पुराने ग्राहक वही रहे। इसके साथ कई नए लोग भी उनसे जुड़े। संजीव ने स्वादिष्ट दाल पकाने का तरीका बताते हुए कहा कि दाल को पहले भिगोकर रखा जाता है। उसके बाद दाल को पतीले में उबाला जाता है। दाल को प्रेशर कुकर में उबालने पर उसका स्वाद खत्म हो जाता है। ऐसे में वह दाल को पतीले में उबालते हैं। और मसाले सिलबट्टे पर पिसे हुए ही इस्तेमाल करते हैं।

गुफा रेस्त्रां का अलग स्वाद

बल्लभगढ़ के अंबेडकर चौक स्थित एमसीएफ मार्केट और दिल्ली आगरा हाइवे पर गोल्डन ग्लेक्सी होटल के सामने गुफा रेस्त्रां की असल पहचान मखनी दाल से बनी। 25 वर्ष पहले खुले गुफा रेस्त्रां की मखनी दाल का स्वाद शहर के लोगों ने दिल्ली, आगरा, मथुरा तक पहुंचाया हुआ है। दिल्ली-नोएडा रहने वाले लोगों को इस दाल का स्वाद ऐसा चढ़ा है कि जब कभी उन्हें दिल्ली से आगरा के बीच भोजन करना होता है तो वे गुफा रेस्त्रां की दाल नहीं भूलते।

टमाटर की खास ग्रेवी से तैयार

काली उड़द, चने की दाल और राजमा मिलाकर रात में भिगोया जाता है। सुबह भीगी दालों को लकड़ी की मूसल मसलकर श्रेष्ठ कंपनी के मसालों, अमूल मक्खन, वीट क्रीम का प्रयोग करके पकाया जाता है। इसमें ताजा टमाटर की ग्रेवी भी इस्तेमाल की जाती है। एक प्लेट दाल मखनी 170 रुपये में बिक्री की जाती है। चार घंटे में होती है तैयार लंगर वाली दाल दस किलो चने की दाल तथा साढ़े तीन किलो साबुत उड़द की दाल को पहले तीन

घंटे तक एक पतीले में पकाया जाता है । जब दाल गल जाती है तो फिर से दूसरे बर्तन में दाल को घोंटा जाता है। इसमें अदरक, हरी मिर्च, जीरा, अजवाइन, घी डाल कर छोंक लगाया जाता है। जरूरत के मुताबिक मसाला डाला जाता है। इसमें एक घंटा और लग जाता है। करीब चार घंटे में लंगर वाली दाल बनकर तैयार हो जाती है।

-अशोक भाटिया, संचालक, भाटिया लंगर वाली दाल का ढाबा, मार्केट

नंबर एक, फरीदाबाद।

रोजाना 40 किलो दाल

बल्लभगढ़ के मोहना रोड़ पर गुप्ता होटल के पास कालू की दाल का स्वाद भी लोगों की जुबान पर चढ़ा है। 1971 से दयानंद उर्फ कालू दाल बना रहे हैं जबकि इससे पहले उनके पिता स्व. रामलाल जटवानी दाल बनाते थे। कालू बताते हैं कि चने की दाल, काले छिलके वाली उड़द की दाल से उनकी स्वादिष्ट दाल तैयार होती है। ये दोनों ही वे देशी दाल इस्तेमाल करते हैं तथा पकाने से महज आधा घंटे पहले ही इस दाल को भिगोते हैं क्योंकि इससे काली दाल का छिलका नहीं उतरता। हल्दी, धनिया व गर्म मसाले भी अपने पिसवाते हैं। खुले बर्तन में देशी अंदाज

में रोजाना 40 किलोग्राम दालों की दाल तैयार की जाती है जो आंधी-तूफान के मौसम में भी खत्म हो जाती है। दाल 40 रुपये में एक प्लेट बिक्री की जाती है।

प्रस्तुति: अनिल बेताब

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